क्या विपक्ष बना पाएगा सरकार ? — सज्जाद हैदर

क्या विपक्ष बना पाएगा सरकार ? — सज्जाद हैदर

राजनीति एक ऐसा विषय है जिस पर कुछ भी भविषयवाणी करना असंभव है। परन्तु, ऐसा भी नहीं कि मूकदर्शक बनकर देखा जाए और मुँह से एक भी शब्द न कहा जाए। ऐसा करना तो आज के युग में उचित नहीं होगा। क्योंकि, आज का शिक्षित एवं जागरूक समाज अब मूक भी नहीं रह सकता। क्योंकि, जो कुछ भी हो रहा है वह जनता की नज़रों से कदापि ओझल नहीं हो सकता। यह अलग विषय है कि देश की प्रत्येक जनता का ध्यान उस ओर न जाए, अथवा देश की जनता अपनी व्यस्तता के कारण उस ओर अपना ध्यान आकर्षित न करे यह अलग विषय है। परन्तु देश की संपूर्ण जनता इससे अनभिग्य रहे ऐसी कल्पना करना भी उचित नहीं होगा। क्योंकि, प्रत्येक देश का प्रत्येक नागरिक एक समान कभी भी नहीं हो सकता यह सत्य है।

किसी भी देश की संपूर्ण आबादी एक समान हो ऐसा कदापि नहीं हो सकता। प्रत्येक जनता कभी भी एक समान अपने सोच एवं विचारों को सीमित नहीं रख सकती। यह अलग विषय है कि भारत की जनता और विश्व की जनता में काफी अन्तर है। क्योंकि, भारत की जनता अत्यधिक भोली-भाली एवं सीधी-साधी है। परन्तु, भारत की जनता शांत रहकर खामोशी के साथ सब कुछ देखती और समझती है। अत: देश की जनता के शांत एवं खामोश स्वाभाव का अर्थ कदापि विपरीत दिशा में न निकाला जाए। क्योंकि, देश की जनता जागरूक है।

भले ही देश की जनता राजनीति में बढ़ चढ़कर अपनी भागेदारी दर्ज न कराती हो यह अलग विषय है। परन्तु, ऐसा भी नहीं कि देश की राजनीति से देश की जनता अनजान है। ऐसी कल्पना भी करना अत्यंत अन्याय का विषय होगा। इसका मुख्य कारण यह है कि देश की जनता अपनी दिन चर्या में व्यस्त रहती है। परन्तु, देश की सभी राजनीतिक हलचलों पर देश की जनता की निगाहें टकटकी लगाए हुए लगी हुई होती हैं।

यदि देश के तमाम नेतागण ऐसी कल्पना भी करते हों कि देश की जनता राजनीतिक दांव पेंच से अनभिग्य है तो ऐसी कल्पना उन नेताओं के लिए घातक हो सकती है। क्योंकि, देश की जनता सियासी समीकरणों एवं सियासी चालों को बड़े ही बारीकी के साथ गम्भीरता पूर्वक शांत रहकर टकटकी लगाए हुए निहारती रहती है। यह हमारे देश की विवेकपूर्ण जनता का उदारीकरण है।

देश में आज सत्ता और सिंहासन हेतु नेताओं के बीच आपस में शाब्दिक बाँण चल रहे हैं। एक नेता दूसरे नेता पर शाब्दिक बाँण दाग रहा है जिसे आसानी के साथ देखा जा सकता है। भाषाओं की पराकाष्ठा यहाँ तक पहुंच गई है कि अब मान और सम्मान से इतर अपशब्द एवं अमर्यादित भाषाओं का भी खुले रूप से प्रयोग हो रहा है। ऐसा किस लिए किया जा रहा है, मात्र सत्ता और सिंहासन के लोभ में नेताओं ने आपस में अमर्यादित भाषाओं का प्रयोग करना आरंभ कर दिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब ऐसे नेता सत्ता के लोभ में अपनी सीमा लाँघकर अमर्यादित भाषाओं के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं तो ऐसे नेताओं से देश एवं देश की जनता क्या आशा रखे कि ऐसे नेता देश को किस दिशा में लेकर जाएंगे।

सत्ता एवं सिंहासन की चेष्टा में आज देश के अंदर जो स्थिति दिखाई दे रही है वह किसी से भी छिपी हुई नहीं है। देश के अधिकतर राजनीतिक दल जोकि सरकार से बाहर विपक्ष की भूमिका में नजर आ रहे थे उन सभी के चुनाव से पहले लगभग एक ही प्रकार का सुर थे। लगभग सभी विपक्षी दल यही कह रहे थे कि सारा का सारा विपक्ष एक है और एक ही मुहिम को लेकर अब आगे बढ़ रहा है। जिसका खूब शक्ति प्रदर्शन भी किया गया था। साथ ही विपक्ष के द्वारा बड़े-बड़े दावे भी किए जा रहे थे। परन्तु, ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता गया विपक्ष की एकजुटता की पोल तथा परतें खुलती चली गईं।

देश के सभी प्रदेशों में आज विपक्ष की क्या स्थिति है वह जगजाहिर है, विपक्ष की एकजुटता एवं एकता देश की जनता के सामने है। देश की जनता आज के समय में प्रत्येक राज्यों में विपक्ष की शक्ति को बड़ी ही गंभीरता के साथ देख रही है। चुनाव की घोषणा से पहले जो दावे विपक्ष के द्वारा किए जा रहे थे वह किसी मुँगेरी लाल के हसीन सपनों से कम नहीं थे। क्योंकि, विपक्ष एकजुट होकर देश में सत्ता के परिवर्तन की बात कर रहा था। लेकिन जैसे ही देश में चुनाव का बिगुल बजा विपक्ष के बिखरने का कार्यक्रम आरम्भ हो गया।

खास करके हिन्दी भाषी क्षेत्रों में विपक्ष अपनी एकता एवं एकजुटता की बात कर रहा था। परन्तु, आज क्या स्थिति है वह सबके सामने है। तो क्या इस स्थिति में विपक्ष देश की सत्ता का परिवर्तन कर पाएगा ऐसी कल्पना करना भी अपने आपमें बेईमानी होगी। क्योंकि, क्षेत्रीय क्षत्रपों ने देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस एवं कांग्रेस के नेतृत्व को अपना नेता मानने से इनकार कर दिया। दिल्ली से लेकर के उत्तर प्रदेश तक की स्थिति पर यदि प्रकाश डालें तो परिणाम नजरों के सामने आ जाते हैं कि भविष्य में चुनावी समीकरण किस ओर बैठेगा। यदि शब्दों को परिवर्तित करके कहा जाए तो संभवतः गलत नहीं होगा कि भविष्य का राजनीतिक ऊँट किस करवट बैठेगा इसके साफ एवं स्पष्ट संकेत दिखाई दे रहे हैं।

क्योंकि, जब आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस में समझौता चुनाव से पहले छोटी कुर्सियों के लिए नहीं हो पाया तो यह फैसला बड़े सिंहासन हेतु क्या हो पाएगा। जब यह समझौता सांसदो के चुनाव हेतु सीट एवं टिकट को लेकर के न हो पाया तो यह फैसला उस बड़ी कुर्सी प्रधानमंत्री पद के लिए कैसे हो पाएगा। ऐसा हो पाना असंभव है। क्योंकि, दिल्ली की धरती पर कांग्रेस एवं आप पार्टी दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं।

इसके बाद आइए आपको लेकर उत्तर प्रदेश की धरती पर चलते हैं। ठीक यही स्थिति उत्तर प्रदेश की धरती पर भी है। उत्तर प्रदेश की धरती पर दोनों प्रमुख विपक्षी दल सपा एवं बसपा ने आपस में समझौता कर लिया और सीटों का बँटवारा करके प्रदेश की धरती पर चुनावी बिगुल फूँक दिया जिसमें बाद में अजित सिंह की पार्टी रा.लो.दल को जगह मिल गई। परन्तु, देश की सबसे पुरानी पार्टी एवं देश की प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को इस गठबंधन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। आज उत्तर प्रदेश की धरती पर कांग्रेस गठबंधन से अलग खड़े होकर चुनाव लड़ रही है। यह दिल्ली और उत्तर प्रदेश की विपक्षी रणनीतिकारों एवं एकता वादियों की तस्वीर है जोकि किसी से भी छिपी हुई नहीं है।

इसके बाद आइए आपको लेकर चलते हैं बिहार की धरती पर। क्योंकि, बिहार की धरती भी भारत की राजनीति में अपना बहुत बड़ा दखल रखती है। तो आइए देखते हैं कि बिहार की धरती पर विपक्ष की एकता क्या कहती है। बिहार की धरती पर जब आप सियासी गलियारों में कदम रखेगें तो वहां भी आपको विपक्ष की एकता तार-तार नज़र आएगी। बिहार की धरती पर जे.डी.यू जहाँ भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है वहीं विपक्ष की स्थिति काफी कमजोर नजर आ रही है। क्योंकि, जहाँ कम्निष्ठ उम्मीदवार कनहैया कुमार के सामने गठबंधन सहित राजद ने अपना प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतारा है।

बिहार की क्षेत्रीय पार्टी जन अधिकार पार्टी लोकतांत्रिक जोकि पप्पू यादव की पार्टी है इस पार्टी को महागठबंधन में जगह ही नहीं दी गई। बिहार में जन अधिकार पार्टी लोकतांत्रिक और कमनिष्ठ दोनों ही महागठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ रही हैं। इससे भी देश की विपक्षी एकता की पोल साफ एवं स्पष्ट दिखाई दे रही है कि जब आज चुनाव में एक होकर पार्टियां सरकार से मुकाबला करने का साहस नहीं जुटा पा रही हैं तो यह देश को भविष्य का प्रधानमंत्री कैसे प्रदान कर सकती हैं। क्योंकि, यह सभी पार्टियां नीति, नीयत और विचारधारा की लड़ाई की बात करती हैं। परन्तु, यह लड़ाई कुछ और ही लगती है जोकि अपने निजी स्वार्थ की ओर इशारा करती है। यदि विचारधारा की बात होती तो विपक्ष निश्चित ही एक जुट दिखाया देता। परन्तु, विपक्ष का एक जुट न होना यह निजी लाभ एवं हानि के साफ संदेश देता हुआ दिखाई दे रहा है।

इसके बाद बंगाल की धरती पर भी प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं। बंगाल की धरती की स्थिति ठीक उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली एवं बिहार जैसे ही है। बंगाल में ममता बनर्जी जोकि सत्ता में हैं। परन्तु, कांग्रेस से गठबंधन तृणमूल का नहीं हो पाया अथवा शब्दों को बदलकर यह कहा जाए कि तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को स्वीकार्य करने से इनकार कर दिया और अकेले ही चुनावी मैदान में उतर गईं। अब वहाँ भी कांग्रेस अकेले ही संघर्ष करती हुई नजर आ रही है।

अतः देश की इन सभी राजनीतिक तस्वीरों को देखने के बाद जो स्थिति उभरकर सामने आती है वह साफ एवं स्पष्ट है। कि जब चुनाव में विपक्षी पार्टियों कि यह हालत है कि एक दूसरे के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकती तो यह सभी पार्टी एक दूसरे के साथ मिलकर सरकार कैसे बना लेंगी और सरकार कैसे चला लेंगी, यह एक अत्यंत जटिल प्रश्न है। दूसरा सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि बिखरा हुआ विपक्ष जनता के बीच अपनी छाप छोड़ने में विफल रहा। देश की जनता विपक्ष के बिखरे हुए रूप से अचम्भित रह गई। देश की जनता के बीच में यह प्रश्न बड़ी ही तीव्रता के साथ उठने लगा कि जब विपक्षी पार्टियाँ अलग-अलग चुनाव लड़ेगी तो इसका लाभ भाजपा को मिलना स्वाभाविक है। क्योंकि, राजनीति के क्षेत्र में सारा खेल जनाधार पर ही निर्भर करता है। जिस पार्टी के पास एक जुट जनाधार होगा वह निश्चित ही विजयी होगी। इसके ठीक विपरीत बिखरा हुआ मतदान किसी भी विचारधारा को हार के ही संकेत देता है।

अतः देश की चुनावी तस्वीरों से एक बात तो साफ एवं स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ रही है कि विपक्ष की राजनीति मात्र मुँगेरी लाल के एक हसीन सपने की तरह है। इससे इतर और कुछ नहीं। इस स्थिति में विपक्ष देश की सत्ता का परिवर्तन कर पाए ऐसा सोचना अत्यंत गलत होगा। क्योंकि, बिखरा हुआ विपक्ष किसी भी देश की सत्ता का परिवर्तन नहीं कर सकता। क्योंकि, सत्ता को बनाना एवं बिगाड़ना जनाधार पर ही निर्भर करता है।

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