कुँआरा ! विवाहितों के सीने का शूल

कुँआरा ! विवाहितों के सीने का शूल

आजकल वह शंका ग्रस्त है। पहले पिताजी रहा करते थे। अब इसका दायित्व उस पर आ गया है। आयेगा भी कैसे नहीं ?  सनातन संस्कार है न ! यही तो हमारी प्रथा है। प्रथा होते ही है निभाने के लिए। हंस कर निभाओ या रो कर। लेकिन निभाओ। संस्कार जैसे भी हो। उदार हो या उधार हो , या कुंठित। ढोना ही पड़ेगा। अगर सनातन संस्कार ” कुएं ” को सागर समझने की है तो उसे संसार ही मानकर ढोना होगा।SHAI-IMAGE

 अगर संस्कार के विपरीत चलते हैं तो हमें हजारों कुकुरो की कटान और आवाजों का सामना करना होगा इस तरह हम इसी चींख- पुकार में दमतोड़ देगें। इसलिए मजबूरी ही सही, साथ -साथ चलते रहना चाहिए।चलते -चलते यूं ही वो टकरा गया है, मेरे घर के सामने , वो, यूं ही घायल हो गया है।

अब कुँआरा को ही लें। एक कुँआरा है और सभी पडोसी विवाहित है तो यहाँ विषम संकट पैदा होने की सम्भावना है। बेचारे उसके विरुद्ध विवाहित पड़ोसियों की फ़ौज खड़ी हो जाती है। विपक्षियों की तरह लोग बोल के ओले बरसाने में लगे रहते है। नए – नए आक्षेपों की बाण चलाये जाते हैं। लेकिन वह कुंआरा है जो भागने का नाम ही नही लेता है। हिमालय की तरह सामने अडा भी है और खडा भी है । यही तो है दर्द जो विवाहितों के सीने का शूल बना है।

पडोसी है तो इसका मतलब यह नहीं की सभी चाची ही होंगी। चाची के लिए कोई बात नहीं। अगर उसमें किसी के पास अंगूरी भाभी जैसे अंगूरी पत्नी है तो यह समस्या है। उसका दिल तो –पीपल के पत्तों जैसे ही न डोलेगी ! डोलना भी चाहिए। कहीं पे निगाहें ,कही पे निशाना। रुक जा वो अंगूरी रुक जा , सामने खडा है वो कुंआरा। ऐसे में नौकरी करने में दिल भी लगेगा क्या ? अंगूरी को छोड़ कर दूर रहना दुःख की बात है न ! बदले में कुँआरा ही गालियों का हकदार होगा न ! होना भी चाहिए। इससे मन की भड़ास निकल जाती है। अपने पत्नी को सीधे तौर पर तो नहीं कह सकता है। शिकार बेचारा कुँआरा बन जाता है। है न ! मन की बात।

ऐसे में कुंआरे का मन शांत – समुद्र कि तरह ज्वार – भाटा में तब बदल जाता है जब उसके नजरों के सामने से अंगुरी मचलती हुई निकलती है । ऐसे मे पडोसी पुलिस में हो तो वह ऑफिस से आने के बाद जासूसी का पूरा प्रशिक्षण इस कुँआरे के इर्द गिर्द में लेगा न । लेना भी चाहिये , अगर ऐसा नही होता है तो अदिति के घर मे बाणासूर ही पैदा होगा न!

तबाही का आलम देखिये ! वह विचलित हो कर कुंआरा से पूछता है  क्या करते हो ? कहाँ करते हो ? काम पर कब जाते हो। इस सूचना के बाद चौपाल पर सभी पडोसी इकठ्ठा होकर चौपाइगिरि करने में एक – एक – पल व्यतीत करते हैं। कब भागेगा ? धमकाओ ? कुछ सोचो ? यार कुछ भी सोचो !!  सूर्पनखा कि नाक कट गई तो हम विवाहित पांडवो कि तरह अनाथ हो जायेगें, कुंआरा माल लेकर नौ दो ग्यारह  !!

ऐसे में स्वाभाविक है की  मन में प्रश्नों की बौछारें उठने लगती है। क्या हुआ ! कैसे हुआ ! मुँह लटकाने में समय व्यतीत कर रहा होता है। क्या कहूँ ? किससे कहूँ ” मन की बातें ” किससे साझा करूँ , अपनी बातें। —-मन की बातें।

“मन की बातें ,वो करता है , मेरे मन की बातें ले लेकर घंटों भर बकबक करता है। लेकिन अपने मन की बातें किसको कहता है। खाते , गाते , हँसते – रोते। चलते -फिरते , वहीँ कुँआरा नजर आता है। क्या कहूँ ? मन की बातें। वहीँ कुँआरा लपक लेता है।

हमारी संस्कार परोपकार की रही है। इस धर्म को निभाना चाहिए। उसमें भी विवाहित तो दया के पात्र होते ही है। परोपकार धर्म देखिए ! तिब्बत और कश्मीर छीन लिया , हमने धर्म निभाया। कितने उदार संस्कृति है। इसी तरह वेबजह सर धुनने से तो बढियां है की पड़ोसियों को कुँआरा के लिए स्व- धर्म निभाना  चाहिये !

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