माहवारी में सामाजिक कुरीतियों का दर्द सहती किशोरियां — मंजू धपोला

माहवारी में सामाजिक कुरीतियों का दर्द सहती किशोरियां — मंजू धपोला

कपकोट, बागेश्वर उत्तराखंड——– किसी भी देश का डिजिटल रूप से लैस और तकनीकी रूप से विकसित होना 21वीं सदी की खासियत है. आकाश से लेकर पाताल तक की गहराइयों को नाप लेने की क्षमता भारत ने भी विकसित कर ली है. यही कारण है कि भारत के वैज्ञानिकों और तकनीकी रूप से दक्ष लोगों की दुनिया भर में डिमांड है. सोशल मीडिया के लगभग सभी बड़े प्लेटफॉर्म की कमान भारतियों के हाथों में नज़र आती है. लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि इतनी उपलब्धियां पाने के बाद भी आज लोगों के जेहन से हम माहवारी जैसे विषय में बनी गलत अवधारणाएं मिटा नहीं सके हैं. अब भी समाज के द्वारा इसे एक अछूत शब्द से व्यक्त किया जाता है और इस दौरान किशोरियों और महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है. शहरों की अपेक्षा यह अवधारणा ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत अधिक गहरी नज़र आती है. अफ़सोस की बात यह है कि इस देश में कई प्रकार की योजनाएं चलाई गई हैं, परन्तु माहवारी से जुड़ी लोगो की गलत अवधारणाओं को मिटाने वाली आज तक कोई योजना उपलब्ध नहीं हुई है.

देश के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों की तरह उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित कपकोट ब्लॉक के कई गांव इसी प्रकार की मान्यताओं और अवधारणाओं से ग्रसित हैं. जहां आज भी माहवारी को अभिशाप समझा जाता है और इस दौरान किशोरियों से लेकर महिलाओं तक को शारीरिक और मानसिक यातनाओं से गुज़रना होता है. उन्हें माहवारी के दौरान घर से बाहर गौशाला में रहना पड़ता है. जहां किसी प्रकार की कोई सुविधा नहीं होती है. इस संबंध में जगन्नाथ गांव की रहने वाली किशोरी रेनू अपना अनुभव साझा करते हुए कहती है कि “गौशाला पास हो या दूर, वहां लाईट हो या ना हो, गाय मारती हो या ना मारती हो, लेकिन हमें माहवारी के दौरान पूरा समय वहीं गुज़ारना होता है. इसके साथ ही सुबह 4 बजे उठकर नदी पर स्नान करने जाना पड़ता है, फिर मौसम चाहे गर्मी की हो या ठंड की, बालिका छोटी हो या बड़ी, वह नदी घर से दूर ही क्यों न हो. हमें वहीं जाकर स्नान करना पड़ता है”
वहीं जकथाना गांव की रहने वाली और कस्तूरबा गांधी इंटर कॉलेज, कपकोट की 16 वर्षीय छात्रा माला दानू माहवारी के समय किये जाने वाले व्यवहार पर अपना अनुभव साझा करते हुए कहती है कि “इस दौरान उसे पेट में बहुत दर्द होता है, लेकिन वह शर्म से इसे किसी के साथ साझा नहीं कर पाती है और चुपचाप इसे सहती है. यहां तक कि उसे घर की महिला सदस्यों द्वारा भी किसी प्रकार का कोई मार्गदर्शन नहीं किया जाता है.” माला कहती है कि माहवारी के दौरान जब सुबह सवेरे उसे अकेले नदी पर जाना होता है तो उसे बहुत डर लगता है, इसके बावजूद वह जाने को मजबूर है. इसी गांव की रहने वाली 18 वर्षीय भावना कहती है कि माहवारी के दौरान उन्हें न केवल अकेले गौशाला में रहना पड़ता है बल्कि इस दौरान उन्हें किसी भी चीज़ को छूने की इजाज़त नहीं होती है, जिससे उसे बहुत बुरा लगता है.
माहवारी के दौरान किशोरियों को न केवल शारीरिक और मानसिक रूप से कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है बल्कि इस दौरान उनकी शिक्षा भी प्रभावित होती है. इस संबंध में पोथिंग गांव स्थित प्राथमिक विद्यालय, उछाट की शिक्षिका नीलू शाह बताती हैं कि माहवारी के दौरान किशोरियों की शिक्षा पर सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. उनका स्कूल आना भी छूट जाता है, जिससे वह पढाई में पिछड़ जाती हैं. कई बार किशोरियां केवल इस डर से स्कूल छोड़ देती हैं कि कहीं अचानक महावारी शुरू हो गई तो गड़बड़ हो जाएगी और फिर सब उसे ही कोसेंगे. परिवार की महिलाएं भी ऐसे समय उनका साथ देने की जगह उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करेंगी, जिससे घबराकर कई बार किशोरियां स्कूल आना ही छोड़ देने में भलाई समझती हैं. जो एक प्रकार से उनके साथ अत्याचार है.
दरअसल माहवारी के दौरान किशोरियों और महिलाओं के साथ होने वाली यह अमानवीय कृत्य सदियों से चली आ रही मान्यताएं और असाक्ष्य अवधारणाओं की देन है. जिसे आस्था का नाम देकर पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को मानने पर मजबूर कर देता है. स्थानीय लोगों के अनुसार उनकी ईश्वर के प्रति आस्था है और यदि उन्हें माहवारी के दौरान इन कुरीतियों का पालन नहीं किया तो ईश्वर उनसे रूठ जाएंगे, जिससे उनको या उनके परिवार को हानि भी हो सकती है. आश्चर्य की बात यह है कि इस प्रकार की सोच और गलत अवधारणाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने में स्वयं स्थानीय महिलाएं होती हैं. जो आस्था का हवाला देकर किशोरियों को सख्ती से इस पर अमल करने पर मजबूर करती हैं. इस संबंध में खाईबगड़ गांव की बुज़ुर्ग मालती देवी माहवारी के दौरान किशोरियों और महिलाओं को घर से अलग गौशाला में रहने को मजबूर करना उचित मानती हैं. वह इसे परंपरा और आस्था से जुड़ा हुआ मुद्दा मानती हैं. उनके अनुसार यहां की परंपरा है, जिसे छोड़ा नहीं जा सकता है. उन्होंने कहा कि यदि हमने ऐसा किया तो हम पर कोई मुसीबत आ जाएगी और भगवान रुष्ट हो जायेंगे. जिसका भयंकर परिणाम पूरे परिवार और गांव को भुगतना पड़ सकता है.

किंतु ऐसी अमानवीय परंपरा को निभाते समय समाज यह नहीं सोचता कि इस दौरान होने वाली तकलीफ़ में किशोरियों को किस दर्द से गुजरना पड़ता है. यह वह अवस्था है जब एक तरफ उसे अत्यधिक रक्तस्राव और पेट में मौत सा दर्द उठता है तो वहीं दूसरी ओर शरीर में होने वाले परिवर्तन से वह मानसिक रूप से परेशान रहती है. कभी कभी तो उचित पोषण के अभाव में कुछ किशोरियां अत्यधिक और असहनीय दर्द के कारण बेहोश भी हो जाती हैं. इस दौरान जब उसे अपने परिवार की अत्यधिक आवश्यकता होती है, तब उसके साथ कोई नहीं होता है. इससे एक किशोरी बालिका की सेहत तथा उसके मस्तिष्क पर कितना बुरा असर पड़ता होगा, शायद ही किसी ने इसकी कल्पना की होगी.
सवाल यह उठता है कि असुरक्षा के डर से समाज लड़कियों को स्कूल भेजने पर पाबंदी तो लगा देता है, परंतु दिसंबर और जनवरी की कपकपाती ठंड में भी सुबह 4 बजे उसे लड़कियों को अकेले नदी पर भेजने से कोई आपत्ति क्यों नहीं होती है? उस समय उसे लड़की की सुरक्षा का ख्याल क्यों नहीं आता है? जबकि इस दौरान उसके साथ किसी प्रकार की अनहोनी होने का सबसे अधिक खतरा रहता है. दरअसल अंधविश्वास और अमानवीय अवधारणाओं से घिरा हमारा समाज इतना संकुचित हो चुका है कि वह अपनी बच्ची की सेहत या उसकी सुरक्षा को भी दांव पर लगाना धर्म का काम समझता है. ऐसे में ज़रूरत है लोगों को जागरूक करने की. उन्हें यह बताने की आवश्यकता है कि यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि प्राकृतिक परिवर्तन मात्र है.

(लेखिका कस्तूरबा गांधी बालिका आवासीय विद्यालय, कपकोट में 11वीं की छात्रा है)

(चरखा फीचर)

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