…..और मिट गई उस्ताद की आखिरी निशानी— मुरली मनोहर श्रीवास्तव

…..और मिट गई उस्ताद की आखिरी निशानी— मुरली मनोहर श्रीवास्तव

21 अगस्त से पहले ही मिट गई उस्ताद की आखिरी निशानी

21 मार्च 1916 को जन्मे उस्ताद, 21 अगस्त 2006 को हुआ निधन

पांच समय के नमाजी बिस्मिल्लाह मंदिरों में करते थे शहनाई वादन

डुमरांव जन्मभूमि तो वाराणसी को बनाया कर्मभूमि

….कल चमन था आज एक उजड़ा हुआ, देखते ही देखते ये क्या हुआ….कुछ ऐसे ही हालात हो गए हैं उस्ताद की आखिरी निशानी की, जो अब कुछ दिनों मिट जाएगी। जिस मकान में देश-दुनिया के कलाकारों की स्वर लहरियां गुंजती थी, सामूहिक तौर पर पांच समय का नमाज अदा हुआ करता था, जिस मकान की दरों दीवारों में उस्ताद की यादें रची बसी थीं, उसका अस्तित्व चंद दिनों का मेहमान है।

हम बात कर रहें भारत रत्न शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के बारे में जिन्हें बनारस और गंगा से इतना प्यार था कि उन्होंने विदेश में बसने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया था। वैसे रत्न की धरोहर अब अतीत खो जाएगा।

दो सरहदों के बीच बंट गए उस्ताद!

बिहार और उत्तर प्रदेश से अपनी बराबर मोहब्बत को रखने वाले इस शख्सियत पर किसी ने नजरें इनायत करना मुनासिब नहीं समझा। एक दिन बाद उस्‍ताद की 14वीं बरसी है, सरकारों ने वादे तो बहुत किए मगर किसी ने अपने वादे को निभाया नहीं। तभी तो डुमरांव स्थित उनके आबाई भूमि तीन साल पहले बिक गई और अब वाराणसी स्थित बेनियाबाग के हड़हा सराय वाले मकान को तोड़कर कॉमर्शियल बिल्डिंग में तब्दील करने की कवायद परिवार के कुछ सदस्यों की रजामंदी से चल रही है। परिवार के कुछ सदस्यों ने इसको लेकर ऐतराज तो जताया मगर उनका ऐतराज काम नहीं आया।

स्मृतियों पर चल रहा हथौड़ाः

जिन गलियों में उस्ताद की शहनाई गूंजती थी वहां उनकी संजोयी गई स्मृति पर हथौड़े की आवाज सुनाई दे रही है। कई बार गुहार भी लगाई गई, उस्ताद के मकान को बचाने के लिए मगर किसी ने ध्‍यान नहीं दिया। मजबूर और विवश पर‍िवार के लोगों ने घर को व्‍यवसायिक भवन में तब्‍दील करने का फैसला ले लिया, ताकि घर की माली हालत में कुछ सुधार हो सके। हलांकि टूटते घर के हालात को देखकर बिस्मिल्लाह खां के पोते अफाक हैदर और बेटी जरिना जिनके आखों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहा है।

जरिना कहती है, जिस मकान को मरम्मत करके संजोकर रखा जा सकता था, उसे तोड़ा जा रहा है और कोई कुछ नहीं कर रहा है। उनका ये भी आरोप है कि तोड़फोड़ के दौरान उस्ताद की कई यादगार तस्वीरों को फाड़ दिया गया या जला दिया गया। उस्ताद जिस पलंग पर सोते थे उसे भी कमरे से निकाल कर बाहर फेंक दिया गया। बार-बार गुहार लगा रही हैं कि उनके बाबा का कमरा न टूटे। मगर जब हथौड़ा चल रहा है तो भला उन स्मृतियों को कौन बचाएगा।

इस बात में भी सच्चाई है कि मकान जर्जर हो चला है, उसको मरम्मत किया जा सकता था, उसके लिए दरख्वास्त दिया गया था लेकिन परिवार के लोगों की सहमति न बन पाने के कारण यह पूरा नहीं हो सका। मेहनत और लगन से बनायी गई धरोहर रूपी मकान के टूट जाने के बाद उस्ताद की निशानी हमेशा-हमेशा के लिए अब इतिहास बन जाएगा।

हृदय योजना के तहत भी मकान को धरोहर के रूप में बनवाने के लिए पैसा प्रशासन के पास आया लेकिन उनके बड़े पिता के बेटे यानी खान साहब के दूसरे पोते चाहते हैं कि पूरी बिल्डिंग तोड़कर कॉमर्शियल बिल्डिंग बने। इस पर परिवार के दो लोग सहमत हैं, जबकि अन्य इसके लिए तैयार नहीं हैं।

कभी शास्त्रीय संगीत का हर फनकार करता था सजदाः

शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में हुआ था। जबकि इनका निधन 21 अगस्त 2006 को वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में रात्रि के 2 बजकर 20 मिनट पर हुआ था। पूरी दुनिया जो उस्ताद के शहनाई की धुन से जगती थी, उस दिन उस्ताद की गमगीन धुन ने पूरी दुनिया को रुला दिया। शास्त्रीय संगीत से जुड़ा कोई भी ऐसा नहीं होगा जो शहनाई सम्राट भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के नाम से परिचित न हो, उस्ताद अब नहीं हैं, लेकिन उनकी यादों को संजोने के बजाय उनका खुद का कुनबा उसे नेस्तनाबूद करने में लगा हुआ है।

यहां आने वाला शास्त्रीय संगीत का हर फनकार बगैर सजदा किए नहीं जाता। मकान टूट रहा है, इस मकान के टूटने से उस्ताद की संजोयी गई चीजें बिखर जाएंगी। जितना उस्ताद के मकान के टूटने का गम और यहां रखी गई उस्ताद कि निशानियों के बिखरने का गम है, काश इनके परिवार को होता तो शायद उस्ताद की आखिरी निशानी बच जाती।

पर, अफसोस कि न बिहार सरकार उस्ताद के डुमरांव के आबाई भूमि को बचा सकी और न ही उत्तर प्रदेश की सरकार उस्ताद की आखिरी निशानी जो वाराणसी में थी उसे बचा सकी। जिस देश में धरोंहरों को संजोने के लिए सरकारें हमेशा दलील देती हैं उसी देश में हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रतीक बिस्मिल्लाह खां की स्मृति को ही हमेशा-हमेशा के लिए मिटते देखकर भी किसी के कान पर जूं तक नहीं रेगती।

(लेखक उस्ताद के ऊपर पर पुस्तक लिख चुके हैं)

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