• November 27, 2021

अपनी योग्यता से पहचान बना रहे हैं समलैंगिक— डिम्पल राठौड़

अपनी योग्यता से पहचान बना रहे हैं समलैंगिक—   डिम्पल राठौड़

अजमेर, राजस्थान —- यदि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की सिफारिश को केंद्र सरकार स्वीकार कर लेती है तो वरिष्ठ वकील सौरभ कृपाल देश के पहले समलैंगिक जज बनने का इतिहास रच देंगे. कॉलेजियम ने उनके लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में जज बनाने की सिफारिश की है. दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफन कॉलेज से स्नातक, ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से एलएलबी और कैंब्रिज विश्वविद्यालय से एलएलएम करने वाले सौरभ कृपाल देश के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति बीएन कृपाल के बेटे हैं.

पिछले दो दशकों से सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे सौरभ कृपाल ने पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के मार्गदर्शन में अपने करियर की शुरुआत की है. वह संयुक्त राष्ट्र संघ के जिनेवा स्थित कार्यालय में भी अपना योगदान दे चुके हैं. एलजीबीटीक्यू के अधिकारों के लिए मुखर रहने वाले सौरभ कृपाल समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से मुक्त कराने वाली याचिका के वकील रहे हैं. जिसके बाद 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को रद्द कर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से मुक्त कर दिया था.

सौरभ कृपाल का संक्षिप्त परिचय देने की आवश्यकता इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि ऐसा देश में पहली बार हुआ है कि खुले तौर पर खुद को समलैंगिक स्वीकार करने वाले न्यायिक क्षेत्र के किसी व्यक्ति को जज बनाने की सिफारिश की गई है. कॉलेजियम की इस सिफारिश के साथ ही एक बार फिर से देश में समलैंगिकता और समलैंगिकों के अधिकारों पर बहस छिड़ गई है. दरअसल करोड़ों किमी दूर मंगल ग्रह की दूरी को नापने पर ख़ुशी से झूमने वाला हमारा समाज आज भी अपने बीच रहने वाले समलैंगिकों के साथ भेदभाव कर रहा है. उन्हें अपना बुनियादी अधिकार भी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है क्योंकि 21वीं सदी का खुद को विकसित कहने वाला समाज उन्हें स्वीकार करने में सहज नहीं हो पा रहा है. भले ही सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से मुक्त कर दिया हो, लेकिन समाज की नज़र में यह अब भी अपराध है और वह समलैंगिकों के साथ किसी गंभीर अपराधी से भी बुरा व्यवहार करता है.

दरअसल जागरूकता के अभाव में हम यह समझ नहीं पाते हैं कि समलैंगिकता किसी भी व्यक्ति में उसके खुद के अनुभवों, विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, व्यवहारों, तौर.तरीके और भूमिकाओं से अभिव्यक्त होती है. जो उस व्यक्ति की योनिक पहचान बनती है. जिसे चिकित्सकीय दृष्टि से प्राकृतिक या नैसर्गिक माना जाता है. परन्तु फिर भी हमारा समाज समलैंगिक यौनिकता को न केवल ग़लत नज़रों से देखता बल्कि उसे व्यक्त भी करता है जो कि एक बहुत ही ग़लत धारणा है. जिस प्रकार एक आम इंसान अपने से विपरीत लिंग वाले के लिए भावनाएं रखता है तथा अपने से विपरीत लिंग वाले मनुष्य की तरफ आकर्षित होता है, ठीक उसी प्रकार एक समलैंगिक विचारों वाला मनुष्य अपने समान लिंग वाले मनुष्य की तरफ आकर्षित होता है तथा उनके लिए यौन भावना रखता है. जो कि एक आम इंसान में पैदा होने वाली भावनाओं की तरह ही एक सामान्य प्रक्रिया है जिसे ग़लत न मानकर उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए तथा उनके साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए. दुर्भाग्य यह है कि हमारे समाज में इनको एक अलग दृष्टि से देखा जाता है. इनके साथ सभी स्तरों पर भेदभाव किए जाते हैं. इन्हें नीचा दिखाया जाता है. सार्वजनिक जगहों पर इनका मज़ाक़ बनाया जाता है तथा इनके यौन क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है. हद तो तब हो जाती है जब कुछ असामाजिक तत्व इनका जीना दुश्वार कर देते हैं और स्पष्ट कानूनी जानकारी के अभाव में पुलिस भी इनकी मदद करने की जगह इनका तिरस्कार कर देती है, जो पूर्ण रूप से असंवैधानिक है. इन्हें यूँ व्यक्त किया जाता है जैसे इन्होंने कोई गुनाह किया हो.

यहाँ यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि समलैंगिकता को ब्रिटिश शासन के दौरान अपराध की श्रेणी में रखा गया था, क्योंकि इससे पहले के हिन्दू, बौद्ध, जैन और मुस्लिम शासकों के समय भारत में समलैंगिकों के प्रति कहीं अधिक सहनशीलता और उदारता देखने के प्रमाण मिलते हैं. न केवल लिखित पुस्तकों में बल्कि भारत की प्रथाओं में भी अनेक ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जिनसे पता चलता है कि भारत में ऐतिहासिक रूप से विविध यौनिक रुझानों और जेंडर पहचानों को स्वीकार किया जाता था. लेकिन आज भारत के कानूनों और नीतियों में एक विषमलैंगिक परिवार और समाज की व्यवस्था को इस कदर स्वीकार किया जाता है कि इस व्यवस्था में समलैंगिक संबंध छिपे रह जाते हैं और गैर.कानूनी बन गए हैं. भले ही सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध ठहराने वाली धारा 377 को रद्द कर समलैंगिकों को भी जीने का अधिकार प्रदान कर दिया हो,लेकिन सामाजिक रूप से समलैंगिक संबंधों को अपराध के दृष्टिकोण से देखने की प्रवृत्ति के कारण एलजीबीटी लोगों के लिए न केवल खुल कर अपनी यौनिक पहचान प्रकट कर पाना कठिन हो जाता है बल्कि इसके कारण उन्हें भेदभाव कलंक और डर के माहौल का सामना करना पड़ता है जिससे उनके आत्मसम्मान और आदर को ठेस पहुँचती है.

पिछले कुछ वर्षों से भारत में गे, लेस्बियन और ट्रांसजेंडर समुदाय से संबंध रखने वालों ने अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के पक्ष में तेज़ी सेआवाज़ बुलंद करनी शुरू की है. इसी वर्ष मार्च में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर यह बताया कि देश में लगभग 25 लाख समलैंगिकों की संख्या है, हालांकि इनके अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं का दावा है कि देश में लगभग एक करोड़ समलैंगिक हैं, लेकिन सामाजिक बहिष्कार के डर से वह अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करते हैं. हकीकत तो यह है कि यदि हम स्वयं को सभ्य समाज में रहने का दावा करते हैं तो हमें समलैंगिकों के लिए गलत तरह के हीनता वाले व्यवहार रखने की बजाए उनकी भावनाओं की कद्र करनी चाहिए और उनके साथ भी सम्मानजनक व्यवहार करनी चाहिए. इसके लिए हमें समाज में जागरूकता लाने के लिए अपने स्तर पर कदम उठाने चाहिए. लोगों को उनकी मनोवृति समझाने की आवश्यकता है. इसके लिए सभी से बातचीत की जानी चाहिए. सरकार को भी इनके हितों के लिए योजनाएं बनाकर इन्हें सामान्य लोगों जितना सम्मान देने जैसे सशक्त कदम उठाने की ज़रूरत है ताकि समलैंगिक भी सर उठाकर सम्मानपूर्ण जीवन जी सकें और अपनी इस भावना के लिए इन्हें बार.बार लज्जित ना होना पड़े. इस तरह के सभी मुद्दों पर अपनी समझ बनाना न केवल हमारी, बल्कि समय की भी मांग है.

(चरखा फीचर)

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