अंधविश्वास के नाम पर महिला हिंसा का सच — अमरेन्द्र सुमन

अंधविश्वास के नाम पर महिला हिंसा का सच — अमरेन्द्र सुमन

दुमका, झारखंड———– ओझा-गुनी, झाड़-फूँक, जादू-टोना के अंधविश्वास में आकर झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के साथ शोषण-उत्पीड़न, सामुहिक बलात्कार, अत्याचार व उनकी हत्या का सिलसिला बदस्तूर जारी है।

आदिवासी, दलित, पिछड़े व अनपढ़ इलाकों में अंधविश्वास के वशीभूत लोगों द्वारा भविष्य के परिणाम की चिन्ता किये बिना ऐसे कृत्यों को लगातार अंजाम तक पहुँचाया जा रहा है। जिसके विरुद्ध सरकार, शासन, समाज का कोई अंकुश नहीं रह गया है।

मैला पिलाना, सर मुंडवा कर निर्वस्त्र घुमाना, भीड़ की शक्ल में बेइंतहा शारीरिक यातनाएँ देना, पेड़ों से बांधकर निजी अंगों पर लाठियां बरसाना और अंत में डायन का आरोप मढ़कर उसकी हत्या कर देना, एक ऐसा खौफनाक मंजर है जिसे देखकर मनुष्य की पाशविकता का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है।

जिस समाज में इस तरह की दकियानुसी विचारधारा के तहत घटनाओं को अंजाम दिया जाता हो, उस समाज में शिक्षा व उत्तरोत्तर विकास की कल्पना करना बेईमानी ही होगी। अनपढ़, गरीबी, बेरोजगारी व मुख्य धारा से अलग-थलग वाले समाज में अक्सर ऐसी घटनाओं से लोग रुबरु होते रहे हैं। खेती-बारी, घर-द्वार, संपत्ति हड़पने की साजिशों के तहत, वर्षों पुरानी बीमारी से अस्वस्थ किसी की मौत हो जाने की स्थिति में, फसलों को पहुँच रहे नुकसान में, रहस्यमय तरीके से किसी के खो जाने की स्थिति में अथवा किसी अन्य कारणवश गर्भावस्था में ही बच्चे की मृत्यु हो जाने की स्थिति में इस घिनौने साज़िश को अंजाम दिया जाता है। इसमें या तो कोई परिवार अथवा किसी सन्तानविहीन बुजुर्ग महिला की हत्या कर दी जाती है या फिर मोड़े मांझी और दिशोम बैसी की अदालत में उसका सामुहिक बहिष्कार (बिठलाहा) कर दिया जाता है।

आदिवासी-दलित व पिछड़ी जाति की बहुलता वाले क्षेत्रों में ओझा-गुनी, झाड़-फूँक, जादू-टोना का ज़बरदस्त प्रभाव देखा जाता है। छोटे-छोटे स्वार्थ की ख़ातिर ग्रामीण क्षेत्रों में किसी की जिंदगी बिना किसी ठोस आरोप के या तो बर्बाद कर दी जाती है या फिर परंपरागत दंड लागू कर उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है जो पूरी तरह असंवैधानिक है। इतना ही नहीं, इसे मनुष्य की पाशविकता का चरमोत्कर्ष भी कहा जा सकता है। ऐसे मामलों में अक्सर विधवा और निःसंतान महिलाओं को ही निशाना बनाया जाता है।

शंका की छोटी सी भी सूई जहाँ किसी के इर्द-गिर्द घुमी, उसे प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया जाता है। निर्दोष महिला को डायन बताकर पहले तो उसकी निर्मम पिटाई की जाती है और फिर निर्वस्त्र कर गाँव-टोलों में घुमाया जाता है। इसके बाद उस पर आरोप लगा कर या तो उसे गांव से निकाल दिया जाता है या फिर अत्याचार कर उसकी हत्या कर दी जाती है।

अंधविश्वास की आड़ में निरीह, बेबस व लाचार महिलाओं से दुश्मनी निकालने का यह क्रुरतम कृत्य झारखंड, बिहार, प. बंगाल, असम, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मेघालय व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में समय-असमय देखने को मिल ही जाता है। वर्ष 2004 में झारखंड के गोड़डा जिलान्तर्गत महुआसोल गांव में दो अधेड़ उम्र की महिलाओं को डायन के नाम पर सिर्फ इसलिए ज़िंदा जला दिया गया था क्योंकि गांव के एक व्यक्ति की क्षत विक्षित लाश मिली थी, जिसके कुछ अंग गायब थे। अंधविश्वास में जकड़े गांव वालों ने इसका दोष इन महिलाओं पर लगाया था।

इस घटना ने पूरे राज्य को शर्मसार कर दिया था। सरकार, शासन, समाज व स्वैच्छिक संगठनों की भारी किरकिरी हुई थी। मनुष्य की इस पाशविकता पर अर्से तक बहस चलती रही। लेकिन परिणाम अंततः सिफर ही रहा। न तो ऐसी घटनाओं पर अंकुश ही लगाया जा सका और न ही ऐसे घृणित अपराधों के विरुद्ध जन-जागरुकता ही फैलाई गई। हालांकि वर्ष 2016 में ‘डायन कह कर प्रताड़ना’ के विरुद्ध कानून बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इस संबंध में कोई कठोर कानून नहीं बन सका। भूमि व संपत्ति हड़पने, शराबखोरी व स्त्रियों से दुष्कर्म के लिए भी उन्हें डायन घोषित कर मार दिये जाने की घटनाएं आज भी अक्सर घटती रहती हैं।

झारखंड के पश्चिम सिंहभूम, दुमका, गोड्डा, देवघर और खूंटी में इस तरह की विभत्स घटनाओं से ग्रामीण क्षेत्रों में बुज़ुर्ग महिलाओं की जान का ख़तरा हमेशा बना रहता है। पश्चिम सिंहभूम के कई गांव और कस्बे आज भी डायन बताकर बुज़ुर्ग और निःसंतान महिलाओं को प्रताड़ित करने के लिए कुख्यात है। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में हर माह डायन के आरोप में किसी न किसी महिला की हत्या कर दी जाती है।

वर्ष 2017 में डायन के आरोप में दस महिलाओं की हत्या कर दी गई थी। वहीं पश्चिम सिंहभूम में डायन के आरोप में पिछले 5 वर्षों के तक़रीबन 37 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है। हालांकि सरकार, प्रशासन, स्वैच्छिक व सामाजिक संस्थाओं द्वारा इन क्षेत्रों में लगातार जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद ऐसी घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं हैं।

राज्य बनने के बाद से अब तक इस तरह की घटनाओं में 1,200 महिलाओं की मौत हो चुकी है। डायन बता कर महिलाओं पर अत्याचार व हत्या का समाचार अखबारों की सुर्खियां जरूर बनती हैं किन्तु ऐसी घटनाओं से सीख कोई नहीं लेता। गांव-कस्बों में रसूखदार, लोगों द्वारा ओझा, गुनीन, गुनिया, भोपा व तांत्रिकों के जरिए अनपढ़ व निरक्षर लोगों को उकसा कर महिलाओं/ पुरुषों को डायन, डाकन, डकनी, टोनही करार दे कर उन्हें मार दिया जाता है।

डायन बता कर हत्या की घटनाओं के पीछे असली वजह संपत्ति विवाद, जातिगत द्वेष या फिर राजनीतिक उद्देश्य छिपा होता है। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में गरीबी, अशिक्षा व इनके बीच फैले कुसंस्कार का फायदा उठा कर कुछ स्वार्थी तत्व अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। जमीन, खेत, गाय रखने वालों की हत्या केवल संपत्ति पर कब्जा करने के उद्देश्य से किया जाता है।

कई मामलों में हत्या से पहले बलात्कार भी किया जाता है। वास्तव में डायन के नाम पर महिला का यौन शोषण से ले कर उसकी जमीन, जायदाद हड़पने व आपसी रंजिश की स्थिति में पूरे परिवार की हत्या कर देना इस खेल का असली चेहरा होता है।

हालांकि भारत में इस कुप्रथा के खिलाफ कड़े क़ानून मौजूद है। डायन हत्या का मामला गैर जमानती, संज्ञेय व अपराध है। इस की सजा 3 साल से ले कर आजीवन कारावास या 5 लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों हो सकती है। इसके अलावा किसी को डायन घोषित करना, डायन बता कर किसी पर अत्याचार करना, डायन का आरोप लगा कर निवस्त्र करना और डायन के नाम पर किसी को आत्महत्या के लिए मजबूर करने जैसे अपराधों के लिए देश में कड़े कानून मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त डायन हत्या की रोकथाम के लिए बिहार, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ व असम में विशेष कानून भी बनाये गए हैं।

लेकिन इन सबके बावजूद डायन के आरोप में महिलाओं के साथ अत्याचार की घटनाएँ निरंतर घटित हो ही रही है। ऐसे में महिलाओं को खुद जागरुक होना होगा तथा पुरुष प्रधान समाज में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करानी होगी। पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली महिलाओं को विरोध का प्रतिकार भी बुलंद रखनी होगी। निर्दोष महिलाएँ तभी हैवानियत के शिकार से बचायी जा सकती हैं। अन्यथा अंधविश्वास के नाम पर महिला हिंसा की घिनौनी साजिश जारी रहेगी।

(चरखा फीचर)

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