मॉनसून अनिश्चितता के चलते खाद्य सुरक्षा रणनीति पर पुनर्विचार ज़रूरी

मॉनसून अनिश्चितता के चलते खाद्य सुरक्षा रणनीति पर पुनर्विचार ज़रूरी

लखनऊ (निशांत कुमार )—-भारत की अर्थव्यवस्था पर मानसून का निर्णायक प्रभाव पड़ता है। भारत की कृषि अर्थव्यवस्था अब भी काफी हद तक मॉनसून की गतिविधियों पर निर्भर करती है। भारत का 40% से ज्यादा बुआई क्षेत्र सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर है। इस साल भारत में मानसून की आमद समय से हुई लेकिन रफ्तार पकड़ने से पहले वह एक हफ्ते से ज्यादा समय तक थमा रहा। इस देरी के कारण पड़ने वाला असर भारतीय अर्थव्यवस्था के माथे पर चिंता की लकीरें खींच गया।
जलवायु थिंक टैंक ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ ने भारत में मानसून के बदलते ढर्रे की वजह से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करने के लिए शुक्रवार को एक वेबिनार आयोजित किया, जिसमें विशेषज्ञों ने देश में जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के बदले मिजाज और मौजूदा हालात से निपटने की संभावनाओं पर व्यापक चर्चा की।
एग्रीकल्चर ट्रेड पॉलिसी विश्लेषक देविंदर शर्मा ने मानसून और उससे जुड़ी विभिन्न प्रक्रियाओं को लेकर नजरिए में व्यापक बदलाव की वकालत करते हुए कहा कि भारत की खाद्य सुरक्षा पर मानसून का जबरदस्त असर पड़ता है। मौसम की अनिश्चितता को देखते हुए भारत की खाद्य सुरक्षा पर काम करने की रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा।
उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन की वजह से मानसून का ढर्रा बदला है। जहां तक वर्षा के वितरण की बात है तो उसमें भी व्यापक बदलाव आया है। जहां महाराष्ट्र में बारिश नहीं हुई, वहीं असम में जोरदार बारिश से बाढ़ आ गई। इस तरह से मॉनसून के मिजाज में व्यापक अंतर भी देखने को मिल रहा है। मौसम विभाग ने इस साल मानसून सामान्य रहने का अनुमान जताया है लेकिन अब सामान्य की परिभाषा पर फिर से गौर करना होगा, क्योंकि मानसून के मिजाज में अलग-अलग क्षेत्रों में व्यापक बदलाव देखने को मिल रहा है।
शर्मा ने कहा कि मॉनसून की तर्ज में बदलाव का सबसे ज्यादा असर किसानों पर ही पड़ता है जिसका असर अंततः खाद्य सुरक्षा पर पड़ता है। हम यह सोचते हैं कि वैश्विक खाद्य आपूर्ति श्रंखला से हम अपने यहां मानसून की अनिश्चितता के कारण उत्पन्न संकट को संभाल सकते हैं लेकिन यह खाम खयाली से ज्यादा कुछ नहीं है। जो देश खाद्य आयात पर निर्भर करते हैं वे भविष्य में वर्तमान जैसी स्थितियों के आगे टिक नहीं पाएंगे। रूस-युक्रेन युद्ध ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि देश वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर निर्भर नहीं कर सकते बल्कि उन्हें अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर बनना ही पड़ेगा।
काउंसिल फॉर एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वॉटर के रिस्क एंड एडेप्टेशन कार्यक्रम के प्रमुख अबिनाश मोहंती ने कहा कि मानसून के लिहाज से भारत के 75% जिले हॉटस्पॉट हैं और उनमें से 40% में मानसून का रुख बदलता रहता है, लिहाजा मानसून के ढर्रे में काफी अनिश्चितताए हैं। आर्थिक नजरिए से देखें तो मानसून की इन अनिश्चितताओं की वजह से 89.7 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है। अगर हमने अच्छी अनुकूलन क्षमता विकसित की होती तो इस नुकसान को होने से रोका जा सकता था।
उन्होंने कहा कि जहां तक क्लाइमेट वल्नरेबलटी इंडेक्स का सवाल है तो इसे पिछले साल नवंबर में ग्लासगो में आयोजित सीओपी26 से पहले जारी किया गया था। अगर हम इसे राज्य स्तर पर देखें तो 27 राज्य मानसून की अनिश्चितता के खतरे से घिरे हैं और 463 जिले तथा 638 मिलियन से ज्यादा लोग मानसून से जुड़े जोखिम का सामना कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि हर 10 में से आठ भारतीय इस जोखिम के साए में जी रहे हैं।
मोहंती ने कहा कि हम भारतीय साइक्लोन, बाढ़, सूखे और अत्यधिक बारिश समेत विभिन्न खतरों से जूझ रहे हैं। हमारे 45% लैंडस्केप उजड़ रहे हैं। यह बहुत बड़ा आंकड़ा है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ लैंडस्केप के उजड़ने की वजह से भी माइक्रो क्लाइमेटिक बदलाव हो रहे हैं
उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के किसी भी जोन में उच्च अनुकूलन क्षमता नहीं है। भारत के छह में से पांच जोन में तीव्र प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की कम क्षमता है। इन आपदाओं में अत्यधिक बारिश भी शामिल है। अनुकूलन क्षमता दरअसल पाठ्य पुस्तकों से मिलने वाले इंजीनियरिंग के ज्ञान पर आधारित नहीं हो सकती।
इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस स्थित भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में रिसर्च डायरेक्टर तथा आईपीसीसी के मुख्य लेखक डॉक्टर अंजल प्रकाश ने कहा कि बारिश के पैटर्न में जिस तरह से बदलाव हो रहा है, उसके मद्देनजर कृषि क्षेत्र के लिए हालात बहुत खराब होते जा रहे हैं। इसकी वजह से लोग दूसरे स्थानों पर पलायन कर रहे हैं। इस समस्या के समाधान के लिए अनुकूलन क्षमता को बढ़ाना होगा। साथ ही साथ नई फसलों का चयन करना होगा जो बदलते हुए मौसम में भी पैदा की जा सकें। बारिश की अवधि में होने वाले बदलावों के हिसाब से फसली सत्र भी आगे पीछे खिसकाया जाना चाहिए।
मॉनसून की अनिश्चितता की व्यापकता पर ध्यान दिलाते हुए डॉक्टर प्रकाश ने कहा “मुझे ऐसा लगता है कि समस्या बहुत बड़ी है लेकिन उसे लेकर सरकार की जो प्रतिक्रिया है वह पर्याप्त नहीं है। हमें जलवायु परिवर्तन के लिए एक अलग मंत्रालय की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नई तरह की कार्यकुशलता और तकनीकी जानकारी की जरूरत है। मगर अफसोस, मौजूदा वक्त में यह पर्याप्त रूप से उपलब्ध नहीं है।”
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के राष्ट्रीय मौसम पूर्वानुमान प्रभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर आर. के. जेनामणि ने कहा कि मानसून के सालाना चक्र में होने वाले बदलावों के कारण कभी किसी साल ज्यादा बारिश होती है तो कभी अप्रत्याशित रूप से सूखा पड़ता है। ऐसा आमतौर पर समुद्र की सतह के तापमान में होने वाले बदलावों के कारण होता है।
उन्होंने कहा कि भारत की कृषि अर्थव्यवस्था अब भी काफी हद तक मानसून पर निर्भर करती है। ऐसे में मौसम का बदलता ढर्रा देश के कृषि तंत्र के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है।
हालांकि भारत में लगातार चौथे साल भी वर्षा सामान्य रहने की संभावना है मगर बारिश का स्थानिक वितरण होना भी जरूरी है। बदलती हुई जलवायु के साथ फसलों का स्वरूप भी बदला जा रहा है और अब किसान परंपरागत उपज के बजाय नकदी फसलें उगाने को तरजीह दे रहे हैं।
इस साल अत्यधिक गर्मी पड़ने और मानसून के देर से आने के साथ-साथ उमस बढ़ने के चलते वेट बल्ब तापमान में वृद्धि होगी जो मार्च से मई के बीच पड़ी सूखी हीटवेव के मुकाबले कहीं ज्यादा खतरनाक होगी। जहां गर्मी की वजह से भारत में श्रम करने के घंटों पर असर पड़ा है, वहीं उच्च वेट बल्ब तापमानों से मृत्यु दर पर भी प्रभाव पड़ सकता है।
विशेषज्ञ यह चेतावनी दे रहे हैं कि गर्म और अधिक उमस वाले पर्यावरण में फसलों में लगने वाले रोग तथा विभिन्न प्रकार के कीट लगने की घटनाएं भी बढ़ गई हैं। अपनी फसलों को बचाने के लिए किसान अत्यधिक मात्रा में कीटनाशक और रसायनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे न सिर्फ संपूर्ण उपज पर असर पड़ रहा है बल्कि खाद्य पदार्थ की गुणवत्ता भी बुरी तरह प्रभावित होती है। हाल ही में ईरान और ताइवान में कथित रूप से भारत से भेजी गई चाय को लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उसमें अनुमन्य मात्रा से ज्यादा कीटनाशक और रसायन पाए गए थे।

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