- August 16, 2017
कहां है हमारी स्वदेश भक्ति ! – सुरेश हिंदूस्तानी
आज हम अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता का समारोह मना रहे हैं। आज से 70 वर्ष पूर्व हमारा देश परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त हुआ। अंगे्रजों की गुलामी से मुक्त होकर हमारे देश को कौन सी दिशा की ओर जाना था, यह भी लगभग तय ही था।
इसमें स्वदेश के उत्थान के प्रति समर्पण भाव था। वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के मन में यही भाव था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश का जो वातावरण बनेगा, उसमें अपनेपन का बोध होगा। पूरी संस्कृति अपनी होगी।
स्वदेशी भाव का प्रवाह चारों ओर दिखाई देगा, लेकिन कालांतर में हमारे राजनेताओं के सत्ता स्वार्थ के चलते स्वतंत्रता के बाद जिस भारत का निर्माण किया जाना था, वैसा दिखाई नहीं दिया। हमने अपने मूल भारत यानी अखंड भारत को भुला दिया। हमने स्वदेशी भाव को भी विस्मृत कर दिया। इसके बदले में हम पश्चिम का अंधानुकरण करने को ही अपनी शान समझने लगे।
आज के वातावरण को देखते हुए सहज ही यह सवाल सामने उपस्थित होता है कि क्या स्वतंत्र भारत में जीने की दिशा यही थी। वर्तमान में हम देखते हैं कि स्वदेशी भाषा पर विदेशी भाषा यानी अंगे्रजी का भूत सवार है। केवल भाषा ही नहीं हमारे पहनावे में भारतीयता का दर्शन दिखाई नहीं देता।
हमारे दैनिक जीवन से भी भारतीयता विलुप्त होती जा रही है। देश में अंगे्रज और मुगलों ने भारत की पहचान को समाप्त करने के लिए शहरों के नाम बदल दिए। हमारे आस्था केन्द्रों पर आघात किया। यह सब उस समय किया गया, जब हम परतंत्र थे, लेकिन क्या हमने स्वतंत्रता के बाद इन गुलामी के चिन्हों का भारतीयकरण करने का सोचा था। वास्तव में हमें सोचना ही चाहिए था।
हालांकि सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस बारे में प्रयास अवश्य किया था। उन्होंने गुजरात के सोमनाथ मंदिर पर अंकित गुलामी के इतिहास को मिटाकर उसे भव्य रुप प्रदान किया। सरदार पटेल के दुनिया से चले जाने के बाद यह अभियान चालू नहीं रह सका और भारतीयता का बोध कराने का जो सपना था, वह मात्र सपना ही बनकर रह गया। इन सब बातों को देखकर यही लगता है कि हम कौन से भारत में निवास कर रहे हैं।
क्या यही महापुरुषों के सपने का भारत था। अगर है तो कहां है हमारी संस्कृति। कहां है हमारी भाषा। कहां हैं हमारे अभिवादन के तौर तरीके। कहां है हमारा पहनावा। कहां है हमारी स्वदेश भक्ति। यह सब कहीं नहीं दिखता। इतना ही नहीं देश में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वतंत्रता के निहितार्थ परिवर्तित करने का दुष्चक्र चलाया जा रहा है।
इतना ही स्वतंत्र भारत में देश भाव का प्रकटीकरण करने वाले कार्यों का खुलेआम विरोध किया जा रहा है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए तो समर्थक मिल जाते हैं, जो सरेआम देश के टुकड़े करने का वातावरण तैयार करते हैं। कश्मीर में देश पर मर मिटने वाली सेना पर पत्थर बरसाए जाते हैं। पत्थरबाजों को मानवाधिकार के नाम पर बचाने का खेल खेला जाता है।
इतना ही नहीं केरल में संघ कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या करने वालों को राजनीतिक संरक्षण मिलना आम बात होती जा रही है। यह कौन सी स्वतंत्रता है। राष्ट्र की एकता और अखंडता को चुनौती देने वाले विचारों का उद्घोष करना स्वतंत्रता नहीं कही जा सकती। लेकिन हमारे देश में सुनियोजित षड्यंत्र की तरह इस प्रकार के कारनामों को अंजाम दिया जा रहा है, जो सीधे तौर पर भारत की सांस्कृतिक मर्यादा को तार तार करता हुआ दिखाई दे रहा है। यह सत्य है कि भारतीय भूमि में आज भी संस्कार जीवित हैं, जरुरत है उन्हें प्रकट करने की। हमें अपने स्वत्व को जगाना ही होगा, नहीं तो हम स्वयं ही अपने विनाश के लिए उत्तरदायी माने जाएंगे।