- November 29, 2020
वित्त मंत्री और चुनौती भरे बजट— के सी नियोगी से लेकर निर्मला सीतारमण तक
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ए के भट्टाचार्य के अनुसार वर्ष 1947 से अब तक 29 लोग वित्त मंत्री रह चुके हैं। इनमें से केवल के सी नियोगी ही ऐसे अकेले वित्त मंत्री रहे जो बजट नहीं पेश कर पाए। इसकी वजह यह है कि वह 1949 में केवल एक महीने के ही लिए वित्त मंत्री रहे थे। उसके बाद उन्होंने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ ही कांग्रेस छोड़ दी।
इन 29 वित्त मंत्रियों में से तीन लोगों- जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए खुद ही एक-एक बार बजट पेश किया था। चार वित्त मंत्री ऐसे रहे जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री भी बने। इनमें मोरारजी देसाई, चरण सिंह, वी पी सिंह और मनमोहन सिंह शामिल हैं। एक और सिंह- जसवंत सिंह भी वित्त मंत्री रहे लेकिन छह तमिल इस पद को संभाल चुके हैं।
निर्मला सीतारमण से पहले सिर्फ पांच वित्त मंत्री ही ऐसे रहे हैं जिन्हें बेहद असामान्य हालात का सामना करना पड़ा। यह लेख इस पहलू पर गौर करेगा कि इन लोगों ने किस तरह चुनौती का सामना किया।
संक्षेप में कहें तो चार वित्त मंत्री मुश्किल दौर से उबारने में सफल रहे। उन्होंने नाटकीय ढंग से पूरे देश का मिजाज ही बदलकर रख दिया। केवल 1957 में ही वित्त मंत्रालय संभाल रहे शख्स पर हालात भारी पड़े। यहां पर मैं यह जोडऩा चाहूंगा कि निर्मला इस समय जिस संकट का सामना कर रही हैं उसकी गहनता पिछले सभी संकटों के जोड़ के बराबर है।
संकट काल के बजट
1947- विभाजन के बाद पहला बजट 20 नवंबर, 1947 को पेश किया गया था। कमोबेश समूचा बजट ही रेलवे को समर्पित किया गया था। भगवान ही बता सकते हैं कि सरकार के दिमाग में आखिर क्या चल रहा था।
1957- यह कांग्रेस के अवाडी अधिवेशन के बाद का पहला बजट था। कम वृद्धि, बढ़ी हुई मुद्रास्फीति और तेजी से कम होते संतुलन पर काबू पाने चुनौती थी। इससे निपटने के लिए कांग्रेस ने अवाडी अधिवेशन में अर्थव्यवस्था की उल्लेखनीय उपलब्धियों पर ध्यान देने और भारी उद्योगों में बड़े पैमाने पर निवेश करने का फैसला किया था। इसके लिए धन जुटाने के इरादे से सरकार ने दूसरी पंचवर्षीय योजना में करों में भारी वृद्धि कर दी।
1970- छह बड़े संकटों के बाद पेश हुआ यह पहला बजट था। 1962 में चीन के साथ जंग, 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध, 1965 और 1966 में लगातार दो साल आए सूखे, 1966 के अवमूल्यन और 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो चुका था। 1970 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपना अकेला बजट पेश किया था। यह अर्थव्यवस्था में राज्य की संलिप्तता में भारी विस्तार का एक ब्लूप्रिंट था। इसने देश की मनोदशा ही पूरी तरह बदल दी। मतदाता इस बात से काफी खुश थे कि धनी लोगों से खूब कर वसूला जा रहा है।
1985- यह बजट अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पेश किया गया था। वित्त मंत्री वी पी सिंह ने करों एवं शुल्कों में कटौती की, औद्योगिक लाइसेंस प्रक्रिया को सरल बनाया और संसाधनों के समुचित आवंटन के लिए बाजार की तरफ संकोच-भरी निगाह डाली। उन्होंने घाटे के लिए बड़े पैमाने पर वित्त का प्रावधान रखा जिसका परिणाम 1991 के भुगतान संतुलन संकट के रूप में सामने आया।
1991- भुगतान संतुलन संकट के बाद का यह पहला बजट था। वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने रुपये का भारी अवमूल्यन किया, औद्योगिक लाइसेंसिंग को लगभग खत्म कर दिया और निर्यात सब्सिडी में कटौती की थी। सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क दोनों में कटौती की गई, प्रत्यक्ष करों को तर्कसंगत बनाया गया और विदेशी निवेश का दिल खोलकर स्वागत किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि देखते-ही-देखते पूरा माहौल ही बदल गया।
अब क्या?
एक बार फिर ऐसा मौका आया है कि 2021 का बजट देश के डिस्क-ऑपरेटिंग सिस्टम को बदल सके। इस मौके को किसी भी हाल में गंवाना नहीं चाहिए।
मेरी राय में पहला बिंदु यह होगा कि बजट को उसके आर्थिक परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाए जिससे हम 1970 में भटक गए थे। सियासत का जरिया बन चुके पुनर्वितरण पर जोर देना बंद कर देना चाहिए क्योंकि इसके नतीजे नकारात्मक रहे हैं।
बुनियादी रवैये में बदलाव के लिए सरकार को खुलकर यह स्वीकार करना होगा कि देश को संपन्न एवं अच्छी आर्थिक हैसियत वाले लोगों की जरूरत है क्योंकि यही लोग खर्च, बचत एवं निवेश करते हैं। आर्थिक वृद्धि के इन चालकों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति पर हमेशा के लिए लगाम लगनी चाहिए। इसके लिए व्यक्तिगत आयकर को उसी तरह नीचे लाना होगा जैसे कॉर्पोरेट कर के मामले में किया गया है।
यहां पर मैं आपके समक्ष एक बेतुका एवं शर्मनाक आंकड़ा रखता हूं। कॉर्पोरेट कर से प्राप्त राजस्व व्यक्तिगत आयकर से प्राप्त राजस्व से थोड़ा ही अधिक है। इन दोनों का अनुपात क्रमश: 52 फीसदी एवं 48 फीसदी है।
इतना ही नहीं, सरकार व्यक्तिगत आयकर के रूप में जो भी राजस्व अर्जित करती है उससे भी अधिक राशि अपने काफी हद तक नकारात्मक उत्पादक कर्मचारियों के वेतन और कोई भी योगदान नहीं देने वाले लोगों को पेंशन देने पर खर्च कर देती है। इससे भी बुरी बात यह है कि वह इनके भुगतान के लिए भारी उधारी भी लेती है। अब भीड़ को कम करने पर चर्चा करनी होगी।
आगामी बजट अगर सतत रूप से वृद्धि को बहाल रखना चाहता है तो उसे धनी एवं समृद्ध लोगों की जेब में पहले से अधिक रकम छोडऩी होगी। आयकर की केवल दो दरें होनी चाहिए: 30 लाख रुपये तक सालाना आय पर 10 फीसदी और उससे अधिक आय वाले लोगों पर 25 फीसदी की दर से कर लगाया जाए।
अगर मनमोहन सिंह जुलाई 1991 में हमें ईस्ट इंडिया कंपनी को भुलाने की स्थिति में ला सके तो निर्मला सीतारमण को भी नेहरूवादी कराधान को भूलने की जरूरत है।
(बिजनेस स्टैंडर्ड)