क्या हाथी को फिर नए महावत की तलाश ! — सज्जाद हैदर (वरिष्ठ पत्रकार)

क्या हाथी को फिर नए महावत की तलाश ! — सज्जाद हैदर (वरिष्ठ पत्रकार)

वाह रे सियासत सब कुछ निजी स्वार्थ और सत्ता सुख पर ही निर्भर हो चला है। अब किसी भी राजनीतिक पार्टी का कोई सिद्धान्त नहीं रहा। यदि विचार धारा की बात की जाए तो परिस्थिति के अनुसार विचार धारा से भी समझौता होना कोई नई बात नहीं है। राजनीति में सब कुछ संभव है। एक बार फिर से उत्तर प्रदेश की सियासत नई करवट लेती हुई दिखाई दे रही है जिसके संकेत पूरी तरह से स्पष्ट रूप से मिल रहे हैं।

क्योंकि जब भी कोई राजनेता किसी भी दूसरी पार्टी के राजनेता के द्वारा उठाए गए किसी भी प्रकार के सियासी कदम का यदि विरोध न करे तो यह संकेत साफ एवं स्पष्ट हो जाता है कि निश्चित ही किसी प्रकार की कोई अंदरूनी खिचड़ी पक रही है। क्योंकि सियासी योद्धा तनिक भी देर नहीं लगाते और तत्काल सियासी समीकरणों को साधते हुए विरोधी राजनेता पर तुरंत पलटवार करते हैं। परन्तु यदि किसी भी प्रकार की नरमी दिखाई दे तो इसके संकेत बहुत कुछ कहते हैं। उत्तर प्रदेश की धरती से इस बार के राज्यसभा चुनाव ने एक बार फिर से नया मंच की झाँकी प्रस्तुत कर दी है की आने वाले समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति का क्या रूप होगा। राज्यसभा चुनाव में हुई उठापटक और सियासी दांवपेंच के बाद बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने समाजवादी पार्टी पर जोरदार हल्ला बोला है।

मायावती द्वारा कहे गए शब्द कुछ अलग ही इशारा कर रहे हैं। क्योंकि मायावती ने अखिलेश को सियासी सबक सिखाने की बात कही। उन्होंने समाजवादी पार्टी को हराने के लिए किसी भी पार्टी के साथ जाने की बात कह दी। मायावती ने सपा के संपर्क में आए 7 विधायकों को निलंबित कर दिया है। और कहा कि इन विधायकों की सदस्यता समाप्त करने की कार्रवाई आगे भी की जाएगी। बसपा सुप्रिमों ने लोकसभा चुनाव को याद करते हुए कहा कि सांप्रदायिक ताकतों से मुकाबला करने के लिए हमारी पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाया था। लेकिन उनके परिवार में चल रही आंतरिक कलह की वजह से उन्हें बसपा के साथ गठबंधन का अधिक फायदा नहीं मिल सका।

चुनाव के बाद उनकी तरफ से प्रतिक्रिया मिलनी बंद हो गई जिस वजह से बसपा ने अपने रास्ते अलग करने का फैसला लिया। बसपा सुप्रीमो यहीँ नहीं रुकीं उन्होंने कहा कि मैं यह खुलासा करना चाहती हूं कि जब हमने लोकसभा चुनाव एक साथ लड़ने का फैसला किया था तब पहले दिन से ही हमने कड़ी मेहनत की। लेकिन समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष पहले दिन से ही संकेत देते रहे कि अब जबकि सपा-बसपा ने हाथ मिला लिया है तो जून 1995 के केस को वापस ले लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि चुनाव प्रचार की बजाय सपा मुखिया मुकदमा वापसी कराने में लगे थे।

2003 में मुलायम ने बसपा तोड़ी उनकी बुरी गति हुई अब अखिलेश ने यह काम किया है उनकी भी बुरी गति होगी। राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी के विधायकों में हुई सेंधमारी पर मायावती ने कहा लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद जब हमने समाजवादी पार्टी के व्यवहार को देखा तभी समझ में आ गया कि हमने 2 जून 1995 के केस को वापस लेकर बड़ी गलती कर दी है। हमें उनके साथ हाथ नहीं मिलाना चाहिए था और इस संबंध में गहराई से सोचना चाहिए था। मायावती यहीं नहीं रुकी उन्होंने आगे यह भी कहा कि हमने फैसला कर लिया है कि उत्तर प्रदेश में आगामी एमएलसी चुनाव में सपा के प्रत्याशी को हराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाएंगे। इसके लिए हमें चाहे किसी भी सियासी पार्टी के साथ जाना पड़े तो हम जाएंगे। परन्तु सपा को हम इस बार सबक निश्चित ही सिखाएंगे।

राज्यसभा की 10 सीटों पर हो रहे चुनाव में उठा-पटक के बीच सपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी प्रकाश बजाज का पर्चा खारिज हो गया। जबकि बसपा प्रत्यासी रामजी गौतम का पर्चा खारिज नहीं हुआ। यह पूरा सियासी समीकरण पर्चा खारिज एवं पर्चा स्वीकार्य से ही निकलकर चर्चा में आया क्योंकि बसपा के संख्या बल और पर्चा का स्वीकार्य होना। कई सवालो को जन्म देता है। लेकिन इन सभी दृश्यों के साथ एक बात उभर कर सामने आई है वह यह कि बसपा के अंदर एक बड़ी खिचड़ी पक रही है। क्योंकि बसपा के कुछ नेताओं को लगता है कि अगर बसपा प्रमुख भाजपा के साथ 2022 के चुनाव में हाथ मिला लेती हैं तो उनका राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ सकता है।

क्योंकि सबका अपना-अपना वोट बैंक है। जिसके आधार पर राजनीति होती है। क्योंकि राजनीति में वोट बैंक ही मुख्य आधार है यदि वोट बैंक ही नहीं रहा तो राजनीति शून्य हो जाती है। इसलिए बसपा में विराजमान उन तमाम राजनेताओं को इस बात की चिंता सता रही है कि बसपा प्रमुख के फैसले कहीं उनका सियासी भविष्य अधर में न लटका दें। इसलिए सियासत के सभी मौसम वैज्ञानिक अपनी-अपनी सीट के मतदाताओं का आंकलन करने के बाद अपने भविष्य को सुरक्षित करने की जुगत में अभी से ही लग गए हैं।

क्योंकि नई पार्टी एवं नए समीकरण को साधने में समय का लगना स्वाभाविक है। लेकिन राज्यसभा के चुनाव में एक बात तो स्पष्ट है कि जिस प्रकार से भाजपा ने अपने प्रत्यासी मैदान में उतारे हैं उसके बाद एक सीट पर बसपा को अवसर मिल गया और बसपा ने भी अपना सधा हुआ कदम उस डगर पर साध कर रख दिया उससे यह संकेत और साफ हो जा रहा है कि आने वाले 2022 के चुनाव में उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर से नया मोड़ आएगा। क्योंकि इस बार 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस प्रकार की सियासी रस्सा कसी दिखाई दे रही है वह अपने आप में बहुत कुछ कह रही है।

सपा बसपा के साथ-साथ इस बार कांग्रेस भी अपनी पूरी ताकत लगाने को बेताब है। जिससे साफ है कि अगर उत्तर प्रदेश की धरती पर अगर कांग्रेस का हाथ मजबूत होता है तो निश्चित ही इसका खामियाजा मात्र दो ही राजनीतिक पार्टियों को उठाना पड़ेगा। फिर चाहे वह बसपा हो अथवा सपा। क्योंकि मुस्लिम-दलित और ब्राहम्ण-पिछड़ों की राजनीति करने वाली कांग्रेस का वोट बैंक सपा बसपा से ही निकल कर आएगा। साथ ही एक नई पार्टी ने भी अपनी मौजूदगी इस बार के उपचुनाव में दर्ज करवा दी है।

चन्द्रशेखर रावण की पार्टी मजबूती के साथ दलितों के मुद्दो को उठाती है। अभी हाल ही में हुए हाथरस की शर्मनाक घटना को चन्द्रशेखर रावण ने बहुत ही मजबूती के साथ उठाया। इस सभी सियासी समीकरण से एक बात बिलकुल साफ हो जाती है कि चन्द्रशेखर रावण की आजाद समाज पार्टी के मजबूत हो जाने से सीधे-सीधे नुकसान बसपा को ही होना है। क्योंकि जो भी वोट चन्द्रशेखर रावण की पार्टी को जाएगा उसका एक बड़ा भाग बसपा से ही टूटकर आएगा। इसलिए बसपा पुनः अपना सियासी वजूद कायम करने के लिए वापस मजबूती के साथ लौटना चाहती है लेकिन बसपा के सामने कोई विकल्प नहीं है क्योंकि बसपा ने सपा से हाथ मिलाकर देख लिया। उसके बाद बची कांग्रेस तो बसपा कांग्रेस के करीब तो जाने वाली नहीं क्योंकि दलित वोट की राजनीति करने वाली बसपा भला अपने हाथ से कैसे अपने पैर में कुल्हाड़ी मार सकती है।

क्योंकि कांग्रेस खुद दलितों के वोट बैंक को अपने साथ मजबूती के साथ जोड़ना चाहती है। इसलिए बसपा सुप्रिमों के द्वारा उठाया गया कदम इस बात का संकेत दे रहा है कि भविष्य में भाजपा के साथ बसपा अपने सियासी हित साध सकती है। और खुलकर भाजपा से हाथ मिला सकती है। क्योंकि राजनीति में न तो किसी का कोई दुश्मन होता है और न ही कोई स्थाई दोस्त।

क्योंकि राजनीति सदैव ही समीकरण की परिकरमा करती नजर आती है। इसलिए वर्तमान दृश्य को देखकर इस बात को बल मिलता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति का भविष्य इस बार फिर से गठबंधन की पुरानी इबारत लिखने को तैयार है।

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