- February 2, 2015
हर रोज सुबह 10.30 से 11.30 तक अदालतों में जो होता है वह लॉटरी है- अटॉर्नी जनरल एम सी सीतलवाड़
सर्वोच्च न्यायालय - अपीलीय पंचाटों और उच्च न्यायालयों की अपील भर
सर्वोच्च न्यायालय के संस्थापकों का उद्देश्य उसे एक संवैधानिक अदालत बनाना था। बहरहाल एक हालिया अध्ययन के मुताबिक ऊपरी अदालत के केवल 7 फीसदी फैसले ही संवैधानिक मसलों से ताल्लुक रखते हैं। न्यायालय में 50,000 से अधिक ऐसे मामले लंबित हैं जो अपीलीय पंचाटों और उच्च न्यायालयों की अपील भर हैं। संभव है कि ये मामले वर्षों का समय खपाने और ढेरों धनराशि खर्च करने के बाद अधीनस्थ अदालतों के रास्ते यहां तक पहुंचे हों। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसला सुना दिए जाने के बाद भी दो चरणों में उसे चुनौती दी जा सकती है। ये हैं पुनर्विचार याचिका और उपचार याचिका।
हालांकि अंतिम दोनों प्रकार की याचिकाओं का उपयोग उन गलतियों की ओर ध्यान दिलाना होता है जो संभवत: न्यायाधीश की निगाह से चूक गई हों। लेकिन इनका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर उन मामलों को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है जिन पर फैसला आ चुका है। ऐसा लगता है मानो न्यायाधीश भी फैसले लिखने में लापरवाही बरतते हैं कि उनको दो और परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। फैसले के बाद के ये दोनों प्रावधान अदालतों की दिक्कत का सबब बन रहे हैं। औसतन एक सप्ताह में पुनर्विचार याचिका और उपचार याचिका के 30 पन्नों से अधिक में विस्तृत मामले अदालतों के सामने आते हैं। इनकी सुनवाई दोपहर के भोजन के दौरान न्यायाधीशों के चैंबर में की जाती है और आमतौर पर इन्हें मिनटों में निपटाया जाता है। इनमें से शायद ही किसी मामले की फाइल दोबारा खोली जाती हो। बहरहाल, वकील भी अपने पैसे वाले मुवक्किल को यही सलाह देते हैं कि वह अंतिम कोशिश के रूप में पुनर्विचार याचिका और उपचार याचिका दायर करे।
इस माह की शुरुआत में कई कंपनियां सन 1996 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक फैसले से बने नियम के खिलाफ अपनी चुनौती लेकर सर्वोच्च अदालत की शरण में पहुंचीं। कंपनियों का कहना था कि जिस न्यायाधीश ने मामले को खारिज किया हो वह खुली अदालत में पुनर्विचार याचिका पर विचार करे। बहरहाल, ऊपरी अदालत ने कंपनी (सेसा स्टरलाइट और सर्वोच्च न्यायालय) की मांग को खारिज कर दिया। यह एक स्वागतयोग्य फैसला था क्योंकि खुली सुनवाई का अर्थ था वकीलों पर और अधिक दबाव तथा और अधिक समय जाया होना। इससे यह तय रहा कि पुनर्विचार याचिका पर दोपहर के भोजनावकाश में ही सुनवाई जारी रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2003 में यह आकांक्षा जाहिर की थी कि वह पूर्ण न्याय प्रदान करने का प्रयास करेगा।
ऐसा करके उसने पूर्व निर्णीत फैसलों की दोबारा सुनवाई की एक और राह प्रशस्त कर दी थी। उसने निराश वादियों को यह अनुमति दे दी कि वे पुनर्विचार याचिका में निराशा हाथ लगने के बाद भी उसके पास आ सकते हैं। अदालत ने रूपा हुर्रा आौर अशोक हुर्रा के मामले में यह निर्णय देते हुए इसे उपचार याचिका का नाम दिया। तय किया गया कि ऐसी याचिका के साथ किसी वरिष्ठ अधिवक्ता की अनुशंसा होनी चाहिए जिसमें उसने कहा कि संबंधित मामले का पुनरीक्षण जरूरी है क्योंकि पहले दिए गए फैसले में नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन हुआ है।
उपचार याचिका को पहले तीन वरिष्ठïतम न्यायाधीशों के पीठ के समक्ष जाना होता है और वे बहुमत से यह फैसला करेंगे कि मामले पर पुनर्विचार होना चाहिए अथवा नहीं। उसके बाद ही यह मामला उन न्यायाधीशों के पास जाएगा जिन्होंने पहले इसकी सुनवाई की थी। ऐसी सख्त शर्तें इसलिए लगाई गई थीं ताकि उपचार याचिकाओं के बेजा इस्तेमाल को रोका जा सके।
तब से लगातार अदालत अपने उस फैसले पर पछता रही है जिसने असफल याचियों को एक और अवसर मुहैया करा दिया। सुमेर और उत्तर प्रदेश राज्य मामले के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हुर्रा मामले में फैसला सुनाने वाले पीठ का डर था कि कहीं इस उपाय के चलते दूसरी पुनर्विचार याचिकाओं की बौछार न हो जाए। उनका यह डर सही साबित हुआ है क्योंकि बड़ी संख्या में ऐसी याचिकाएं दायर हुई हैं। असली अपेक्षा यह थी अपवादस्वरूप ही ऐसी याचिकाएं जारी की जाएं, वह भी दुर्लभ मामलों में, लेकिन हकीकत में इसका एकदम उलट हो रहा है।
न्याय से जुड़े लोगों के बीच में यह धारणा प्रबल हो रही है कि सर्वोच्च न्यायालय को केवल संवैधानिक मामलों की ही सुनवाई करनी चाहिए।
बहरहाल संविधान का अनुच्छेद 136 विशेष अनुमति याचिका के रूप में अपील की इजाजत देता है। संविधान का निर्माण करने वालों ने कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसे प्रावधान न्याय के क्षेत्र में अपने-अपने दांव लगाने वालों के लिए अवसर पैदा कर देंगे।
पूर्व अटॉर्नी जनरल एम सी सीतलवाड़ ने एक पीठ द्वारा बाजी और लॉटरी में अंतर पूछने पर कहा था कि हर रोज सुबह 10.30 से 11.30 तक अदालतों में जो होता है वह लॉटरी है।
बहरहाल अंतर शायद यह है कि आप लॉटरी में एक बार हार जाते हैं जबकि अदालत में आप बार-बार कोशिश जारी रख सकते हैं।