नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति : ‘एक जैसे शिक्षक और एक जैसी शिक्षा’— आशुतोष कुमार

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति : ‘एक जैसे शिक्षक और एक जैसी शिक्षा’— आशुतोष कुमार

भारत के राष्ट्रपति, महान दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस को 5 सितम्बर को पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गयी है, इसको लेकर देश में शिक्षा एवं शिक्षक पर व्यापक चर्चा आरंभ हो गई है।

भारत की नई शिक्षा नीति में शिक्षा व्यवस्था के अलावा शिक्षकों की योग्यता एवं गुरुता पर विशेष ध्यान दिया गया है। पूरे देश में ‘एक जैसे शिक्षक और एक जैसी शिक्षा’ पॉलिसी पर काम किया जाएगा। शिक्षक दिवस एक अवसर है जब हम इस वर्ष शिक्षा को परिष्कृत करनेे और जिम्मेदार व्यक्तियों का निर्माण करने में शिक्षकों के प्रयासों और कड़ी मेहनत की सराहना और स्वीकार करने के अवसर के रूप में यह दिवस मनायेंगे। इस दिवस का मुख्य उद्देश्य एक छात्र की जिंदगी में शिक्षकों के महत्व को रेखांकित करना है। यह शिक्षकों के योगदान के प्रति आभार जताने के साथ उनकी धुंधलाती भूमिका पर गहन चिन्तन-मनन का दिन भी है।

वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका भले ही बदली हो, लेकिन उनका महत्व एवं व्यक्तित्व-निर्माण की जिम्मेदारी अधिक प्रासंगिक हुई है। क्योंकि सर्वतोमुखी योग्यता की अभिवृद्धि के बिना युग के साथ चलना और अपने आपको टिकाए रखना अत्यंत कठिन होता है। फौलाद-सा संकल्प और सब कुछ करने का सामथ्र्य ही व्यक्तित्व में निखार ला सकता है। शिक्षक ही ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं। महात्मा गांधी के अनुसार सर्वांगीण विकास का तात्पर्य है- आत्मा, मस्तिष्क, वाणी और कर्म-इन सबके विकास में संतुलन बना रहे। स्वामी विवेकानंद के अनुसार सर्वांगीण विकास का अर्थ है- हृदय से विशाल, मन से उच्च और कर्म से महान। सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास हेतु शिक्षक आचार, संस्कार, व्यवहार और विचार- इन सबका परिमार्जन करने का प्रयत्न करते रहते थे। इन्हीं सब चर्चाओं के मध्य हम देखेंगे कि 1986 की शिक्षा नीति में ऐसी क्या कमियाँ रह गई थीं जिन्हें दूर करने के लिये नई राष्ट्रीय शिक्षा नति को लाने की आवश्यकता पड़ी। साथ ही क्या यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति उन उद्देश्यों को पूरा करने में सक्षम होगी जिसका स्वप्न महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद ने देखा था? सबसे पहले ‘शिक्षा’ क्या है इस पर गौर करना आवश्यक है। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ होता है सीखने एवं सिखाने की क्रिया परंतु अगर इसके व्यापक अर्थ को देखें तो शिक्षा किसी भी समाज में निरंतर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है जिसका कोई उद्देश्य होता है और जिससे मनुष्य की आंतरिक शक्तियों का विकास तथा व्यवहार को परिष्कृत किया जाता है। शिक्षा द्वारा ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि कर मनुष्य को योग्य नागरिक बनाया जाता है।

यह सर्वविदित है कि इंसान के जीवन को बल्कि समूची दुनिया को सँवारने में शिक्षक एक बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सफलता प्राप्ति के लिये वे हर विद्यार्थी की कई प्रकार से मदद करते हैं जैसे ज्ञान, कौशल के स्तर, विश्वास आदि को बढ़ाते हैं तथा जीवन को सही आकार में ढ़ालते है। अतः अपने निष्ठावान शिक्षक के लिये हर विद्यार्थी की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। हम सभी को एक आज्ञाकारी विद्यार्थी के रूप में अपने शिक्षक का दिल से अभिनंदन करने की जरूरत है और जीवनभर अध्यापन के अपने निःस्वार्थ सेवा के लिये साथ ही अपने अनगिनत विद्यार्थियों के जीवन को सही आकार देने के लिये उन्हें धन्यवाद देना चाहिये। ताकि शिक्षक समाज के प्रति अपनी विशिष्ट जिम्मेदारी का निर्वाह पूरी तत्परता के साथ करते रहें। इस मौके पर देशभर में छात्र-छात्राओं द्वारा शिक्षकों के अपने जीवन में योगदान को याद किया जाता है। उनके योगदान और प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया कहा जाता है। यानि यह दिन है अपने शिक्षकों को थैंक्यु कहने और उनके योगदान के प्रति आभार जताने का।

भारत के मिसाइल मैन, पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा है कि अगर कोई देश भ्रष्टाचार मुक्त है और सुंदर दिमाग का राष्ट्र बन गया है, तो मुझे दृढ़ता से लगता है कि उसके लिये तीन प्रमुख सामाजिक सदस्य हैं जो कोई फर्क पा सकते हैं वे पिता, माता और शिक्षक हैं।” डाॅ. कलाम की यह शानदार उक्ति प्रत्येक व्यक्ति के दिमाग में आज भी गूंज रही हैं। यह उद्धरण संपूर्ण रूप से प्रत्येक व्यक्ति के दिमाग और समाज पर शिक्षकों के प्रभाव का प्रतीक है। नेतृत्व के रूप में माता-पिता के तुरंत बाद में खड़ा होना वाले शिक्षक वास्तव में हर किसी के जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा होता है। वे व्यक्ति की प्रतिभा और उनकी क्षमताओं को एक सांचे में ढालते हैं और विकसित करते हैं।

शिक्षकों पर इस दुनिया में सबसे प्रेरक काम और एक बड़ी जिम्मेदारी है। शिक्षक ज्ञान का भंडार हैं जो अपने शिष्यों को अपना ज्ञान देने में विश्वास करते हैं जिससे उनके शिष्य भविष्य में दुनिया को बेहतर बनाने में सहायता कर सकेंगे। इससे ऐसी पीढ़ी निर्मित होगी जो उज्ज्वल और बुद्धिमान हो तथा वह जो दुनिया को उसी तरीके से समझे जैसी यह है और जो भावनाओं से नहीं बल्कि तर्क और तथ्यों से प्रेरित हो। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार, शिक्षक देश के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इसी वजह से वे अधिक सम्मान के योग्य होते हैं।’ इन सन्दर्भों में नई शिक्षा नीति में शिक्षक के गुरुतापूर्ण पद के लिये प्रयत्नों की अपेक्षा है, ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है कि शिक्षक के लिये शिक्षा व्यवसाय न होकर एक मिशन हो।

एक शिल्पकार प्रतिमा बनाने के लिए जैसे पत्थर को कहीं काटता है, कहीं छांटता है, कहीं तल को चिकना करता है, कहीं तराशता है तथा कहीं आवृत को अनावृत करता है, वैसे ही हर शिक्षक अपने विद्यार्थी के व्यक्तित्व को तराशकर उसे महनीय और सुघड़ रूप प्रदान करतेे हैं। हर पल उनकी शिक्षाएं प्रेरणा के रूप में, शक्ति के रूप में, संस्कार के रूप में जीवंत रहती हैं। हर शिक्षक अपने विद्यार्थी की निषेधात्मक और दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके नया जीवन प्रदान करता है। वरुण जल का देवता होता है। जैसे जल वस्त्र आदि के मैल को दूर करता है, वैसे ही शिक्षक विद्यार्थी की मानसिक कलुषता को दूर कर सद्संस्कारों का बीजारोपण करता है एवं उसके व्यक्तित्व को नव्य और स्वच्छ रूप प्रदान करता है। चन्द्रमा सबको शांति और आह्लाद प्रदान करता है, वैसे ही शिक्षक की प्रेरणाएं विद्यार्थी को मानसिक प्रसन्नता और परम शांति देती है। महान् दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में -‘व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य अत्यन्त कठिन है। निःस्वार्थी और जागरूक शिक्षक ही किसी दूसरे व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है।’ हमने सुपर-30 फिल्म में एक शिक्षक के जुनून को देखा। इस फिल्म में प्रो. आनन्द के शिक्षा-आन्दोलन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुति दी गयी है।

अनेकानेक विशेषताओं के बावजूद आज शिक्षक का पद धुंधला रहा है। जैसाकि महात्मा गांधी ने कहा था-एक स्कूल खुलेगी तो सौ जेलें बंद होंगी। पर आज उल्टा हो रहा है। स्कूलों की संख्या बढ़ने के साथ जेलों के स्थान छोटे पड़ रहे हैं। जेलों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ रही है। स्पष्ट है- हिंसा और अपराधों की वृद्धि में वर्तमान शिक्षा प्रणाली एवं शिक्षक भी एक सीमा तक जिम्मेदार है। अशिक्षित और मूर्ख की अपेक्षा शिक्षित और बुद्धिमान अधिक अपराध कर रहे हैं। वह अपने पापों और दोषों पर आवरण डालने हेतु अधिक युक्तियां सोच सकते हंै। इस स्थिति के लिये शिक्षक ही जिम्मेदार है। इसी प्रकार उदारता शिक्षा का श्रंृगार है, पर आज देखा जा रहा है कि नयी पीढ़ी में विद्यार्थी-जीवन से ही ईष्र्या के विषैले कीटाणु उत्पन्न हो जाते हैं। इसका परिणाम समाज की सभी व्यवस्थाओं पर व्यापक रूप से देखा जा सकता है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में आज जो तनाव, टकराव और बिखराव की घटनाएं घटित हो रही हैं, उसके मूल में संकीर्णता और ईष्र्या की मनोवृत्ति भी एक बड़ा कारण है। व्यक्तित्व का टकराव भी इसी कारण बढ़ रहा है। क्या कारण है कि नयी पीढ़ी के निर्माण में ऐसी त्रुटियां हो रही है? शिक्षक क्यों नहीं एक सर्वांगीण गुणों वाली पीढ़ी का निर्माण कर पा रहे हैं? इन स्थितियों को देखते हुए नई शिक्षा नीति में शिक्षक की भूमिका को लेकर व्यापक मंथन एवं चिन्तन किया जाना चाहिए।

‘सा विद्या या विमुक्तये’, यह भारतीय शिक्षा जगत का प्रमुख सुभाषित है। देश के हजारों सरस्वती-केन्द्रों की दीवारों पर पवित्र मंत्र के रूप में इसे बड़े-बड़े अक्षरों में अंकित किया गया है। इस सुभाषित के अनुसार सच्ची शिक्षा वह है जो विद्यार्थी को नकारात्मक भावों और प्रवृत्तियों के बंधनों से मुक्ति प्रदान करती है।

चिंता का विषय है कि भारत के शिक्षक ही आज इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसा लगता है, मानो उनका लक्ष्य केवल बौद्धिक विकास ही है। अब शिक्षक के लिये शिक्षा एक मिशन न होकर व्यवसाय हो गयी है। इन स्थितियों से शिक्षकों को बाहर निकलने में नई शिक्षा नीति से बहुत अपेक्षाएं है।

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