• January 4, 2015

काँठल यात्रा रेसखोरी फला … जहाँ था कभी रींछों का बसेरा – डॉ. दीपक आचार्य

काँठल यात्रा  रेसखोरी फला … जहाँ था कभी रींछों का बसेरा  – डॉ. दीपक आचार्य

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पहाड़ों, नदियों और झरनों की धरा प्रतापगढ़ के ग्राम्यांचलों की अपनी विशिष्ट खासियत रही है। यहाँ गांवों, ढाणियों और फलों के नामकरण का कोई न कोई प्राचीन मिथक या भौगोलिक आधार जरूर रहा है। ऎसा ही एक क्षेत्र है – रेसखोरी फला।

       यह फला प्रतापगढ़ जिले की पाड़लिया ग्राम पंचायत अन्तर्गत कचोटिया गांव में है। इसका पुराना संबंध रींछ(भालुओं) से जोड़ा जाता है। स्थानीय लोगों के अनुसार इस इलाके में काफी संख्या में भालू देखे जाते रहे हैं। इस कारण इस पूरे क्षेत्र का नामकरण ही उन पर हो गया।

       रींछ को स्थानीय बोली में रेंस कहा जाता है। यही कारण है कि पर्वतीय जंगल में रींछों के परिभ्रमण व आवास स्थल होने की वजह से यह इलाका रेसखोरी कहा जाता है।

       यहाँ पहाड़ों में बनी माँदों में किसी जमाने में रींछों का बसेरा था और इसी वजह से इस क्षेत्र का नाम दूर-दूर तक रेसखोरी के रूप में पहचान रखता है। दूर-दूर तक पसरे पहाड़ी क्षेत्र में भैरवनाथ का पुराना स्थानक है जिसके प्रति काफी जनास्था  है।

      आकर्षण जगाता है यह मकान

       यहीं पर मीरा/नारायण का मकान है जिनका परिवार बाँस के बने उत्पादों को बेचकर घर चला रहा है। थोरी जाति का यह परिवार बांस की टोपली, हूपड़े, भणिये, झाडू आदि बनाता है, घटी टाँकता है।

       नारायण और उसके परिवार ने जी तोड़ मेहनत कर क्षेत्र में अपनी खास पहचान बनाई है। नारायण के परिवार में पत्नी मीरा के अलावा दो पुत्र भी हैं जो उनके काम में मदद करते हैं।  बड़ा पुत्र सुनील छठी तथा छोटा मुकेश तीसरी में पढ़ता है।

       नारायण का पहाड़ी पर बना रंग-बिरंगा मकान दूर से ही आकर्षण जगाता है। ऎसा मकान क्षेत्र में और कहीं नहीं दिखता। मेहनतकश और हुनरमन्द बाँस उत्पाद कलाकार श्री नारायण थोरी (मोबाइल नम्बर 7568875084) बताते हैं कि बाँस के उत्पादों के परंपरागत धंधे के सहारे ही परिवार का खर्च निकलता है।

       वे चाहते हैं कि इस धंधे को व्यापक आधार दें तथा आधुनिक विधाओं के अनुरूप जमाने की मांग को देखते हुए बाँस के उत्पादों को तवज्जो दें और इस प्रकार का प्रयास करें कि उनके द्वारा बनाए गए बाँस उत्पाद दूर-दूर तक काँठल धरा की अनूठी पहचान कायम करें।

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