• February 8, 2016

कार्यस्थलों से नहीं स्वकर्म से रखें मोह – डॉ. दीपक आचार्य

कार्यस्थलों से नहीं  स्वकर्म से रखें मोह  – डॉ. दीपक आचार्य

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सभी लोग कोई न कोई काम -धंधा करते हैं और उसी के आधार पर अपनी आजीविका का निर्वाह करते हैं। जिस कर्म में हम स्वयं स्वामी होते हैं  उन कर्मों में हम बड़ी ही सावधानी, सतर्कता और धैर्य के साथ अपनी भूमिका निभाते हैं क्योंकि उसके प्रति हमारा स्वाभाविक स्वामी भाव होता है।

चाहे वह किसी भी प्रकार की संपदा, कर्मस्थल हो या फिर अपना घर या वाहन ही क्यों न हो। हम एक-एक चीज संभाल कर सलीके से रखते हैं और उसका सतर्कतापूर्वक उपयोग करते हैं।

लेकिन जिन स्थानों के स्वामी दूसरे कोई होते हैं अथवा राज होता है उनमें हमारी सतर्कता या तो कम हो जाती है अथवा हम अपने कर्म में शिथिल हो जाते हैं लेकिन अपने-अपने कार्यस्थलों से हमारी प्रगाढ़ आसक्ति स्थायी भाव को प्राप्त कर लिया करती है।

चाहे पाँच साला बाड़े हों या फिर साठ साला या इससे अधिक के बाड़े, हम लोग इनके प्रति इतने अधिक आसक्त हो जाते हैं जैसे कि जिन्दगी भर के लिए हमें इन बाड़ों में ही रहना है और मृत्यु का वरण भी इन्हीं परिसरों में करना है।

हमारी इतनी अधिक अंध आसक्ति क्यों हो जाती है इसका जवाब आज तक कोई नहीं दे पाया है लेकिन इतना अवश्य है कि हम अपने कार्यस्थलों को अपनी सल्तनत मानकर चलने की बुराई पाल चुके हैं।

अपने कार्यस्थलों का संरक्षण एवं इससे जुड़ी धरोहरों की सार-संभाल जरूरी है लेकिन हम इससे भी आगे बढ़कर ऎसा व्यवहार करने लगते हैं जैसे कि हम स्वयं धरोहर ही हो गए हों।

अपने कार्यस्थलों की हर चीज और हर कोने पर हम अपना अधिकार समझते हैं और इसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं जबकि हमारी भूमिका सिर्फ ट्रस्टी से कहीं ज्यादा नहीं होती और ऎसा ही होना चाहिए।

बहुत सारे लोग जहां काम करते हैं वहाँ हर वस्तु और क्रिया को अपने से जोड़कर देखते हैं और एकाधिकार समझते हुए काम करते हैं।

हम जिस काम के लिए लगाए गए हैं, जिन लोगों की सेवा के लिए लगाए गए हैं उनसे अधिक हमारी दिलचस्पी हमारे कार्यस्थलों की सामग्री और रोजमर्रा की गतिविधियों को अपने हिसाब से चलाने की होने लगी है।

हम सभी के कार्यस्थल और सेवा क्षेत्र हमारे लिए नहीं बल्कि जनता के लिए हैं और जनता के उपयोग में आने ही चाहिएं। इन्हें अपने पास भण्डार में जमा रखे रखकर सड़ाने या अनुपयोगी पड़े रहने देने का कोई औचित्य नहीं है।

अधिकांश लोगों की मनोवृत्ति यही होती है। ये लोग हर सामग्री पर भुजंग की तरह कुण्डली मारे बैठे रहते हैं। न किसी की सेवा के काबिल हैं, न परोपकार के। ये अपने कार्यस्थलों को अपने घरेलू भण्डार की तरह इस्तेमाल करते हैं।

खुद के लिए भले ही ये चाहे जो सामग्री अपने घर ले जाएंगे, निवृत्ति होने तक वापरते रहेंगे और लौटाने की ईमानदारी भी नहीं रखेंगे लेकिन जरूरतमन्दों के लिए ये कृपण बने रहते हैं जैसे कि इनके बाप-दादा इन्हीं के लिए रख गए हों और यह कह गए हों कि जब तक काम-धंधों और नौकरी में रहो, इन भण्डारों के द्वार नहीं खोलना, ये सामग्री किसी के उपयोग में नहीं आनी चाहिए भले ही पड़ी-पड़ी खराब क्यों हो जाए।

इस प्रकार के खूब सारे लोग हैं जो आने वाले समय में किन्हीं अंधेरे भण्डारों में भुजंगों की तरह कुण्डली मारकर पड़े रहेंगे। वास्तव में देखा जाए तो हर प्रकार की सामग्री जन-उपयोग के लिए है। खासकर राज के कार्यालयों में जो सामग्री है उसका भरपूर उपयोग जनहित में जरूरतमन्दों के लिए होना चाहिए लेकिन इन भुजंगों का कोई क्या करे जो सब कुछ जमा रखकर बैठ जाते हैं और कुछ भी उपयोग में लाने को कहो, इनके भीतर का स्वामीत्व अहंकार जग उठता है।

यही वे लोग हैं जो अपने कर्म में शिथिलता बरतते हैं, काम लटकाते-अटकाते हैं, और बातें करते हैं कर्मस्थलों के प्रति वफादारी की। वह वफादारी किस काम की जिसमें जनता के उपयोग की सामग्री जनता तक को उपलब्ध न हो।

इस प्रजाति के लोगों की भारी और अनियंत्रित भीड़ सब जगह है  जो सब कुछ होते हुए अभावों का रोना रोते हैं, जैसे कि हर रोज किसी न किसी के शोक के साथ आए हों। भिखारियों जैसे बने रहते हैं और किसी के काम नहीं आते। हर तरह की सामग्री को अपने पास ऎसे दबाए रखते हैं जैसे कि इनके पूर्वजों ने इनके नाम ही कर दी हो। यही वजह है कि बहुत सारे कर्मस्थलों को देखकर लगता है जैसे कि ये अजायबघर या भूतहे परिसर हों।

कर्मस्थलों के प्रति मोह न रखें, अपने कर्म के प्रति निष्ठा, ईमानदारी और पारदर्शिता रखें और जिस काम के लिए जहां लगाए गए हैं वहां कर्तव्यपरायणता से काम करें। जो सामग्री जिसके उपयोग में आनी है उसे बिना किसी हिचक के उदारतापूर्वक उपलब्ध कराएं, ताकि सभी लोग अपना काम ठीक-ठीक ढंग से कर सकें।

इसी में हमारी और हमारे संस्थानों की भी भलाई है। फिर भी हम कृपणता, ढीठता और नालायकी करते रहें तो आने वाला भविष्य हमारा ही खराब होने वाला है क्योंकि हमारे भावी जन्मों में दूध पिलाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा, चाहे हम कितने ही भयंकर भुजंगों के रूप में अवतार क्यों न ले लें।

वहाँ हमें भूखों ही मरना है। इस भावी को अभी से जान लेना चाहिए। उस अवतार में हमारी शक्ल कैसी होगी, इसे देखने के लिए अभी से आईने के सामने देख लें तो किसी न किसी कोण से हम भुजंग के करीब ही दिखेंगे।

भगवान भोलेनाथ इन कुण्डली मारकर बैठने का स्वभाव पाले हुए समस्त भावी भुजंगों को आने वाले जन्म में बड़े-बड़े और घोर अंधकार वाले भण्डारों में ही जगह दें, यही प्रार्थना है।

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