- March 16, 2016
पहले जरूरतों का ख्याल बाद में मनोरंजन की बात – डॉ. दीपक आचार्य
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आदमी की बुनियादी सुख-सुविधाओं और क्षेत्र की आधारभूत जरूरतों के बारे में चिन्तन और कार्य सबसे पहले होना चाहिए। इसके बाद सारे दूसरे काम।
जहाँ जरूरतों को प्राथमिकता दी जाती है वहाँ मनोरंजन भी अपने उद्देश्यों में सफल होता है और इसका प्रभाव जनमानस बहुत बाद तक अनुभव करता है।
दूसरी स्थिति में जहाँ मनोरंजन को प्रधानता देकर आदमी के जीवनयापन के लिए जरूरी सुख-सुविधाओं और क्षेत्र की जरूरतों की उपेक्षा की जाती है वहाँ कर्ता-धर्ता स्वयं मनोरंजन हो जाते हैं और वे अपशय के भागी होते हैं क्योंकि इंसान की जरूरतों का जो ख्याल नहीं करता है, मनोरंजन में ही रमा रहता है उसे बददुआओं की प्राप्ति हमेशा होती रहती है।
जरूरतों की पूर्ति नहीं हो पाने से दुःखी, खिन्न और आक्रोशित लोग हमेशा उन लोगों को दिल से कोसते रहते हैं जिनके जिम्मे यह सब कुछ होता है। हर तरफ प्रयास यह होना चाहिए कि इंसान को सामान्य जीवनयापन में कहीं कोई दिक्कत न हो, कोई पीड़ा या परेशानी न हो तथा यह भाव पैदा न हो कि इन अभावों की वजह से जिन्दगी काटना मुश्किल हो गया है।
जब-जब भी अभावों और परिपूर्णता के बीच खाई बढ़ती जाती है वहां न किसी को आनंद आता है, न मनोरंजन का सुकून मिल सकता है। ऎसा मनोरंजन और लोकानुरंजन किस काम का, जिसमें हमारे बंधु और भगिनियां अभावों में जीने को विवश हों, और हम गुलछर्रे उड़ाते हुए मौज-मस्ती का आनंद लूटते रहें और इसी के सहारे भ्रमित करते रहें।
जीवन का हर कर्म तभी उपलब्धि और आनंद दे सकता है जब कर्तव्य कर्म और जरूरतों की पूर्ति जीवन और जगत दोनों में ही प्राथमिकता पर हों, और जीवनयापन में संतोष व तृप्ति का भाव। इसके बगैर किसी भी प्रकार का मनोरंजन आनंददायी नहीं हो सकता चाहे इसे सुनने देखने वाले श्रोता-दर्शक और रसिक हों अथवा सूत्रधार।
हम सभी मनोरंजन के ढेरों संसाधन अपनाते हैं, भोग-विलासी साधनों में रमे रहते हैं, उत्सवी आयोजनों में भागीदार बनते हैं। इसके बावजूद हमें इच्छित आनंद की प्राप्ति नहीं हो पाती। हर प्राप्य आनंद में हमें किसी न किसी बात की कमी अखरती है और तृप्त नहीं हो पाते। इसलिए बार-बार आनंद पाने के लिए उत्सवधर्मिता की तलाश बनी रहती है जो जीवन के अंतिम पल तक खत्म नहीं हो पाती।
हम सभी को जीवन में अधूरेपन का अहसास होता है, हमेशा यह कुलबुलाहट और उद्विग्नता बनी रहती है कि जीवन में कहीं कुछ तो है जो कि न आनंद दे पा रहा है, न तृप्ति। इसका मूल कारण खोजा जाए तो यही सामने आएगा कि हमने जीवन में आरामतलबी, भोग-विलास और मनोरंजन को प्रधानता दे रखी है।
इससे हमारे जीवन, परिवेश, समाज, संस्थान, क्षेत्र और देश से जुड़े सरोकार गौण हो गए हैं। इस वजह से आधारहीन मनोरंजन हावी हो रहा है जो भरपूर प्रयासों के बाद भी हमें आनंदित रख पाने की स्थिति में नहीं है।
हम सभी ने चकाचौंध, भौतिक विलासिता और सौन्दर्य दर्शन को ही प्रगति मान लिया है। हमें भूखे-प्यासे लोग, मवेशी, अभावों में जी रहे परिवार, छत से वंचित कुटुम्ब, आजीविका के आधारों से वंचित जन और समस्याओं तथा दुःखों से परेशान लोग नहीं दिखते, उनके अभावों के जानने-समझने की कोशिश हमने कभी नहीं की।
जब तक समाज और क्षेत्र में अभावों से जूझ रहे लोगों को मदद नहीं मिले, उन्हें सामान्य जीवन निर्वाह में परेशानियों का सामना करना पड़े, तब तक हमारे सारे मनोरंजन बेमानी हैं चाहे हम किसी भी स्तर के तथाकथित इंसान क्यों न हों।
इंसान के मन में इंसान के लिए संवेदनाएं न हों, दूसरे की पीड़ाओं, वेदनाओं और अभावों को समझ पाने की क्षमताएं न हों, अपनी ही अपनी चवन्नियां चलाते रहने और टाइमपास करने का भाव हो, खुद के घर और बैंक बेलेंस भरने की ही तड़फन लगी रहे, अपने आपको अपने इलाके का महानतम, प्रतिष्ठित और नियंता समझने का भ्रम पाले हुए हों, तब समझ लें कि हमारा समय खत्म होने की ओर अग्रसर है और एक बार यह सुनहरा समय खत्म हो गया तो फिर पछताने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। और लोग लम्बे समय तक कोसते रहेंगे सो अलग। मौका है सुधर जाएं वरना ऊपरवाला सब कुछ बिगाड़ देगा जिसे अपनी पीढ़ियां तक सुधार नहीं पाएंगी।