- November 16, 2015
ख्याल रखें औरों का भी – डॉ. दीपक आचार्य
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उदारता दैवीय गुण है। जो जितना अधिक उदारमना होता है उतना अधिक भगवान के करीब माना जाता है।
इंसान के पास कितना ही धन-वैभव हो, उसका कोई अर्थ नहीं यदि वह सिर्फ अपने ही अपने पर खर्च करता है, औरों के लिए खर्च करने में मौत आती है।
इस दृष्टि से सारे कृपण और मक्खीचूस लोग उस श्रेणी के मानवों में आते हैं जिनसे परमात्मा दूर रहता है। ऎसे लोगों पर भगवान की कृपा अपेक्षाकृत कम होती है।
ईश्वर हमेशा उसी पर मेहरबान होता है जो समाज और क्षेत्र के प्रति संवेदनशील होता है, अपने परिचितों और जरूरतमंदों को प्रसन्न रखने का दिली ख्याल रखता है तथा जहां जरूरत होती है वहां मुक्त मन से उदारतापूर्वक खर्च करता है।
ईश्वर किस पर कितना प्रसन्न है यह देखना हो तो उदारता ही सबसे बड़ा संकेतक है। पूरी दुनिया कृपण और उदार दो वर्गों में विभक्त है। उदारता का यह अर्थ नहीं है कि हम बिना सोचे-समझें रुपया-पैसा बहाते रहें।
मितव्ययता जरूरी है लेकिन जहां जरूरत हो वहां, जिनके लिए जरूरत हो वहाँ भी कुछ खर्च न करने की जो लोग मानसिकता पाले बैठे होते हैं,असल में ये लोग ही सामाजिकता के आवरण में असामाजिक से कम नहीं हैं।
बहुत कम लोेग ऎसे होते हैं जो कि समाज के हर घटक और क्षेत्र के प्रति संवेदनशील होते हैं तथा इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि उन्हें किस इंसान या क्षेत्र के लिए किस समय किस तरह मदद करनी है।
पर बहुतायत उन लोगों की है जो हर क्षण अपने ही अपने में जीने के आदी होते हैंं। इन लोगों को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि कौन किस हाल में जी रहा है, किसे किस वस्तु का अभाव है और किसे हमसे क्या अपेक्षा है।
जो इंसान सामने वालों की अपेक्षाओं को भाँप जाता है, दूसरों को खुश करने में कामयाब हो जाता है वह जमाने में सर्वस्पर्शी और सर्वमान्य होने लगता है। लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि हम लोग अपने मूल्यों के प्रति अडिग रहें, जीवन को औरों के लिए जीने की कोशिश करें तथा ऎसा कुछ करें कि समाज में अच्छा संदेश जाए और दूसरे लोगों को भी प्रेरणा मिले।
हममें से बहुत सारे लोग हैं जिनके लिए उदारता का कोई अर्थ नहीं है। ये लोग खान-पान और व्यवहार से लेकर जीवन के तमाम पक्षों में हमेशा अपनी ओर से कुछ भी खर्च करना नहीं चाहते बल्कि उनके मन में यही होता है कि दूसरों से किस प्रकार अपने काम करवा लें, परायों के खर्च पर खान-पान और संसाधनों की उपलब्धता कैसे हो पाए।
बहुत सारे लोग प्राप्ति के मामले में अकेले ही अकेले सब कुछ पा जाने को सदैव उतावले बने रहते हैं जैसे कि ये लोग जमाने भर को लूटने के लिए ही पैदा हुए हों। जहां कहीं ये लोग होंगे वहां सब कुछ अपनी झोली में लाने में लाने के लिए दिन-रात पागलों की तरह उलझे रहेंगे और जहां कुछ मिलने की उम्मीद न हो वहां भोले-भाले लोगों का मुफतिया जमावड़ा कर लिया करते हैं।
हमारे आस-पास रहने वाले और हमारे भरोसे रहने वाले लोगों की सभी प्रकार की चिन्ता करना, उनके योगक्षेम के प्रति संवेदनशील होना तथा उनका सहयोग करते हुए विश्वास जीतने का काम हर कोई नहीं कर सकता है।
जो लोग यह काम कर पाते हैं वास्तव में वे ही धन्य हैं, दूसरे तो सिर्फ इंसानी पुतलों के सिवा कुछ नहीं हैं जो कि काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों की हवाओं से ही हिलते-डुलते और जीते-मरते हैं।
दुनिया में कोई कितना ही वैभव क्यों न पा ले, लोग उन्हीं को याद करते हैं जो औरों के काम आते हैं। उन्हीं का इतिहास लिखा जाता है जो त्याग-तपस्या, सादगी और अपरिग्रह के साथ परम उदारता, दया और कृपालु भावों के होते हैं।
जहां कहीं रहें वहां औरों का पूरा-पूरा ख्याल रखें, इसी में हम सभी का भला है। इस मामले में सच्चे इंसान वे ही हैं जो हरेक इंसान में भगवान को देखते हैं। हम सभी का कत्र्तव्य है कि इंसानियत को बचाए रखने के लिए अपनी ओर से हरसंभव उपाय करें, अपनी जिन्दगी को औरों के लिए समर्पित करें और ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई’ को आत्मसात करते हुए जगत का कल्याण करने में भागीदारी निभाएं।