- May 4, 2019
गुलामी का दूसरा नाम बंधुआ मजदूर अभिशप्त भारत
दो दशक पहले भारत में मानव गुलामी के खिलाफ कानून बन गया था. इसके बावजूद इस बुराई को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका. 2016 में सरकार ने कुछ नई नीतियां शुरू की लेकिन अब भी बचाए गए मजदूर फिर गुलाम बनने को मजबूर हैं.
तीन साल पहले सरकार ने गुलामी से छुड़ाए गए मजदूरों के लिए मुआवजा बढ़ाने की घोषणा की थी. लेकिन जमीनी स्तर पर इस पर कोई खास काम नहीं हुआ. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने अपनी एक रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे किए हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता पिछले लंबे समय से कह रहे हैं कि गुलामी से छुड़ाए गए लोग अब एक बार फिर बंधक बनने को मजबूर हैं. साल 2016 में सरकार ने लक्ष्य तय किया था कि साल 2030 तक करीब 1.8 करोड़ मजदूरों को गुलामी से मुक्त कराया जाएगा, साथ ही वे दोबारा कर्ज गुलामी के जाल में न फंसे इसलिए उनकी आर्थिक मदद की जाएगी.
तीन सालों में कई हजार मजदूरों को बचा तो लिया गया लेकिन अब तक महज 500 मजदूरों को ही 20,000 रुपये की शुरुआती मदद मिली है. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की एक स्टडी के मुताबिक सभी छुड़ाए गए मजदूर शुरू से ही पूरी मदद पाने के हकदार थे लेकिन उन्हें मदद नहीं दी गई.
भारत में बंधुआ मजदूरी से बचाने के लिए कानून दो दशक पहले ही आ गया था. इसके बावजूद हाशिए पर रहने वाले समुदायों को खेती, ईंट भट्ठों, चावल मिलों, रेड लाइट इलाकों और घरेलू कामों के लिए अब तक कई जगह गुलाम बना कर रखा जाता है.
नेशनल कैंपेन कमिटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर के संयोजक निर्मल गोराना कहते हैं, “बचाए गए लोगों में से तकरीबन 60 फीसदी मजदूर एक बार फिर कर्ज की वजह से होने वाली गुलामी में फंसते जा रहे हैं. अब भी कई लोग बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने को मजबूर हैं.” वे मानते हैं कि सरकार के पास पैसा तो है लेकिन अब तक वह ऐसे लोगों के पास पहुंचा नहीं है.
संसद में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन सालों के दौरान 25 करोड़ रुपये पुराने मामलों को निपटाने में खर्च किए गए. वहीं गोराना बताते हैं कि पिछले तीन सालों में उन्होंने हर साल औसतन 700 से 800 लोगों को बचाया है लेकिन उन्हें कब मदद मिलेगी इसका कुछ पता नहीं.
2016 के नए सिस्टम से पहले करीब 11 हजार लोगों को गुलामी से मुक्त कराया गया जिन्हें उस वक्त बतौर राहत पांच हजार रुपये मिले थे. लेकिन नए नियमों के तहत पीड़ित लोगों के लिए मदद हासिल करना आसान नहीं है.
नियमों के मुताबिक किसी भी पीड़ित को तभी पूरा मुआवजा मिलता है जब तक उसे गुलाम बना कर रखने वाला नियोक्ता या व्यक्ति दोषी साबित ना हो जाए.
श्रम कल्याण मामलों के महानिदेशक अजय तिवारी कहते हैं कि सरकार इस समस्या से वाकिफ है और अब ऐसे बदलावों पर बात चल रही है जिसमें पीड़ितों को आरोपियों पर दोष साबित होने का इंतजार नहीं करना होगा. तिवारी ने कहा, “हम मौजूदा स्थिति को समझ रहे हैं और जानते हैं कि इसमें कानूनी बदलावों की जरूरत है.”
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 1976 के बाद से अब तक करीब तीन लाख लोगों को बंधुआ और गुलामी भरी जिंदगी से निकाला जा चुका है. हालांकि 2016 में नई नीति लागू होने के बाद कितने लोगों को बचाया गया इसका कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.
वहीं सामाजिक कार्यकर्ताओं को चिंता है कि कही आर्थिक मदद में देरी बचाए गए मजदूरों को फिर से गुलामी के दलदल में न धकेल दे. गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल जस्टिस मिशन की एसोसिएट डायरेक्टर टीना जैकब कहती हैं, “2016 में शुरू हुई नई नीति में हजारों लोगों को गुलामी और बंधुआ मजदूरी से बचाने की ताकत है लेकिन यह तभी सफल होगी जब लोगों को पैसा आसानी से मिलने लगे.”
जैकब मानती हैं कि जब बंधुआ मजदूरों को निकाला जाता है तो वह काफी घबराए हुए होते हैं. ऐसे में जरूरत है कि उन्हें शुरुआती 30 दिन में ही मदद मिल जाए नहीं तो वे दोबारा मुश्किलों में घिर सकते हैं.
मछली–
तेलंगाना के पंचायत चुनाव में तीन ऐसे लोग चुन कर आए हैं जो पहले बंधुआ मजदूर थे. इनमें एक विजेता हैं दक्षिण तेलंगाना की 40 साल की कुदुमुला देवम्मा.
देवम्मा को दो दशक तक मछुआरों के बीच बंधुआ मजदूरी करनी पड़ी ताकि पति और ससुर के लिए कर्ज की भरपाई हो सके.
100 से ज्यादा मजदूरों को हर रोज अपनी पकड़ी हुई मछलियां उन परिवारों को बेचनी पड़ती थीं जिनके नाव होते थे. नाव के मालिक उन्हें जबरन गांव में रोक कर रखते और इनमें से कई तो ऐसे थे जो तीन पीढ़ियों से इनकी गुलामी झेल रहे थे. 2016 में इन लोगों को मुक्त कराया गया.
देवम्मा कहती हैं, “यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में मैं सपना भी नहीं देख सकती थी. मेरी प्राथमिकता है मेरे समुदाय की स्थिति को बेहतर करना और उन्हें आजाद रहने में मदद देना.”
भारत के खेतों, ईंट के भट्ठों, चावल की मिलों और कोठों में आज भी लाखों लोग बंधुआ मजदूरी करते हैं ताकि कर्ज चुका सकें. इनमें से ज्यादातर अनपढ़ हैं, इनके पास कोई हिसाब किताब नहीं, इन्हें बहुत मामूली मजदूरी मिलती है और ये नहीं जानते कि उनका कर्ज कब चुकता होगा.
भारत में गुलाम बनाने की प्रथा बहुत पहले से थी लेकिन 1976 में ही इस पर रोक लगा दी गई हालांकि अब भी बहुत से लोग इसका दंश झेल रहे हैं.
कर्ज चुकाने के लिए गुलाम बनाए गए लोगों में से दो और लोग भी इसी इलाके में पंचायत के लिए चुने गए हैं. 2016 में भारत ने एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की जिसके तहत 1.8 करोड़ बंधुआ मजदूरों को 2030 तक मुक्त कराने का लक्ष्य रखा गया है. हालांकि सिर्फ आजादी मिलने भर से ही कभी गुलाम रहे इन लोगों की मुश्किलें खत्म नहीं होंगी.
ज्यादातर छुड़ाए गए मजदूर “गुलामी की मानसिकता” से जूझ रहे हैं. वो इतने भयभीत हैं कि प्रताड़नाओं से भी इनकार करते हैं. इनसे बात करने वाले काउंसलरों का कहना है कि इनके मन में फिर से पकड़े जाने का डर लगातार बना हुआ है और इसलिए ये उनकी शिकायत नहीं करना चाहते.
बंधुआ मजदूरों को छुड़ाने के लिए काम करने वाले एक समाज सेवी संगठन के प्रोजेक्ट कॉर्डिनेटर सीएच वासुदेव राव कहते हैं, “इन पुरुषों और महिलाओं ने जो हासिल किया है वह बड़ी उपलब्धि है और इससे यहां की तस्वीर बदल सकती है. गुलामी से निकल कर नेता बनने की इन लोगों की यात्रा प्रेरणादायी है…आज की जीत ने इलाके के दूसरे लोगों के पुनर्वास को तेज करने का एक शानदार अवसर पैदा किया है.”
बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अभियान चला रहे लोगों को उम्मीद है कि इस जीत से आधुनिक युग की गुलामी के बारे में लोगों की जगरूकता बढ़ेगी. मुक्त कराए गए लोगों तक सरकार की मुआवजे, घर और रोजगार वाली योजनाओं का पहुंचना आसान होगा. खासतौर से ग्राम पंचायतों के जरिए.
उत्तर बिहार के इलाके से 2014 में रेणु देवी को बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया गया. 2017 में उन्होंने अपने “मालिक” के उम्मीदवार को पंचायत के चुनाव में हरा दिया. इसके बाद उन्होंने पहला काम यह किया कि अपने इलाके को राज्य के बाकी हिस्से से जोड़ने वाली सड़क बनवाई.
स्थानीय स्तर पर मानव तस्करी से लड़ने वाली एक समाजसेवी संस्था के प्रोग्राम कॉर्डिनेटर जाहिद हुसैन कहते हैं, “गुलामी से मुक्त हुए किसी मजदूर में बोलने का भरोसा पैदा करने के लिए ‘महीनों की ट्रेनिंग’ की जरूरत पड़ती है.”
हुसैन बताते हैं, “जब मैं पहली बार रेणु देवी से मिला तो वो इतनी डरी हुई थीं कि कुछ बोल भी नहीं पाती थीं. अब वो काफी बोल्ड हो गई हैं.”
(सभार –ड्यू.काम)