कोरोना के नाम पर आत्मनिर्भरता या मज़दूर बन रहे हैं ‘गुलाम’ —-मुरली मनोहर श्रीवास्तव

कोरोना के नाम पर आत्मनिर्भरता या मज़दूर बन रहे हैं ‘गुलाम’ —-मुरली मनोहर श्रीवास्तव

किसी भी देश का विकास देश के कृषकों और मजदूर पर निर्भर होती है। जिस प्रकार मकान बनाने में मजबूत नींव की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मजदूरों की भूमिका किसी समाज, देश, उद्योग, संस्था, व्यवसाय को खड़ा करने में महत्वपूर्ण होती है। मगर देश में मजदूरों के कार्य करने के घंटों के बढ़ने को लेकर विरोध के स्वर भी गुंजने लगे हैं। कोरोना संक्रमण के इस दौर में पूरी दुनिया तबाह है, बस जिंदगी को बचाने की जद्दोजहद जारी है। क्योंकि बाजारों के बंद होने, फैक्ट्री के प्रोडक्शन नहीं होने की वजह से आर्थिक संकट की स्थिति भयावह होती जा रही है। इंसान की जिंदगी को सुरक्षित रखने के लिए देश को भी लॉकडाउन किय़ा गया है। मगर कामगारों के 12 घंटे काम करने को लेकर विवाद पनपने लगा है।

बिहार में श्रमिक क़ानून में बदलाव से बिहार का उद्योग जगत काफी उत्साहित है और इसे बड़ा क़दम मान रहा है। वो इस बदलाव के पीछे बिहार में निवेश के लिए रास्ता खोलना मान रही हैं वहीं 8 घंटे की बजाए 12 घंटा कार्यदिवस पर एक्टू विरोध जता रहा है।

12 घण्टा कार्यदिवस अमानवीय कदमः

ऑल इंडिया सेंट्रल कॉन्सिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स (ऐक्टू) का आरोप है कि लॉकडाउन के बहाने कॉरपोरेट्स के हित में श्रम कानूनों को निलंबित और कमजोर किए जाने के खिलाफ ऑल इंडिया सेंट्रल कॉन्सिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स (ऐक्टू) अखिल भारतीय प्रतिवाद के रुप में विरोध जताया। इनका कहना है कि देश को आत्मनिर्भर बनाना है, लेकिन दूसरी ओर मज़दूरों के लिए कार्यदिवस 12 घण्टे कर दिया जाना उन्हें गुलाम बनाने की साजिश है।

कोरोना के नाम पर देश को आत्मनिर्भर तो नहीं, मज़दूरों को गुलाम जरुर बनाने का षड्यंत्र जारी है। खेग्रामस के महासचिव धीरेन्द्र झा कहना है कि अगर देश के मज़दूरों को गुजारा भत्ता नही दिया जाता, लॉकडॉन अवधि की मज़दूरी नही मिलती और छह महीने का राशन का इंतज़ाम नही होता, तो यही समझा जाएगा कि यह पैकेज नहीं छलावा है। वहीं रसोइया संघ की नेता सरोज चौबे ने कहा कि यह श्रम अधिकारों का निलंबन नहीं है, बल्कि कॉर्पोरेट के दवाब में विभिन्न राज्य की सरकारें लम्बी लड़ाई के बाद हासिल मजदूरों के अधिकार को एकदम से खत्म करके उन्हें गुलाम बनाने की दिशा में बढ़ रही है।

मज़दूरों को ये अधिकार हमारे देश का संविधान देता है, लेकिन उसकी लगातार धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। 12 घण्टे कार्यदिवस एकदम से अमानवीय कार्रवाई है, इसे वापस लेना होगा।

वहीं दूसरी तरफ बिहार  सरकार ने श्रमिक कानून में बड़ा संशोधन करते हुए फैसला लिया है कि प्रदेश में अब श्रमिक 8 घंटे के बजाय 12 घंटा तक काम कर सकते हैं। श्रम मंत्री विजय सिन्हा का कहना है कि श्रमिकों के अधिक समय तक काम करने पर श्रमिकों को कम्पनियां अतिरिक्त मेहनताना भी देंगी। कानून में  इस बदलाव को जहां निवेशकों के लिए फायदे की बात कही जा रही है वहीं श्रमिकों को भी इसका आर्थिक लाभ मिलेगा।

श्रम कानून में बदलावः

बिहार में जो श्रम क़ानून में बदलाव हुआ उसके मुताबिक कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 5 और 62 (2) के द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग में लाते हुए राज सरकार में निबंधित सभी कारखानाओं के लिए राजपत्र में  प्रकाशित होने की तीन माह के लिए धारा 65 की उप धारा 3 की कंडिका एक एवं तीन में प्रावधानों में निम्न छूट दिया जाना है। साथ ही प्रत्येक कर्मकार को अतिकाल कार्य हेतु कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 59 के प्रावधान अनुसारअतिरिक्त अवधि का नियमानुसार भुगतान किया जाएगा। इस कानून के लागू होने के साथ ही सरकार को यह पूरा भरोसा है कि सूबे में बड़े पैमाने पर कंपनियां आएंगी और बिहार में आर्थिक संकट दूर हो सकेगा साथ ही देश आर्थिक रुप से मजबूत हो सकेगा।

श्रम बेचकर रोजगार कमाता है मजदूरः

अगर हम मजदूरों की बात करें तो श्रमिक अपनी शक्ति को बेचकर कोई भी व्यक्ति अपना रोजगार कमाता है, वह मजदूर होता है। लेकिन मजदूरों के अधिकारों से संबंधित देश के राज्य के कानून इस परिभाषा को नहीं मानते हैं। यही वजह है कि बड़ी संख्या में मजदूर अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। वेतनभोगी मजदूर कोई गुलाम नहीं है।

वेतनभोगी मजदूर दिन के कुछ निर्धारित घंटों के लिये अपनी श्रम शक्ति को बेचता है। अतः काम के घंटों पर सख्त, कानून से निर्धारित सीमा और साप्ताहिक अवकाश सभी वेतनभोगी मजदूरों का अधिकार है, चाहे वह उत्पादन में काम करता हो या हिसाब-किताब करने में या बिक्री विभाग में। 

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