- October 29, 2021
खासी समुदायों मेँ छोटी बेटी संपत्ति की मालकिन : अब सभी संतानों को संपत्ति में बराबरी का हिस्सा देने का फैसला
मेघालय के आदिवासी समाज में सदियों से पैतृक संपत्ति की मालकिन घर की सबसे छोटी बेटी ही होती रही है. खासी पर्वतीय स्वायत्त जिला परिषद ने सभी संतानों को संपत्ति में बराबरी का हिस्सा देने का फैसला किया है.
मेघायल में संपत्ति उत्तराधिकार विधेयक पारित किया जाएगा. यह देश में एकमात्र ऐसा समाज है जहां छोटी बेटी संपत्ति की मालकिन होती है. पहले केरल के नायर समुदाय में भी मातृसत्तात्मक परंपरा थी. लेकिन वर्ष 1925 में कानून के जरिए उसे बदल दिया गया था.
मेघालय में तीन प्रमुख जनजातियां हैं, गारो, खासी और जयंतिया. इन तीनों में मातृसत्तात्मक समाज की परंपरा है. वर्ष 2011 की जनसंख्या के अनुसार राज्य की कुल जनसंख्या 30 लाख के करीब है. इसमें करीब आधी आबादी खासी समुदाय की है. इन तीनों जनजातियों में पैतृक संपत्ति की मालिक परिवार की सबसे छोटी बेटी होती है.
भारत के इस इलाके में बेटियों की चलती है
यहां शादी के बाद लड़की के नाम पर ही वंश चलता है. देश के दूसरे हिस्सों में बेटा होने पर बधाई दी जाती है. लेकिन इस राज्य में ठीक इसके उलट है. यहां बेटी पैदा होने पर तो बधाइयों का तांता लग जाता है. लेकिन बेटा पैदा होने पर यह कहकर सांत्वना दी जाती है कि ऊपर वाले की यही मर्जी थी.
खासी पर्वतीय स्वायत्त जिला परिषद (केएचएडीसी) की दलील है कि अगर परिवार के दूसरे बच्चे भी अपने माता-पिता का ख्याल रखते हैं तो सबसे छोटी बेटी को पूरी पैतृक संपत्ति सौंपना उचित नहीं है. परिषद की ओर से प्रस्तावित संपत्ति उत्तराधिकार विधेयक 2021 इस भेदभाव को मिटा कर तमाम भाई-बहनों को संपत्ति का समान अधिकार सौंप देगा. अगर यह विधेयक पारित हो गया तो राज्य के आदिवासी समाज में बड़ा बदलाव आने की संभावना है.
परिषद की पहल
परिषद ने यह फैसला क्यों किया है? केएचडीसी के प्रमुख टीटोस्टारवेल चेनी कहते हैं, “बदलते समय के साथ बदलना जरूरी है. फिलहाल किसी परिवार में बच्चे नहीं होने या सभी लड़के होने की स्थिति में पैतृक संपत्ति के बंटवारे से संबंधित कोई कानून नहीं है. इससे अक्सर जटिलताएं पैदा हो जाती हैं. कुछ मामलों में तो बाकी बच्चों ने इस मुद्दे पर माता-पिता को अदालत तक घसीटा है.” चेनी का कहना है कि पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलने की स्थिति में खासी पुरुष बैंक से कर्ज के लिए भी आवेदन कर सकेंगे.
उनका कहना है कि उक्त विधेयक का मकसद परिवार के सभी बच्चों को बिना किसी भेदभाव के पैतृक संपत्ति में समान अधिकार सुनिश्चित करना है. विधेयक में यह प्रावधान होगा कि माता-पिता अपने उत्तराधिकारी के बारे में फैसला कर सकेंगे. विधेयक में यह भी प्रावधान होगा कि अगर कोई लड़का या लड़की गैर-आदिवासी से शादी कर उसकी संस्कृति और परंपराओं को स्वीकार कर लेती है तो उसे पैतृक संपत्ति से वंचित कर दिया जाएगा.
बादलों के घर, मेघालय में रहने वाले खासी मातृसत्तात्मक परंपरा में रहते हैं. राज्य के सबसे बड़े खासी समुदाय में नाम और संपत्ति मां से बेटी के नाम की जाती हैं.
अंग्रेजों के आने के पहले तक मेघालय का जनजाति समाज दूसरे पितृसत्तात्मक समाजों से कटा रहा है. लेकिन देश आजाद होने के बाद मेघालय की यह स्थिति तेजी से बदली है. बाकी दुनिया से संपर्क बढ़ने के बाद यहां पुरुषों के एक तबके में मातृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ असंतोष भी पनपने लगा. हालांकि लंबे अरसे तक यह मुखर होकर सामने नहीं आ पाया. वर्ष 1990 में खासी समुदाय के कीथ पेरियट की ओर से स्थापित सिंगखोंग रिम्पई थेम्माई (एसआरटी) ने मेघालय की मातृसत्तात्मक प्रणाली को उखाड़ फेंकने को अपना लक्ष्य बनाया है. फिलहाल संगठन के सदस्यों की तादाद चार हजार से ज्यादा है.
बदल रहा है आदिवासी समाज
एसआरटी से जुड़े माइकल सीम बताते हैं, “बीते कुछ बरसों से आदिवासी समाज कई किस्म के बदलावों से गुजरा है. मातृसत्तात्मक समाज की एक सबसे बड़ी कमी यह है कि पत्नी से अलग होने के बाद पुरुषों को गुजारा भत्ता देने की जरूरत नहीं होती है. इसी वजह से अब यहां शादियां टूटने लगी हैं और अकेली महिलाओं वाले परिवारों की तादाद लगातार बढ़ रही है. इस कारण राज्य में अनाथालय और वृद्धाश्रम भी बढ़ रहे हैं.”
लेकिन एसआरटी की मुहिम के खिलाफ आवाजें भी उठने लगी हैं. महिला कार्यकर्ता सी.के. मुखिम कहती हैं, “कुछ लोग पितृसत्तात्मक समाज से प्रभावित जरूर हैं लेकिन आदिवासी समाज में मातृसत्तात्मक प्रणाली की जड़ें काफी गहरी हैं. इसे रातोरात नहीं बदला जा सकता.”
क्या अब परिषद की ताजा पहल से कुछ बदलेगा या फिर इसका भी हाल अरुणाचल प्रदेश की तरह होगा? करीब दो महीने पहले अरुणाचल प्रदेश में पैतृक संपत्ति में महिलाओं को समान अधिकार मिलने संबंधित एक विधेयक तैयार किया था. लेकिन विभिन्न संगठनों के विरोध के कारण वह ठंडे बस्ते में है. विरोध करने वाले संगठनों ने उसे आदिवासी परंपरा पर आघात बताया था.
सीम कहते हैं, “अभी तो यह शुरुआत है. आगे देखते हैं ऊंट किस करवट बैठता है. सबसे बड़ा मुद्दा संपत्ति के हस्तांतरण का है और इसके लिए कानून बदला जाना चाहिए. लेकिन इस दिशा में यहां राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखती.”