व्यवहारिक पूर्ण शिक्षा की जरूरत

व्यवहारिक पूर्ण  शिक्षा की जरूरत

मधुपुर (आशुतोष कुमार)—- आदि अनादि काल से गुरूकुलों में व्यवहारिक शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाता था। ऋषि मुनि अपने शिष्यों को लकडी काटने बटोरने से लेकर जीवन के हर पडाव में आने वाली व्यवहारिक कठिनाइयों से शिष्यों को रूबरू कराते थे। इसके साथ ही साथ धर्म अर्धम की शिक्षा भी दिया करते थे। बदलाव प्रकृति की सतत् प्रक्रिया है। जमाना बदलता रहा और शिक्षा के तौर तरीकों में भी बदलाव होता रहा।

सत्तर के दशक की समाप्ति तक बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी थी। इसके उपरांत बदलाव की बयार शनै: शनै: तेज होकर अब गति में तब्दील होती जा रही है। हमारे विचार से शिक्षा को लेकर जितने प्रयोग भारतवर्ष में हुए हैं, उतने शायद ही किसी अन्य देश में हुए हों। जब जब सरकारें बदलीं, सबसे पहले हमला शिक्षा प्रणाली पर ही हुआ।

देश के भूत वर्तमान और भविष्य को देखने के बजाए प्रबंधन ने अपनी पसंद को ही थोपने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। रही सही कसर विद्यालय के प्रबंधन ने पूरी कर दी। अनेक सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए प्रबंधन के तुगलकी फरमान ने बच्चों की जान ही निकाल दी। शिक्षकों को अध्यापन से इतर बेगार के कामों में लगाने से उनका ध्यान अपने मूल कार्य से भटकना स्वाभाविक ही है।

शिक्षक ही देश का भविष्य गढते हैं, किन्तु आज देश के भविष्य को बनाने वाले शिक्षकों से जनगणना, मतदाता सूची संशोधन, पल्स पोलियो जैसे कामों में लगा दिया जाता है। शिक्षकों को यह बात रास कतई नहीं आती है। यही कारण है कि शिक्षकों ने भी अपने मूल काम को तवज्जो देना बंद ही कर दिया है।

दिशाविहीन देश की शिक्षा प्रणाली को पटरी पर लाना निश्चित तौर पर आज सबसे बडी चुनौति बन गई है। बच्चों के कांधे आज बस्तों के बोझ से बुरी तरह दबे हुए हैं। दस से पंद्रह किलो से भी अधिक के बस्ते छोटे छोटे बच्चे अपने कांधों पर लादकर चलने पर मजबूर हैं। इतना ही नहीं ठंड हो या बरसात, हर मौसम में स्कूल का समय बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति निर्ममता का भाव भर रहा है। विधलाया प्रबंधन इतना भी निष्ठुर हो सकता है कि जान लेने वाली ठण्ड में सुब्बह छ: बजे बच्चा अपने अपने घरों से स्कूल के लिए तैयार होने पर मजबूर हैं।

इन परिस्थितियों में केंद्रीय विद्यालय संगठन की पहल का देश भर में निश्चित तौर पर खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए जिसमें उसने स्कूली बच्चों के प्रति पहली बार मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए बस्तों के वजन को कम करने का मुद्दा उठाया है। केवीसी के अनुसार बस्ते का कुल वजन छ: किलो से अधिक नहीं होना चाहिए।

यह सच है कि बच्चों को कम उमर में किताबी कीडा बनाने से उन्हें व्यवहारिक के बाजए मशीनी बनाने का ज्यादा प्रयास किया जा रहा है। आज हाई स्कूल की कोर्स की मोटी किताब को एक शैक्षणिक सत्र में कतई पूरा नहीं किया जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में बच्चों की प्रतिभा का सहज विकास नहीं हो पा रहा है।

ऐसा नहीं है कि स्कूली बच्चों के बस्तों के बोझ से देश के शासक परिचित न हों। इसके पहले भी अनेकों बार बच्चों के बस्तों और होमवर्क को कम करने की कवायद की गई थी, किन्तु सदा ही इस मामले में नतीजा सिफर ही निकलकर आया। प्रोफेसर यशपाल समिति, चंद्राकर समिति ने भी कमोबेश इस पर चिंता जताई थी। यशपाल कमेटी की सिफारिश पर बस्ते का बोझ कम करने को लेकर देशव्यापी बहस छिड गई थी, जो समय के साथ पार्श्व बलात ही में ढकेल दी गई। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि देश में लालफीताशाही के चलते यशपाल समिति की सिफारिशें धूल खाती रहीं और बच्चे स्कूल बैग के बोझ तले दबते चले गए।

जनता के गाढे पसीने की कमाई से मोटी पगार पाने वाले नौकरशाहों के राज में शिक्षा व्यवस्था का आलम यह है कि 1988 में तत्कालीन संसद सदस्य चंदूलाल चंद्राकर की अध्यक्षता में बनी चंद्राकर समीति का प्रतिवेदन ही गायब है। संसद की आश्वासन समीति की फटकार के बाद जनवरी 2009 में एक बार फिर ”चंद्राकर समीति की रिपोर्ट” खोजने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अपने शीर्ष अधिकारियों से लैस एक ओर समिति बना दी थी। मजे की बात तो यह है कि समीति की सिफारिश ढूंढने बनाई गई समीति भी मूल फाईल को खोजने में नाकामयाब रही है।

जानकारों का कहना है कि अगर संसद की आश्वासन समिति के पास यह मामला नहीं होता तो कब का इसे ठण्डे बस्ते के हवाले कर दिया जाता। दरअसल 1992 में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने सदन में इस समिति के प्रतिवेदन को लागू करवाने का आश्वासन दिया था। इसके बाद से यह सदन की संपत्ति के साथ ही साथ एचआरडी मिनिस्ट्री के गले की फांस बन गई है।

आज की शिक्षा प्रणाली महज डिग्री लेने का साधन बनकर रह गई है। अस्सी के दशक के उपरांत पैदा हुए अधिकांश बच्चों को यह नहीं मालुम है कि देश पर मुगलों ने कबआज की शिक्षा प्रणाली महज डिग्री लेने का साधन बनकर रह गई है। अस्सी के दशक के उपरांत पैदा हुए अधिकांश बच्चों को यह नहीं मालुम है कि देश पर मुगलों ने कब आक्रमण किया था, कब अंग्रेजों ने हमें अपना गुलाम बना लिया था, कैसे और कितने जुल्म सहने के बाद देश को आजादी मिली। वर्तमान भारत की तस्वीर कुछ इसी तरह की है, जिसकी कल्पना न महात्मा गांधी ने की होगी और न ही पंडित जवाहर लाल नेहरू ने। आज की युवा पीढी आजादी के सही मायने और मोल को नहीं पहचानती है, यही कारण है कि आज एक बार फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह चीन द्वारा सस्ते ”चाईनीज आईटम्स” के बहाने हमारी अर्थव्यवस्था में सेंध लगाने की तैयारी की जा रही है।

देश के नौनिहालों को देखते हुए आवश्यक्ता इस बात की है कि अब नए सिरे से शिक्षा प्रणाली को समझा, देखा, परखा और लागू किया जाए। स्कूलों में क्या पढाना चाहिए, अनावश्यक विषयों को वैकल्पिक बनाया जाए, बच्चों को सारी कापी किताबें रोजाना विद्यालय ले जाना गैर जरूरी किया जाना चाहिए। इस सबके साथ ही साथ पढाई में बच्चों रूचि बरकरार रहे इसके लिए मैदानी, प्रयोगात्मक और अन्य माध्यमों से बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करना होगा। इस दिशा में सरकार को कठोर और अप्रिय कदम उठाने से नहीं चूकना चाहिए। सरकार का यह प्रयास महज कुछ स्कूलों तक ही न सीमित रहे। इसे देश के हर स्कूल को लागू करने के लिए ठोस कार्ययोजना सुनिश्चित करना ही होगा। ।अगर सरकार इसके प्रति अपना कार्ययोजना सुनिश्चित नहीं करेगी तो देश का आने वला पीढ़ी हमारे अतित, और संस्कृति को नहीं जान पायेगा।

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