• December 26, 2015

कहीं खो गए हैं सादा जीवन-उच्च विचार – डॉ. दीपक आचार्य

कहीं खो गए हैं  सादा जीवन-उच्च विचार  – डॉ. दीपक आचार्य

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 हमारी सारी बुनियादें अब हिलती हुई नज़र आ रही हैं। और इसी का परिणाम है कि हम सारे के सारे लोग अपनी जड़ों और मिट्टी से कटते हुए हवाओं के भरोसे हो चले हैं, जिन हवाओं पर कभी भी आँख मींच कर कोई भरोसा नहीं कर सकता।

न ये हवाएं भरोसे काबिल हैं, न ये जमाना। जो अब भी जमीन से जुड़े हुए हैं वे अपने आपका वजूद मजबूत मान सकते हैं। जिन लोेगों ने मिट्टी से बगावत कर ली है उनके बारे मेंं कभी कुछ नहीं कहा जा सकता है।

जो अपनी माटी की सौंधी गंध पर फिदा रहते हैं उनकी कभी मिट्टी पलीत नहीं हो सकती। यह सौंधी गंध ही है जो उन्हें हमेशा अपनेपन का अहसास कराती है, आत्मीयता भरा सुकून देती है और मौलिक-नैसर्गिक स्नेहपूर्ण आँचल से कसकर बाँधे रखती है।

इंसान ने जब तक अपने आपको प्रकृति और जीवन के मौलिक तत्वों से जोड़े रखा तब तक वह आनंद के अतिरेक और उल्लास में नहाता रहा, आनंद भाव में रमण करता हुआ अपने आपको सर्वोच्च ऊँचाइयों तक ले जाता रहा और जमीन से लेकर आसमान तक में परचम लहराता रहा।

जब से उसने प्रकृति और नैसर्गिकताओं का आँचल त्याग दिया है तभी से वह न अपना रहा, न प्रकृति का।  उसकी स्थिति बड़ी ही विचित्र होती जा रही है। आम इंसान की जिन्दगी का मूलाधार था – सादा जीवन, उच्च विचार। दोनों ही मामलों में हम असफल साबित हुए हैं। न सादा जीवन रहा है, न विचारों में उच्चता रह गई है।

अब इसका उल्टा हो रहा है। हम सभी का जीवन आरामतलबी, भोगी-विलासी, खर्चीला और फैशनी हो गया है और विचारों के मामले में हम सारी संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार और मानवीयता छोड़कर संकीर्णताओं को अपना चुके हैं। और संकुचित मानसिकता भी इतनी कि इसने अति संकुचन का पैमाना पकड़ लिया है जहाँ हमारे सिवा और किसी के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है। न हृदय में है, न दिमाग में, और न ही और कहीं।

जहाँ सादगी नहीं, जहाँ विचारों में श्रेष्ठता नहीं वहाँ न कोई समाज तरक्की कर सकता है, न कोई जाति, न देश।  जहाँ सादगी छूटी वहीं से आम आदमी के तनावों, अभावों, पीड़ाओं का जन्म हो गया। हम सारे के सारे दूसरों को दिखाने भर के लिए सब कुछ कर रहे हैं।  कोई भी अपनी हैसियत या आने वाले कल का ध्यान नहीं रख रहा।

सबको लगता है कि दूसरों के मुकाबले हमारा लोक व्यवहार अच्छा हो, भले ही इसमें पाखण्ड, आडम्बर, भ्रष्टाचार, बेईमानी और अनैतिक रास्तों से पाए धन का इस्तेमाल क्यों न करना पड़े। कर्ज लेकर भी हम अपने आपको श्रेष्ठ दर्शाने पर तुले हुए हैं।

लोग सारा अनुकरण ऊपर से करते हैं। लोगों की निगाह गंगोत्री से शुरू होती है और इसके बाद गंगासागर तक वही सब कुछ होता चला जाता है जो रास्ते में हर की पौड़ी में होता है या मीलों लम्बे किनारों पर। असल में अब वे लोग रहे ही नहीं जिनसे हम सादगी और विचारों की श्रेष्ठता सीख पाएं, उनका अनुकरण कर पाएं। अब  लगता है विदेशी कल्चर में रमी हुई फसलें ही पैदा होने लगी हैं जिनमें कहीं से भी भारतीयता का बोध नहीं होता।

सादा जीवन-उच्च विचार अब केवल शब्दों में ही कैद होकर रह गया है। आज की तरह इनका पराभव यों ही चलता रहा तो आने वाली पीढ़ियाँ इन शब्दोें का अर्थ भी समझ नहीं पाएंगी। समाज और देश की सारी समस्याओं की जड़  कोई है तो वह यही है कि हमने सादा जीवन भी छोड़ दिया और उच्च विचार भी।

हर मामले में हमने इतना अधिक मूल्य बढ़ा दिया है कि एक आम गरीब इंसान तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। इस वजह से गरीब और अमीर के बीच की खाई इतनी बढ़ गई है अब समस्याओं, तनावों और संघर्षों के प्रपात की अट्टहास करती नीचे गिरती धाराएं ही इन्हें जोड़ पाती दिखाई दे रही हैं अन्यथा जमीन-आसमान का अंतर आ गया है।

हमारे जीवन की आवश्यकताएं इतनी सीमित हैं कि उपलब्ध संसाधनों में हम अपना गुजारा आसानी से कर सकते हैं और दूसरों के लिए भी प्रबन्ध करने में हमें कहीं कोई समस्या नहीं आ सकती। लेकिन हमने आवश्यकताओं से अधिक का भण्डार करने की ऎसी कबाड़ी मानसिकता पैदा कर डाली है कि हम अपने नाम से, अपने लिए जमा तो खूब सारा कर रहे हैं लेकिन न हमारे काम पूरा आ पा रहा है, न औरों के काम।

फिर कैसे मानव हैं हम, जिन्हें किसी की पड़ी ही नहीं है।  कैसे हम अपने आपको सामाजिक कहला रहे हैं, पता नहीं, कौनसा युग आ गया है। एक बार फिर हम अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को देखें, उसके हिसाब से चलें, जीवन में सादगी लाएं, विचारों में श्रेष्ठता लाएं, तो कोई कारण नहीं कि सामाजिक समरसता के भावों के जागरण के साथ ही समाज और राष्ट्रनिर्माण में भी हम अपना योगदान न दे पाएं।

हमें अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है, पाश्चात्यों का अंधानुकरण और दासत्व छोड़ें, अपने अतीत की ओर लौटें और पूर्वजों,महापुरुषों से प्रेरणा पाएं, फिर से अपनी संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं की जड़ों से जोड़ें, अपने आप यह धरती स्वर्ग बन जाए।

तथ्य तो यह है कि जिसके जीवन में सादा जीवन-उच्च विचार नहीं है, वह इंसान न होकर बहुरूपिया और पाखण्डी है। इंसान होने का ही अर्थ है मौलिकताओं से परिपूर्ण।­

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