- December 6, 2015
कब मिलेगा पीने को साफ पानी ? – जगजीत शर्मा
भारत में पेयजल की समस्या का काफी विकट है। गांवों की लगभग 80-85 फीसदी आबादी का गुजारा कुओं या हैंडपंप के पानी से होता है। शहरों में ज्यादातर लोग स्थानीय निकायों द्वारा की जा रही जलापूर्ति पर ही निर्भर रहते हैं। शहर और गांवों में अधिसंख्य आबादी को होने वाली जलापूर्ति प्रदूषित रहित है, इसकी कोई भी गारंटी नहीं ले सकता है। यही वजह है कि शहरों और गांवों की अधिकतर आबादी जल जनित रोगों के शिकार होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि भारत के दस फीसदी बच्चे जिनकी आयु पांच वर्ष से कम है, घातक रोग डायरिया से पीडि़त होकर मर जाते हैं। वहीं सरकार का दावा है कि भारत में लगभग 86 प्रतिशत परिवार स्वच्छ पेयजल का उपयोग करते हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से लोगों तक स्वच्छ जल की पहुंच का आंकड़ा बढ़ा है। वर्ष 1991 में जहां देश के सिर्फ 62 फीसदी परिवारों तक स्वच्छ पेयजल की पहुंच थी, वहीं 2001 में यह आंकड़ा बढ़कर 71 फीसदी तक पहुंच गया। 2011 में यही आंकड़े 86 फीसदी पहुंच गए थे। इसमें ग्रामीण इलाके के 83 फीसदी और शहरी इलाकों के 91 फीसदी लोग शामिल थे। केवल 44 फीसदी परिवारों तक नल के पानी की पहुंच है एवं इनमें से भी केवल 32 फीसदी परिवारों तक नल का पानी परिष्कृत होकर पहुंचता है।
देश में कुओं के पानी का इस्तेमाल करने वालों का प्रतिशत 44, नल के शुद्ध पानी का उपयोग करने वाला का प्रतिशत 32, नल के अशुद्ध पानी का उपयोग करने वालों का प्रतिशत 11.6, कुओं के पानी का उपयोग करने वालों का प्रतिशत 11, ट्यूबवेल के जल का उपयोग करने वालों का प्रतिशत 8.5 और नदियों, जोहड़ और अन्य स्रोतों से उपलब्ध पानी का उपयोग करने वालों का प्रतिशत 3.4 है। देश में कहने को तो 86 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है, लेकिन पूरे देश में स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित पेयजल का उपयोग करने वालों की संख्या 35-45 प्रतिशत के बीच ही है। बाकी लोग तो जैसे भगवान भरोसे हैं। प्रदूषित पेयजल का उपयोग करने से लोगों, खासतौर पर बच्चों को डायरिया होने का खतरा मंडराता रहता है, वहीं पानी में घुले अन्य पदार्थों की वजह से हड्डियों के कमजोर होने, टेढ़े होने, पेट संबंधी बीमारियां और कैंसर जैसे जानलेवा रोगों के होने की आशंका बरकरार रहती है। बलिया और उसके आसपास के सात-आठ जिलों में पानी में फ्लोराइड अधिक होने से इस क्षेत्र के लोगों को हड्डी संबंधी रोग होते रहते हैं और समय पर इलाज न होने से उनकी मौत भी होती रहती हैं।
डायरिया जैसी बीमारी से भारत में जितनी मौतें हो रही हैं, उतनी मौतें नेपाल और भूटान में भी नहीं होती हैं। डायरिया से होने वाली मौतों के मामले में दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान (13 प्रतिशत) और पाकिस्तान (11 प्रतिशत) के बाद भारत (10 प्रतिशत) का ही नंबर आता है। नेपाल (7 प्रतिशत), भूटान (7 प्रतिशत), बांग्लादेश (6 प्रतिशत) और श्रीलंका (2 प्रतिशत) की स्थिति इन तीन देशों से बेहतर है। भारत में भी डायरिया प्रभावित राज्यों में आंध्र प्रदेश सबसे अव्वल है। वर्ष 2012 में 20,92,340 लोग डायरिया से पीडि़त पाए गए थे। वहीं इस मामले में पश्चिमी बंगाल 20,33,180 पीडि़तों से साथ दूसरे नंबर पर था। उड़ीसा डायरिया प्रभावित राज्यों में तीसरे नंबर पर था। यहां वर्ष 2012 में 7,43,493 लोग डायरिया की गिरफ्त में आए थे। इसके बाद उत्तर प्रदेश का नंबर था। चौथे स्थान पर रहने वाले उत्तर प्रदेश में वर्ष 2012 में 7,40,328 व्यक्ति इस खतरनाक रोग से पीडि़त थे। पांचवें स्थान पर रहा कर्नाटक जहां इसी वर्ष के दौरान 5,82,347 लोगों के डायरिया से जूझना पड़ा था। भारत सरकार दावे भले ही कुछ भी करे, लेकिन हालात यह है कि देश के लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करा पाना आज भी एक बड़ी चुनौती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक और बिहार आदि राज्यों में रहने वाले अधिसंख्य आदिवासी नदियों, जोहड़ों, कुएं और तालाबों के पानी पर ही निर्भर हैं। आदिवासी बहुल इलाके में विकास की कोई भी रोशनी आजादी के इतना साल बाद भी नहीं पहुंच पाई है। देश के कई ग्रामीण इलाकों में कुएं और ट्यूबवेलों के पानी का उपयोग करने वाली आबादी को यह ही नहीं पता होता है कि वे जिस पानी का उपयोग जीवित रहने के लिए कर रहे हैं, वही पानी धीरे-धीरे उन्हें मौते के मुंह में ले जा रहा है। नदियों के किनारे बसे शहरों की स्थिति तो और भी बदतर है। इन नदियों में फैक्ट्रियों और स्थानीय निकायों द्वारा फेंका गया रासायनिक कचरा, मल-मूत्र और अन्य अवशिष्ट उन्हें प्रदूषित कर रहे हैं। इन नदियों के जल का उपयोग करने वाले कई गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। इससे बचने का एक ही रास्ता है कि लोगों को नदियों को गंदी होने से बचाने के लिए प्रेरित किया जाए। उन्हें यह समझाया जाए कि उनके द्वारा नदियों और तालाबों में फेंका गया कूड़ा-कचरा उनके ही पेयजल को दूषित करेगा। कल-कारखाने के मालिकों को इसके लिए बाध्य करना होगा कि वे नदियों में प्रदूषित और रासायनिक पदार्थों को नदियों में कतई न जाने दें। यदि कोई ऐसा करता पाया जाए, तो उसे कठोर दंड दिया जाए।
जब तक हम जल की महत्ता को समझते हुए नदियों को साफ रखने की मुहिम का हिस्सा नहीं बनते हैं, तब तक नदियों को कोई भी सरकार साफ नहीं रख सकती है। गंगा सफाई योजना के तहत हजारों करोड़ रुपये खर्च हो गए, लेकिन अब तक नतीजा सिफर ही निकला है। भले ही सरकारी नीतियां दोषपूर्ण रही हों, लेकिन इसके लिए आम आदमी भी कम दोषी नहीं हैं। दरअसल, प्राचीनकाल में पर्यावरण, पेड़-पौधों और नदियों के प्रति सद्भाव रखने का संस्कार मां-बाप अपने बच्चों में पैदा करते थे। वे अपने बच्चों को नदियों, पेड़-पौधों और संपूर्ण प्रकृति से प्रेम करना सिखाते थे। वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि ये नदियां, नाले, कुएं, तालाब हमारे समाज की जीवन रेखा हैं। इनके बिना जीवन असंभव हो जाएगा, इसीलिए लोग पानी के स्रोत को गंदा करने की सोच भी नहीं सकते थे। वह संस्कार ही आज समाज से विलुप्त हो गया है। अपने फायदे के लिए बस दोहन करना ही सबका एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हमें इस प्रवृत्ति से बचना होगा।
(लेखक दैनिक न्यू ब्राइट स्टार में समूह संपादक हैं।)