- August 18, 2022
सामाजिक अन्याय और रूढ़िवादी सोच में दबा है पहाड़ी गांवों का भविष्य —–आदर्श पाल
(एमए डेवलपमेंट स्टडीज़ ,अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी)
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जिन समस्याओं को लेकर हम इतना आशवस्त हो चुके हैं कि उनके मुद्दे अब हमारे लिए ख़त्म हो गए हैं, उन समस्याओं ने ही उत्तराखंड के दूरस्थ पहाड़ी जिले बागेश्वर के गांवों में न जाने कितने सपनो और आकांक्षाओं को दबा रखा है. बागेश्वर, जो 1997 से पहले अल्मोड़ा जिले का हिस्सा हुआ करता था, विकास की रफ़्तार को तेज़ी देने के लिए इस नए जिले को 3 विकास खंडों बागेश्वर, गरुड़ और कपकोट में विभाजित किया गया. लेकिन दो दहाई से अधिक समय बीतने के बाद भी यह जिला काफी समस्याओं से जूझ रहा है. गरुड़ विकास खंड के एक गांव चोरसो की रहने वाली लड़कियां विकास और समाज की अवधारणा के बारे में बात करते हुए कहती हैं कि उन्हें अपने सपनों को पूरे करने के अवसर ही नहीं मिलते, तो कहां से यह सोंचे कि विकास क्या है और कैसे उनका विकास होगा?
हालांकि इन्हीं मुद्दों पर उत्तराखंड में कितने ही चुनाव लड़े गए होंगे और यहां के लोगो ने वोट भी दिए होंगे, लेकिन क्या यह सवाल किसी के जेहन में नहीं आया होगा कि यहां के निवासी किस तरह का विकास चाहते हैं? चोरसो गांव की लड़कियां कहती हैं कि उन्हें स्कूल जाने के लिए सड़क अच्छी मिल जाये और बाजार तक उनकी पहुंच आसान हो जाये तो उन्हें लगेगा कि विकास हो रहा है. लेकिन जब उनकी इन्हीं समस्याओं की तुलना उनके घर के लड़कों से करने के बारे में कहा गया तो उनके जवाब बहुत ही अलग थे.
इसी जिला के एक अन्य विकासखंड ‘कपकोट’ के एक गांव उत्तरौड़ा की रहने वाली लड़कियां लैंगिक असमानता पर काफी बेबाकी से अपना जवाब देती हैं और कई परम्पराओं पर सवाल भी करती हैं. गांव की एक किशोरी चित्रा कहती हैं कि यह बात हमने स्वीकार कर ली है कि बहुत सारी असुविधाओं का सामना तो हमें केवल इस वजह से करनी पड़ती है, क्योंकि हम लड़की हैं. जबकि ऐसा नहीं है कि हम लड़कियां पढ़कर नौकरी नहीं कर सकतीं हैं. लेकिन बहुत कम ही लड़कियां ऐसा कर पाती हैं. इसका एक ही कारण है कि जितने मौके लड़कों को मिलते हैं उतने मौके न तो हमें मिलते हैं और न ही परिवार के लोग उतना पैसा हम पर खर्च करना चाहते हैं. चित्रा के ही गांव की रहने वाली एक अन्य लड़की कहती है कि वह अब वह अपनी पढ़ाई के कारण बड़े शहर हल्द्वानी में रहती है, इसके बावजूद वह महसूस करती है कि घर के काम और नौकरी, लैंगिक आधार पर बंटे हुए हैं. इस गांव में जिन 13 लड़कियों से बात हुई उनमें से अधिकतर का यही मानना है कि कोई भी काम लिंग के आधार पर बटे नहीं होने चाहिए क्योंकि किसी एक काम को करने में जो कौशल और योग्यता चाहिए है वो किसी में भी विकसित हो सकती है. लेकिन समाज की संकुचित विचारधारा लिंग के आधार पर कामों का बंटवारा करती है.
आजादी के 75 सालों बाद भी हमने अपने समाज के अंदर न जाने कितने ही खोखले विचारों एवं रूढ़िवादी परम्पराओं को जगह दे रखी है जिनकी वजह से देश की असंख्य लड़कियों को अपने सपने देखने की आजादी तक छिन गई है. सवाल यह उठता है कि क्या विकास के जो उद्देश्य हैं वह उत्तराखंड के इस दूर दराज़ जिले में अपनी पहुंच बना पाए हैं? इसका जवाब तो तब मिलता है जब कुमाऊं सीमा के अंतिम गांव ‘बघर’ तक का सफर तय हो पाता है. बघर भी कपकोट विकास खंड का ही एक गांव है, लेकिन उत्तरौडा जैसे गांवों से बिल्कुल अलग है, क्योंकि कनेक्टिविटी की समस्या से जूझता ये गांव बहुत अलग-थलग और हाशियाकृत होकर रह गया है. गांव में न तो आंगनबाड़ी कार्यरत है और न ही गांव में किसी भी प्रकार का नेटवर्क आता है. दरअसल एक पहाड़ी में बसे इस गांव तक पहुंचने के लिए जिन रास्तो से होकर जाना होता है वह इतने संकरे और जोखिम भरे हैं कि यहां मुश्किल से सुविधाएं पहुंच पाती हैं.
यहां की लड़कियां बताती हैं कि पास में सिर्फ एक ही स्कूल है और अगर उसमे पढाई नहीं करनी है तो पैदल 2 घंटे से ज्यादा चलकर जाना पड़ता है जोकि सबके लिए कठिन होता है और किसी के घर वाले इतनी दूर स्कूल जाने की अनुमति भी नहीं देते हैं. सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली कृष्णा प्रतिदिन टैक्सी के माध्यम से कपकोट पढ़ने जाती है जहां तक पहुंचने में उसे दो घंटे से ज्यादा वक़्त लगता है. उसका कहना है कि आर्थिक स्थिति और समाज की संकुचित सोच के कारण गांव की अधिकतर लड़कियां इतनी दूर पढ़ने नहीं जा सकती हैं, इसलिए सभी पास के ही स्कूल से पढाई ख़त्म कर लेती हैं. सरिता (बदला हुआ नाम) जिन्होंने बारहवीं तक की पढाई पूरी कर ली है, कहती हैं कि आगे की पढाई का कुछ भरोसा नहीं है क्योंकि घर वालों का कहना है अब और आगे पढ़ लिखकर क्या करोगी? हालांकि सरिता का सपना है कि वह पुलिस की नौकरी करे और साथ ही अपने गांव में जागरूकता भी फैलाए कि शिक्षा सबका अधिकार है और किसी भी काम के लिए लड़कों और लड़कियों में भेदभाव न किया जाए.
सरिता का मानना है कि उनके गांव में लड़कियों को बहुत सारे अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है. इसके साथ-साथ कुछ कुरीतियों ने अभी भी उनके गांव को जकड़ रखा है, जैसे- माहवारी के दौरान पूरे एक हफ्ते लड़की को घर के बाहर रहना पड़ता है और इसके साथ-साथ उसे छुआछूत का भी सामना करना पड़ता है. गांव की लड़कियां मानती हैं कि ऐसा सब जगह होता है और उनको कभी इस बात का एहसास नहीं हो पाया कि यह परंपरा गलत है और एक प्रकार से लिंग आधारित भेदभाव है. यहां लड़कियों से बात करते हुए यह बात सामने निकल कर आयी कि उन्हें लगता है कि उनकी सभी समस्याएं दोहरी हैं. पहली, उन्होंने ऐसी जगह जन्म लिया जो सुविधाओं से बहुत दूर है और दूसरी यह कि उन्होंने एक लड़की के रूप में जन्म लिया है.
बघर गांव की लड़कियों से बातचीत जब इस मुद्दे पर पहुंची कि क्यों कुछ कामों को महिलाओं का काम समझा जाता है? तो उनका कहना था कि क्योंकि यही अब तक होता आया है और कभी हमने इस बारे में सोचने की कोशिश भी नहीं की. उनका कहना था कि हमारी जरूरतें, हमारे सपने और हमारे अधिकार सभी लड़कों के बाद आते हैं. यह बात हमेशा हमें गुस्सा और उदासी तो प्रदान करती है, लेकिन कोई सुझाव समझ में नहीं आता है. इसी गुस्से और उदासी भरे जीवन से न जाने कितनी लड़कियां रोजाना ऐसे गांवों में जूझ रही हैं लेकिन समाधान कुछ नहीं हैं. न तो कोई इन समस्याओं को समाप्त कर सकता है और न ही इन लड़कियों से ये समस्याएं अपने आप दूर जा सकती हैं.
कोरोना महामारी के दौरान जब सारे देश में स्कूल और कॉलेज ऑनलाइन पढ़ाई का रुख करने लगे थे, तब इन गांवों के बच्चे अपनी पढाई से सिर्फ इसलिए दूर हो गए थे क्योंकि इन सीमावर्ती गांवों में नेटवर्क नहीं आता है. जहां ‘डिजिटल इण्डिया’ का नारा खोखला हो जाता है. लेकिन खोखला सिर्फ ‘डिजिटल इण्डिया’ का नारा ही नहीं होता है बल्कि भारतीय लोकतंत्र को चलाने वाले संविधान में लिखे सारे नियम, अधिकार और कानून भी खोखले हो जाते हैं क्योंकि कितने वर्षों से यहां कि लड़कियों को दोयम दर्जे का नागरिक बन कर रहना पड़ रहा है. खोखली तो विकास की वह अवधारणा भी हो जाती है जो बड़े-बड़े सेमिनार हॉल्स में बैठकर तैयार की जातीं हैं.
कनेक्टिविटी और अन्य मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे इन गांवों में विकास की तीव्रता मापना और ऐसे कारकों को ढूंढना जो विकास में बाधा हैं, आपको अन्य सामाजिक समस्याओं की तरफ भी ले जाएंगी. किशोरी बालिकाओं का यह कहना कि उनकी समस्याएं दोहरी हैं, इस बात का इशारा हैं कि विकास और विकास की योजनाओं का क्रियान्वयन भी दोहरा है. जिसके कारण आज तक समग्र विकास का नारा सिर्फ नारा बनकर रह गया है. इन सभी गांवों की लड़कियों को उम्मीद है कि एक दिन यहां की लड़कियां भी आज़ादी के साथ सपने देखने लग जाएंगी और वह सारे अवसर उन्हें मिलने लग जाएंगी, जिनसे उन्हें सदियों से वंचित रखा गया है. लेकिन कैसे? इसका जवाब दरअसल हर उस समाज को ढूंढना होगा, जो स्वयं को सभ्य कहता है.
(चरखा फीचर)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)