आर्थिक झटके के दौरान रोजगार में घटती महिलाओं की भागीदारी श्रम-रोजगार

आर्थिक झटके के दौरान रोजगार में घटती महिलाओं की भागीदारी श्रम-रोजगार

naरोजगार के मोर्चे पर भारत की सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं को श्रम बल में शामिल करना है। देश में महिला एवं पुरुषों की श्रम बल में भागीदारी में काफी असमानता दिखती है। काम करने लायक पुरुषों की कुल आबादी में करीब 67 प्रतिशत रोजगार से जुड़े हैं, लेकिन महिलाओं का यह आंकड़ा महज 9 प्रतिशत है। पुरुष और महिलाओं के बीच यह अंतर कम कर आर्थिक गतिविधियों को और अधिक रफ्तार दी जा सकती है।

भारतीय समाज में अब भी पुरुषों को ही परिवार का कमाऊ सदस्य माना जाता है। ऐसे माहौल में महिलाएं कम गुणवत्ता वाला रोजगार करेंगी इसकी संभावना कम ही है। लोगों की घरेलू आय भी उस स्तर तक पहुंच चुकी है कि एक वैकल्पिक कमाऊ सदस्य के रूप में महिलाओं का काम करना जरूरत से अधिक पसंद का विषय रह गया है। यानी महिलाएं तब ही काम करेंगी जब उन्हें उनकी पसंद का रोजगार मिलेगा और उनके लिए अनुकूल माहौल के साथ तमाम तरह की पाबंदी नहीं होगी।

हालांकि समस्या यह है कि अच्छी गुणवत्ता वाले रोजगार की संख्या कम हो रही है। बेहतर संभावनाएं देने वाले औपचारिक रोजगार की संख्या नहीं बढ़ रही है। अनौपचारिक नौकरियों- मसलन गिग कंपनियों में अस्थायी रोजगार- की तादाद अब अधिक हो गई है। अनुबंध आधारित नौकरियों का चलन बढ़ रहा है।

कभी बेहतर लाभ एवं काम की शर्तों के साथ रोजगार देने वाली कंपनियां अब अपनी जरूरत के हिसाब से तीसरे पक्षों से अनुबंध पर काम करा रही हैं। अनुबंध लेने वाली इकाइयां बड़ी कंपनियों के मुकाबले कम लाभ शर्तों के साथ कामगारों की नियुक्तियां करती हैं। श्रम बाजार में माहौल खराब होने के बाद काम करना, खासकर महिलाओं के लिए मुश्किल हो गया है।

वैसे श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी दर काफी कम है और पुरुषों के मुकाबले यह महज 11 प्रतिशत है। भागीदारी कम होने के बाद भी महिलाओं में बेरोजगारी दर 17 प्रतिशत है। पुरुषों के मामले में यह दर 6 प्रतिशत ही है। महिलाएं जितनी कम संख्या में काम करना चाहती हैं उनके लिए पुरु षों से तुलना करना उतना ही कठिन हो जाता है। यह तथ्य हतोत्साहित करने वाला है और महिलाओं के प्रति पूर्वग्रह को भी दर्शाता है।

श्रम बल में शामिल होने के लिए प्रयास करने वाली युवा महिलाओं को श्रम बाजार की इन प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इसके बाद उन्हें घरेलू उत्तरदायित्व का भी निर्वहन करना पड़ता है। ऐसे में अगर श्रम बाजारों में आर्थिक उथलपुथल पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की भागीदारी पर अधिक चोट करती है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

वर्ष 2019-20 में श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी 10.7 प्रतिशत थी, लेकि न लॉकडाउन के बाद अप्रैल 2020 में 13.9 प्रतिशत महिलाओं को रोजगार गंवाने पड़े। नवंबर 2020 तक ज्यादातर पुरुष रोजगार पा गए, लेकिन महिलाएं उतनी भाग्यशाली नहीं रहीं। नवंबर तक जितनी नौकरियां गईं, उनमें 49 प्रतिशत महिलाओं की थीं। अर्थव्यवस्था में सुधार से सभी को लाभ मिला है, लेकिन महिलाओं के मुकाबले पुरुषों को अधिक अवसर मिले हैं। सीएमआईई के कंज्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) के आंकड़ों के अनुसार भारत में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी के संबंध में विचलित करने वालीं दो बातें दिखती हैं।

पहली बात, ग्रामीण महिलाओं के मुकाबले शहरी महिलाएं श्रम बल में काफी कम शिरकत करती हैं। वर्ष 2019-20 में श्रम बल में शहरी महिलाओं के भाग लेने की दर (एफएलपीआर) 9.7 प्रतिशत थी, जबकि ग्रामीण महिलाओं में यह दर 11.3 प्रतिशत थी। दोनों ही आंकड़े कम हैं, लेकिन शहरी महिलाओं की भागीदारी दर कम रहना अपेक्षाओं के विपरीत गया। ऐसा इसलिए क्योंकि शहरी क्षेत्रों की महिलाएं अधिक शिक्षित मानी जाती हैं। शहरी क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्र के मुकाबले अधिक गुणवत्ता पूर्ण रोजगार देता है।

रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के दौरान शहरी महिलाओं के लिए हालात काफी तनावपूर्ण रहे। अप्रैल 2020 में शहरी एफएलपीआर कम होकर 7.35 प्रतिशत रह गई, जो वर्ष 2019-20 के औसतन 9.7 प्रतिशत के मुकाबले 200 से अधिक आधार कम रही। हालांकि दूसरे अन्य संकेतकों से अलग शहरी एफएलपीआर में सुधार नहीं हुआ। इसमें और गिरावट जारी है। अक्टूबर 2020 में शहरी क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम होकर 7.2 प्रतिशत रह गई। सीएमआईई ने 2016 से इस संकेतक पर काम करना शुरू किया है और तब से यह अब तक के अपने सबसे निचले स्तर पर है। अक्टूबर में एफएलपीआर और कम होकर 6.9 प्रतिशत रह गई।

सीपीएचएस ने एक युवा महिलाओं पर आर्थिक झटकों के असर का भी अध्ययन किया है।

ये ऐसी महिलाएं हैं, जो श्रम बल का हिस्सा बनती हैं। हम जिन युवा महिलाओं की यहां चर्चा कर रहे हैं—

वे 20 से 24 वर्ष की उम्र की हैं।

इसके लिए हम ‘वेव-वाइज’ डेटा का इस्तेमाल करते हैं।

सीपीएचएस चार महीनों की अवधि के दौरान किया जाता है और ऐसी प्रत्येक अवधि को ‘वेव’ कहते हैं।

जनवरी से अप्रैल 2016 की अवधि के दौरान महिला श्रमिकों की भागीदारी 15.7 प्रतिशत थी। मई-अगस्त 2016 अवधि के दौरान यह बढ़कर 16.4 प्रतिशत हो गई। अगले तीन ‘वेव’ के दौरान प्रत्येक में कमी आई और यह नोटबंदी के झटके के बाद करीब 11 प्रतिशत पर बंद हुई। 2020 में लॉकडाउन से एक बार फिर इसमें कमी आई और यह 9 प्रतिशत के करीब रही।

युवा महिलाओं का व्यवहार भी अलग होता है। उनकी भागीदारी नोटबंदी के पहले 18 प्रतिशत स्तर से कम होकर नोटबंदी के बाद करीब 10 प्रतिशत रह गई। अन्य महिलाओं के मुकाबले उन्हें अधिक नुकसान उठाना पड़ा।

2018 के एक वर्ष बाद युवा महिलाओं की भागीदारी में तेजी आनी शुरू हो गई। 2019 के अंत यह पहुंच कर 14.3 प्रतिशत हो गई। यह सराहनीय था, लेकिन लॉकडाउन के कारण एक बार फिर इस पर चोट पड़ी। युवा महिलाओं की एफएलपीआर कम होकर 8.7 प्रतिशत रह गई।

पिछले अनुभवों के आधार पर इसमें सुधार होने में कुछ वर्षों का समय लग सकता है।

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