• March 4, 2016

अंतिम नहीं होती कोई सी तृष्णा – डॉ. दीपक आचार्य

अंतिम नहीं होती  कोई सी तृष्णा  – डॉ. दीपक आचार्य

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 इंसान तृष्णाओं की जीवन्त प्रतिमा है। हरेक इंसान जन्म लेने के बाद ही से किसी न किसी तृष्णा के मोहपाश से हरदम घिरा ही रहता है।

एक तृष्णा पूरी होने के बाद दूसरी की आस जग जाती है और जब वह पूरी होने लगती है तब तक तीसरी, चौथी और इसके बाद एक के बाद तृष्णा की श्रृंखला का पूरा का पूरा अदृश्य नेटवर्क मरते दम तक बना ही रहता है।

इसका न कभी अंत हुआ है, न हो पाएगा। कोई इस मायाजाल को इन्द्रजाल मानता हुआ अपने-अपने इन्द्रधनुषों में खोया हुआ है। कोई अपने इस नेटवर्क में पेण्डुलम बना हरदम चक्कर काटता हुआ घनचक्कर बना हुआ है और कोई इसे  ही अपनी जिन्दगी का चरम लक्ष्य मानकर चक्कर काट रहा है।

हर कोई किसी न किसी या किसी न किसी के चक्कर में है, कभी खुद उपग्रह बना फिरता हुआ चक्कर काट रहा है, कोई औरों को चक्कर कटवा रहा है। सारे के सारे चक्कर घनचक्कर बने हुए हैं या फिर चक्करघिन्नियों सा व्यवहार कर रहे हैं। न ये किसी के रहे हैं, न रह सकते हैं।

संसार के व्यामोह और काल-ब्याल के कड़ाहे में उछलकूद करने वाले सारे लोग तृष्णाओं के महासागर में इस आशा में रोजाना गोते लगा रहे हैं कि कामनापूर्ति के कुछ तो मोती निकलेंगे ही निकलेंगे।

इसी फेर में गोते दर गोते लगाते हुए हम सभी  धन्य हो रहे हैं। कोई सफल होेता है तो उत्साह के अतिरेक में झूम उठता है, और थोड़ी सी असफलता या देरी का संकेत पाते ही वह झल्ला उठता है, भीतर तक हिल उठता है, धैर्य, संपट और संयम खो देता है और उन सभी को एक झटके में ही भुला देता है जिन पर उसे जिन्दगी भर भरोसा करना चाहिए, जिन्हें अपना अन्यतम मानना चाहिए। चाहे वे ईश्वर, गुरु, माता-पिता, बुजुर्ग या  भाई-बहन ही क्यों न हों।

कहने को सब यही कहते हैं कि हमारे जीवन में कोई तृष्णा नहीं है,कोई कामना नहीं है। लेकिन यदि किसी विधि से इनके दिमाग को पढ़ने की कोशिश की जाए तो पता चलेगा कि पूरा का पूरा मस्तिष्क और प्रमस्तिष्क अतृप्त कामनाओं का कबाड़खाना बना हुआ है जहाँ हर कोने से असंतोष और उद्विग्नता ही प्रतिध्वनित होती अनुभव होती हैं।

कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि इंसान ऎषणाओं से कूट-कूट कर भरा हुआ पुतला है और उसकी इच्छाओं का अंत होना कभी संभव है ही नहीं।

करीब-करीब सभी लोग हर बार यह सोचते हैं कि यह हमारी अंतिम बार की तृष्णा है, यह पूरी हो जाए फिर और किसी झमेले में नहीं पड़ेंगे।

भगवान से भी यही प्रार्थना करते हैं कि एक बार बस हमारी इच्छा पूरी कर दे, इसके बाद उसे कभी किसी कामना के लिए नहीं कहेंगे। इंसान हो या भगवान, सभी के सामने झोली फैलाते हुए हम यही कहते हैं और जब कोई एक इच्छा पूरी हो जाती है, उससे पहले दूसरी इच्छा सामने तैयार हो जाती है।

इस तरह इन इच्छाओं का अंत कभी नहीं हो पाता। हमारे स्वार्थ, लोभ-लालच और भविष्य को लेकर आशंकाओं, कल्पनाओं और लक्ष्यों का इतना बड़ा जखीरा हमारे सामने होता है कि तृष्णा का अंत कभी हो ही नहीं सकता।

वे लोग बिरले ही होते हैं जो एक समय बाद संसार में रहते हुए भी विरक्त हो जाते हैं और विरक्त की तरह ही रहते हैं। इनमें कई लोग तो विरक्त  की तरह दिखते भी हैं लेकिन बहुत से भगवदमार्गीय व्यक्ति भीतर ही परम विरक्ति पा लेते हैं।

इन्हें देख कर कोई यह कह भी नहीं सकता कि ये पहुंचे हुए अनासक्त हैं। ईश्वर की परम कृपा जिस प्राणी पर हो, वही विरक्ति भाव प्राप्त कर सकता है, दूसरे कोई नहीं।

विरक्त होने का ढोंग कोई भी कर सकता है। लेकिन असल में विरक्त, निर्मोही, निर्लोभी और निष्प्रपंचीं कोई नहीं हो सकता। जो वाकई विरक्त हो जाते हैं वे ही वस्तुतः धरती पर ईश्वर के अवतार के रूप में होते हैं जिनका सान्निध्य ही अपने आप में पुण्यों का उदय करने वाला है।

इसलिए तृष्णाओं की समाप्ति की बात न कहें, ईश्वर और जीवन के यथार्थ का आश्रय प्राप्त करें, इससे अपने आप तृष्णाओं के मायाजाल की असलियत का पता चल जाएगा। तृष्णाओं से ऊपर उठे बिना सारा जीवन, साधनाएं, धर्म और अध्यात्मक के नाम पर किए जाने वाले धंधे और अनुष्ठान व्यर्थ ही हैंं।

तृष्णाओं के मनोविज्ञान और जीवन के लिए आवश्यकता के साथ ही यह समझें कि ईश्वर के प्रति शरणागति से बढ़कर कोई आनंद नहीं दे सकता। और इस आनंद को पाने के लिए नर सेवा-नारायण सेवा के भाव से प्राणी मात्र के प्रति आदर-सम्मान और सेवा का भाव होना जरूरी है।

जीवन में जिस आयु या स्तर पर पहुंचकर हम तृष्णा के अंत की बात कहते हैं उस पर अडिग रहना चाहिए और उसके बाद तृष्णाओं का सर्वथा परित्याग किया जाना चाहिए।

हम सभी को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जो इंसान ईश्वर को अनन्य मान लेता है, तृष्णाओं का पूर्ण परित्याग कर देता है उसे दैवी सम्पदा प्राप्त होती है और इस दैवी संपदा को केवल बिरले ही प्राप्त कर सकते हैं, सामान्य तृष्णासिक्त लोग कभी नहीं।  फिर एक सत्य यह भी है कि या तो ईश्वर को पाने का प्रयास करें या तृष्णाओं की पूर्ति में समय व्यर्थ करते रहें।

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