- December 2, 2020
सोशल मीडिया का समाज से हो मेल
सोशल मीडिया का समाज से हो मेल
नितिन देसाई (बिजनेस स्टैंडर्ड)—– बीते दो दशकों में भारत में इंटरनेट का उपयोग बहुत तेजी से बढ़ा है। वर्ष 2000 में जहां इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या महज 50 लाख थी, वहीं आज यह संख्या बढ़कर 50 करोड़ से भी अधिक हो चुकी है। लेकिन सेवा प्रदाता प्लेटफॉर्म जिस तरह से इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं उसका नियमन इन सेवाओं के परंपरागत प्रदाताओं की गतिविधियों की तुलना में बहुत कम है।
गत 9 नवंबर को सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर कहा कि फिल्म एवं मनोरंजक कंटेंट देने वाले प्लेटफॉर्म और समाचार एवं सामयिक मुद्दों पर जानकारी परोसने वाले ऑनलाइन प्लेटफॉर्म अब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के निगरानी दायरे में आ गए हैं। जब फिल्मों की बात आती है तो इसके पीछे मंशा सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने वाली फिल्मों पर लागू होने वाले सेंसरशिप मानदंडों को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के लिए भी लागू करने का नजर आता है। लेकिन हाल के वर्षों में तेजी से बढ़े ऑनलाइन समाचार प्लेटफॉर्मों के बारे में इस अधिसूचना के संभावित असर को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
इंटरनेट प्रिंट मीडिया या टेलीविजन चैनल जैसे परंपरागत स्रोतों की तुलना में समाचार एवं सूचनाओं से परिचित होने का कहीं बड़ा जरिया होता जा रहा है। कहीं से भी पहुंच आसान होने से यह एक अच्छी बात भी है। लेकिन इसका एक प्रमुख नकारात्मक पहलू यह है कि फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब या व्हाट्सऐप जैसे इंटरनेट प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध खबरों के स्रोत का जिक्र सही ढंग से नहीं होता है और इसकी वजह से यह माध्यम फर्जी खबरों को बहुत आसानी एवं जल्दी से फैलाने का अहम साधन बन गया है।
ऑक्सफर्ड स्थित रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की इंडिया डिजिटल न्यूज रिपोर्ट ने मुख्य रूप से शहरों के अंग्रेजी-भाषी लोगों के बीच एक सर्वे किया था। इस सर्वे से पता चला कि ऑनलाइन समाचार ने सामान्य तौर पर (56 फीसदी) और खासकर सोशल मीडिया (28 फीसदी) ने 35 साल से कम उम्र के प्रतिभागियों के बीच समाचार जानने के मुख्य स्रोत के तौर पर प्रिंट (16 फीसदी) को काफी पीछे छोड़ दिया है। वहीं 35 साल से अधिक उम्र के प्रतिभागी खबरों के लिए ऑनलाइन एवं ऑफलाइन माध्यमों का मिलाजुला इस्तेमाल करते हुए पाए गए।
ऑनलाइन खबरें देखने-पढऩे के लिए 68 फीसदी प्रतिभागी स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर रहे थे जबकि 52 फीसदी लोगों ने कहा कि वे व्हाट्सऐप पर आने वाली पोस्ट को पढ़कर खबरें जानते हैं। व्हाट्सऐप कोई समाचार प्रदाता प्लेटफॉर्म नहीं है लेकिन इसका इस्तेमाल फर्जी खबरों को आसानी से फैलाने के लिए खूब किया जाता है।
भारत में फर्जी खबरों के बारे में बीबीसी की दिसंबर 2018 में पेश एक शोध रिपोर्ट कहती है कि साझा की जाने वाली खबरों में एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक खबरों का होता है और फर्जी खबरों को फैलाने के मामले में दक्षिणपंथी सोच वाले मंच वामपंथी रुझान वाले मंचों की तुलना में कहीं अधिक संगठित हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक फर्जी खबरों को साझा करने में सामाजिक-आर्थिक पहचान की भूमिका अहम होती है।
खासकर दक्षिणपंथी विचार वाले लोग एक साझा आख्यान पेश करने वाली खबरें शेयर करते हैं जबकि वामपंथी धड़े एक आख्यान पेश करने को लेकर बंटे हुए दिखाई देते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि राजनीति में जुड़ाव रखने वाले फर्जी खबरों के स्रोत में भी सबसे अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘फर्जी खबरें देने वाले ट्विटर हैंडल में से अधिक भाजपा-समर्थक खेमे में आते हैं, भाजपा-विरोधी धड़े में होने के बजाय’।
राजनीतिक एवं सामाजिक अतिवादियों के बीच फर्जी खबरों को लेकर लगाव होना कोई नई बात नहीं है। लेकिन पहले के दौर में जो बात एक-से-दूसरे मुंह तक होते हुए धीरे-धीरे फैलती थी, अब उसी खबर को कुछ बदनाम मीडिया प्लेटफॉर्म सोशल मीडिया एवं ऑनलाइन संचार वेबसाइटों की मदद से बहुत तेजी से फैला सकते हैं और ऑनलाइन मंचों पर खुद की पहचान उजागर करने से भी संरक्षण मिला होता है।
इन सोशल मीडिया एवं संचार सेवाओं का दोष अपने पोर्टलों पर परोसे जा रहे कंटेंट को लेकर आंखें बंद करने से भी कहीं ज्यादा है। हाल में नेटफ्लिक्स पर रिलीज वृत्तचित्र ‘द सोशल डिलेमा’ तो कहीं अधिक गंभीर आरोप लगाती है। इस वृत्तचित्र में फर्जी खबरें परोसने वाली वेबसाइटों के विकास से जुड़े रहे लोगों के साक्षात्कार भी किए गए हैं। इसके मुताबिक इन वेबसाइटों का कारोबारी मॉडल अधिक विज्ञापन राजस्व जुटाने पर आधारित है और इसके लिए वे अधिक से अधिक संख्या में लोगों को अपने पोर्टल पर जाने और वहां पर अधिकतम समय बिताने के लिए कुछ भी करने को तैयार होते हैं। वे इंटरनेट पर आपकी पसंद एवं नापसंद वाली चीजों के आधार पर तैयार एल्गोरिद्म की मदद से इस काम को अंजाम देते हैं।
अधिक संख्या में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को आकर्षित करने की एल्गोरिद्म-आधारित इस रणनीति का एक अधिक डरावना पहलू भी है। जब ये पोर्टल अतिवादी सोच वाले लोगों को मौके देते हैं तो उन उन्मादी लोगों के समर्थन या विरोध में अधिक लोग पोर्टल पर आ जाते हैं। यही कारण है कि ये पोर्टल असरदार नेताओं के झूठ एवं पूर्वग्रह वाले बयानों पर अक्सर मुंह फेर लेते हैं।
यूट्यूब के पूर्व इंजीनियर गुइलॉम चास्लोट कहते हैं, ‘यह बात मुझे काफी परेशान करती है कि मैंने जिस एल्गोरिद्म पर काम किया था, आज वह समाज में ध्रुवीकरण फैलाने के काम आ रही है। लेकिन इंटरनेट पर बिताए जाने वाले समय के लिहाज से देखें तो यह ध्रुवीकरण लोगों को ऑनलाइन बनाए रखने में काफी कारगर है।’
इंटरनेट का डिजाइन ही इच्छा को आजादी देने वाला है। इंटरनेट ने फेसबुक जैसी सोशल मीडिया साइट, यूट्यूब जैसे मुक्त पहुंच प्लेटफॉर्म एवं व्हाट्सऐप जैसे संचार प्लेटफॉर्म को सामान्य मीडिया मानदंडों को दरकिनार करने और अपने ग्राहकों को गलत बातें एवं उग्रता फैलाने की खुली छूट दी हुई है और किसी दंड का भय भी नहीं है। वे किसी टेलीफोन कंपनी की तरह संचार सेवा प्रदाता होने का दावा नहीं कर सकते हैं। फोन कंपनियों के उलट उन्हें मालूम होता है कि उनके उपयोगकर्ता किस चीज को प्रसारित कर रहे हैं। दरअसल वे इस जानकारी का इस्तेमाल अपने ग्राहकों को वैसी खबरें एवं पोस्ट परोसने में करते हैं जो उन्हें उनकी साइट पर देर तक रोके रख सके।
बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का संचालन लाभ कमाने के मकसद वाली वाणिज्यिक कंपनियां कर रही हैं जिनमें से अधिकांश का मुख्यालय अमेरिका में है। अब समय आ गया है कि सम्यक तत्परता के सुनिश्चित मानदंड तय किए जाएं जिनका अनुसरण करने पर ये प्लेटफॉर्म राजनीतिक एवं सामाजिक ध्रुवीकरण का जरिया न बन पाएं। इस मकसद को किस तरह हासिल किया जा सकता है? पहला, उपयोगकर्ता के लिए कंटेंट परोसने वाले किसी भी इंटरनेट पोर्टल पर लागू होने वाले कानून में छानबीन एवं सम्यक तत्परता के आवश्यक मानदंड तय किए जाएं।
प्लेटफॉर्म को छानबीन के दौरान कोई भी गैरकानूनी, भड़काऊ या गलत साबित हो चुके कंटेंट को फौरन हटाना होगा। दूसरा, सोशल मीडिया साइटों की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन किया जाए। गैरकानूनी, भड़काऊ एवं गलत जानकारी वाले पोस्ट की पहचान के लिए वेब क्रॉलर का इस्तेमाल किया जा सकता है। तीसरा, यह एजेंसी वेबसाइटों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले एल्गोरिद्म का परीक्षण एवं अनुमोदन करने का काम भी करे। चौथा, स्थापित मानदंडों के उल्लंघन को परखने के लिए एक अर्ध-न्यायिक ढांचा तैयार किया जाए।
ऐसा करते समय नागरिकों को हासिल विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना होगा। स्वतंत्र निगरानी एजेंसी एवं सत्तारूढ़ सरकार के बीच एक फायरवॉल बनाकर सोशल मीडिया के राजनीतिक दुरुपयोग से बचा जा सकता है। संभवत: शुरुआत में आत्म-नियमन पर जोर देकर और सोशल मीडिया कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा पर यकीन कर आत्म-नियमन को असरदार बनाया जा सकता है।
एक लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता काफी अहम है। लेकिन समाज को ध्रुवीकृत करने वाले झूठ से लोगों को बचाना भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है। इस तरह समाचार प्रसारित करने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का नियमन जरूरी हो जाता है।