अस्पताल है, मगर डॉक्टर नहीं —- फूलदेव पटेल

अस्पताल है, मगर डॉक्टर नहीं —-   फूलदेव पटेल

मुज़फ़्फ़रपुर —- पूरे देश में सरकारी अस्पताल की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। आये दिन अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की बदहाली व आरजकता की ख़बरें अखबार की सुर्खियों में रहती है। उप्र, झारखंड, बिहार समेत कई राज्यों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का बुरा हाल है, तो दूसरी ओर इन्हीं क्षेत्रों में निजी अस्पतालों की चांदी है।

सरकारी डाक्टर प्राइवेट क्लीनिक खोलकर अपनी दुकान चमकाने में मुस्तैद हैं। हैरानी की बात यह है कि सरकारी अस्पताल की चहारदीवारी से लेकर मेन गेट पर भले ही नारे लिखे बड़े-बड़े होर्डिंग व पोस्टर लगे होते हों, लेकिन अंदर स्वास्थ्य सेवा के नाम पर अनमने ढंग से मरीज़ों का इलाज किया जाता है। डॉक्टर से लेकर सफाई कर्मचारी तक की कोशिश होती है कि मरीज़ उनके कमीशन प्राप्त प्राइवेट अस्पताल चला जाये।

यह स्थिती केवल शहरों की ही नहीं है बल्कि प्रखंड स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में बैठने वाले डाक्टर भी अपना निजी क्लीनिक चलाने में मशगूल रहते हैं। अस्पताल प्रशासन की लापरवाही, बदइंतजामी और कुव्यवस्था के कारण गरीब मरीज़ भी निजी क्लीनिक में इलाज कराने को मजबूर हो जाते हैं।

देश में लगभग 10,628 सरकारी अस्पताल, 23,391 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 1,45,894 प्राथमिक उप-स्वास्थ्य केंद्र हैं। जिन पर लाखों लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल की ज़िम्मेदारी है। इन पर प्रत्येक साल बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने व रख रखाव के नाम पर करोड़ों रूपए पानी की तरह बहाये जाते हैं। इसके बावजूद सरकारी अस्पताल में डाक्टर, दवा और जांच सामग्री नदारद रहती है।

बिहार के नक्शे में मुज़फ़्फ़रपुर को उत्तर बिहार की अघोषित राजधानी माना जाता है। यहां के जिला मुख्यालय से 55 किमी दूर दियारा क्षेत्र धरफरी का इकलौता अस्पताल पिछले दो दशकों से उपेक्षा और अराजकता के कारण ठप्प पड़ा है। अस्पताल मरीज़ों की जगह पशुओं का चारागाह बन गया है।

अस्पताल के अंदर ऑपरेशन थियेटर व क्लीनिक में रखे दर्जनों उपस्कर, मशीनें व अन्य सामग्रियां जंग खा रही हैं। इस अस्पताल से न केवल धरफरी गांव के लोगों बल्कि माधोपुर, उस्ती सिगांही, कमालपुर फतेहाबाद, जयमल डूमरी, फुलाड़, जाफरपुर, रतवारा, नेकनामपुर, बाड़ादाउद, विष्णपुर सरैंया वाया जगदीशपुर, देवरिया पूर्वी, देवरिया पश्चिमी, मुहब्बतपुर, साहपुर दुबौली, चांद केवारी, रत्ती हुस्सेपुर, खेमकरना, रुपछपडा, धर्मपुर, मनाईन, मोरहर आदि गांवों के लोगों का सहूलियत से मुफ्त व तत्काल इलाज होता था। आज इस अस्पताल की बदहाली के कारण इन क्षेत्रों के लोगों को झोला छाप डाक्टरों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। इमरजेंसी की स्थिति में मुज़फ़्फ़रपुर शहर स्थित जूरन छपरा, जहां सैकड़ों डाक्टरों की मंडी है, मरीज़ों को लाना पड़ता है। जहां हजारों रुपए फिजूल खर्च करना पड़ता है।

धरफरी अस्पताल बंद हो जाने से करीब चार लाख लोग इलाज से वंचित हो रहे हैं। इस स्वास्थ्य केन्द्र से 20 किमी की दूरी पर पारू ब्लॉक में पीएचसी है। ठीक उतनी ही दूरी पर साहेबगंज ब्लॉक में पीएचसी है। लेकिन यहां भी सुविधाओं का घोर अभाव है। प्रसव और टीकाकरण के अलावा यहां अन्य मरीज़ों का इलाज नहीं किया जाता है। सुविधाओं के अभाव में धरफरी अस्पताल अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। सरकारें आती हैं, जाती हैं, परंतु व्यवस्था ज्यों कि त्यों बनी हुई है।

इस संबंध में गांव के बुजुर्गों का कहना है कि आज से लगभग 52 वर्ष पूर्व आठ बेड के इस अस्पताल का उद्घाटन बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह के कर कमलों द्वारा 25 नवम्बर 1954 को किया गया था। बुज़ुर्ग आमीचंन्द महतो का कहना है कि जब यह अस्पताल चालू था, उस समय काफी लोग इलाज के लिए आते थे।

इस अस्पताल में डॉ राम नरेश प्रसाद (एम.डी), डॉ जहाँगीर आलम (एम.डी), डॉ फूलदेव बाबू (एम.डी), नरेश बैठा, और के.एस.एन द्विवेदी जैसे विशेषज्ञ डॉक्टर पदस्थापित थे। जिन्होंने जनता की खूब सेवा की। यह लोग गरीबों के इलाज को अपना पुनीत कर्तव्य समझते थे। स्थानीय निवासी डा. गणेश पंडित कहते हैं कि यहां पहले सर्जन एवं फिजीशियन डाक्टर भी तैनात थे। इस अस्पताल में एक दिन में दस से पन्द्रह लोगों का ऑपरेशन होता था। प्रत्येक दिन लगभग सौ से डेढ सौ लोगों का इलाज होता था। लेकिन स्वास्थ्य विभाग की उदासीनता के कारण इस अस्पताल की कार्य प्रणाली मृतप्राय हो गई और धीरे धीरे यह केवल ढांचा मात्र रह गया।

हालांकि आज से लगभग 10 वर्ष पहले स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस अस्पताल को फिर से उसकी पुरानी स्थिती में लाने के लिए अनशन किया था। जिस पर सिविल सर्जन मुज़फ़्फ़रपुर एवं स्वास्थ्य अधिकारी डा. उमेश चन्द्र शर्मा ने आश्वासन दिया था कि इस अस्पताल में सप्ताह में तीन दिन पारू पीएचसी से डाक्टर आकर लोगों का इलाज करेंगे। उस समय से लगभग एक वर्ष तक ठीक-ठाक रहा। फिर कतिपय कारणों से डॉक्टरों का आना बंद हो गया।

बुज़ुर्ग किशोरी सिंह बताते हैं कि इस अस्पताल के निर्माण के लिए गांव के सम्मानित व्यक्ति स्वर्गीय नवल किशोर बाबू ने अपनी लगभग दो एकड़ जमीन दान किया था। इस अस्पताल में हर तरह का इलाज हुआ करता था। अस्पताल परिसर में ही डॉक्टरों और नर्सों का आवास भी था। जहां सपरिवार वह रहा करते थे। स्थानीय होमियोपैथ के डाक्टर बीएस रमन कहते हैं कि अस्पताल में बड़ा व छोटा सभी प्रकार के ऑपरेशन हुआ करते थे। इससे ग़रीबों को काफी लाभ हुआ करता था। आज इस अस्पताल के बंद हो जाने से न केवल धरफरी बल्कि आसपास के कई गांवों के मरीज़ों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

वर्ष 2003 में डाक्टर राम नरेश प्रसाद का तबादला हो जाने के बाद से आज तक किसी डॉक्टर की यहां स्थाई नियुक्ति नही हुई है। इस संबंध में वर्तमान जिला पार्षद देवेश चन्द्र प्रजापति ने बताया कि जब-जब जिला पार्षदों की मीटिंग होती हैं, उसमें जिला प्रशासन के समक्ष ‘धरफरी स्वास्थ केन्द्र’ की बात गंभीरता से रखता हूँ। इसमें अविलंब चिकित्सकों की नियुक्ति की मांग उठाता रहता हूँ। इस संबंध में मुज़फ़्फ़रपुर सिविल सर्जन कहते हैं कि धरफरी स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टरों की नियुक्ति का ज़िम्मा पारु ब्लॉक के पीएचसी प्रभारी के पास है, ऐसे में इसका जवाब वही देंगे।

पीएचसी पारु के प्रभारी डा. उमेश चन्द्र शर्मा कहते हैं कि जिला से चिकित्सकों की नियुक्ति हुई है। हालांकि सच्चाई तो यह है कि अस्पताल में नियुक्त प्रभारी केवल निरीक्षण करने आते हैं। स्वास्थ्य सेवा से इनका कुछ लेना-देना नहीं है। चिकित्सा का काम जमीन पर कम कागज पर अधिक हो रहा है। ऐसे में पूरे इलाके में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति चरमरा गई है। ऐसे में गरीबों को इलाज के लिए शहर जाने पर मजबूर होना पड़ रहा है। इस संबंध में ब्लॉक प्रमुख रीता देवी ने कहा कि उन्होंने लगभग 14.5 लाख रूपए की लागत से धरफरी स्वास्थ्य केन्द्र का जीर्णोद्धार करवाया है और लगातार स्वास्थ्य विभाग से यहां अविलंब चिकित्सकों की नियुक्ति की मांग करती रही हैं।

बहरहाल बिहार में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। चारों तरफ नेताओं का जमघट लग गया है। वादे और घोषणाओं की झड़ी लग चुकी है। परंतु मृतप्राय हो चुके इस अस्पताल को उसकी पुरानी स्थिती में लौटाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। जबकि सेहत का सवाल सबसे बड़ा है। जिसकी तरफ केवल जन प्रतिनिधियों को ही नहीं बल्कि आम लोगों को भी ध्यान देने की ज़रूरत है।

देश के प्रत्येक नागरिक को सेहत के मसले पर लामबंद होना होगा। इसकी शुरूआत ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित प्राथमिक उप-स्वास्थ्य केंद्रों और प्रखंड स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से करनी होगी। इनसे संबंधित व्यवस्थाओं की जानकारियां रखनी होगी।

ग्रामीण क्षेत्रों में आशा वर्करों और एएनएम कार्यकर्ताओं की कार्यप्रणाली पर भी ध्यान देना होगा। इतना ही नहीं सरकारी चिकित्सकों से पीएचसी में ही इलाज कराने की कार्यप्रणाली विकसित करनी पड़ेगी। इस बदलाव के लिए समाजकर्मी, बुद्धिजीवी, शिक्षित और स्थानीय लोगों को मिल कर सड़क से संसद तक आवाज़ लगानी होगी। तभी हम धरफरी और उसके जैसे अन्य प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के भवनों को खंडहर होने से बचा सकते हैं।

(चरखा फीचर)

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