कलैक्टर से लेकर चपरासी तक , वैज्ञानिक से लेकर राष्ट्रपति पुरूस्कार प्राप्त शिक्षक तक :- रामकिशोर दयाराम पंवार रोंढावाला

कलैक्टर से लेकर चपरासी तक , वैज्ञानिक से लेकर राष्ट्रपति पुरूस्कार प्राप्त शिक्षक तक  :- रामकिशोर दयाराम पंवार रोंढावाला

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ” संस्कृत का श्लोक है जिसमे श्ह कहा गया है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से ऊपर है. मैं अपनी जन्मभूमि को अपने 55 साल के सफर को पूरा करने के बाद उसके सामने अपना शीश झुकाते हुए प्रार्थना करता हूं कि ” हे जन्मभूमि रोंढ़ा, हे कर्मभूमि रोंढ , हे वंदनीय रोंढ़ा, हे अभिनंदीय रोंढ़ा.

मै आपको नमन करता हूं, मैं आपका बार – बार अभिंनदन करता हूं. मैने सूना है कि भारत गांवो का देश है, भात गांवो में बसता है , लेकिन कुछ कहते है कि भारत में गांव बसते है. जब भी मैं अपने गांव को देखता हूं तो मेरे गांव का दर्द मुझे गांव से दूर ले जाता है जिसके पीछे उसका लाइलाज हो जाना है.

गांव में आज बेरोजगारी, बेकारी, कृषि उत्पादन का गिरता ग्राफ और मुख्य समस्या गांव से लोगो का मोह भंग होना, गांव का टूटना और नगर – महानगर की भीड़ में खो जाने बड़ी भयावह समस्या के रूप में सामने आया है. मैं बरसो बाद अपनी जन्मभूमि मेरे गांव रोंढ़ा के आ गया हूं लेकिन चाह कर भी मैं अपने उस गांव में नहीं बस पा सका हूं जिसका दर्द मैं कम करने की नीयत से गांव के करीब पहुंचा था.

मेरे गांव की माटी में मेरा नरा (जन्म के समय नवजात शीशु की आहर नली) गड़ा है.उस गांव ने पूरे देश – दुनियां को बेमिसाल हीरे-जवाहरात दिए है.

उपकार का कर्ज
मेरा गांव मेरा देश

जब हम बचपन के गुडड – गुडियो के खेल को छोड़ कर जवानी की ओर निकल पड़े उस समय स्वर्गीय भारत उर्फ मनोज कुमार की फिल्म उपकार हो या फिर धर्मेेन्द्र की मेरा गांव मेरा इन ग्रामिण परिवेश पर बनी देश भक्ति भावना से बनी फिल्मो को देखने के बाद मैं अकसर अपने गांव की गलियों एवं बचपन यादो में खो जाता हूं. मेरे गांव से निकले अनमोल हीरों की कमी नहीं है. इस बात को डंक की चोंट पर कहा जा सकता है कि लगभग दो हजार की आबादी वाले गांव ने बीते सौ सालो में लगभग पांच सौ से अधिक ऐसे लोगो को गांवे से बाहर का रास्ता दिखाया जिसके चलते वे गांव और देश – परदेश में अपना नाम और पहचान कायम रखे है. मेरे गांव ने विश्व प्रसिद्ध ताज महल की नगरी आगरा (उतर प्रदेश) के विश्व विद्यालय के पुस्तकालय (ग्रंथथालय) अधीक्षक से लेकर हिन्दी विभाग का प्रमुख पद का अधिकारी बनाया.

ग्राम रोंढ़ा में जन्मे जाने – माने महान अंक ज्योतिषाचार्य डी लिट् स्व. डाँ एन आर कालभोर ने अपने गांव का नाम रोशन करने में कोई कमी नहीं छोड़ी. वे गांव से गए जरूर लेकिन आखिर में अपने गांव लौट आए.

बेरोजगारी की मार
अधमरा गांव हमार

आज उस गांव से एक व्यक्ति को सीधे या आड़े तिरछे सरकारी चपरासी की नौकरी तक नहीं मिल रही है. 1960 के दशक में बैतूल जिले में सबसे अधिक शिक्षक / नाकेदार / थानेदार / सिपाही / पटवारी / ग्राम सेवक/ बिजली विभाग के लाइनमेन देने वाला आज स्वंय रोजगार की तलाश में भटक रहा है. जिस गांव ने आजादी के पहले एवं बाद में 1980 के दशक तक में सर्वाधिक साक्षर गांव का रूतबा कायम करने के साथ – साथ जिस गांव के हर घर का पढा – लिखा लड़का सीधे सरकारी नौकरी में चला जाता था. आज उसी गांव की साक्षर एवं सरकारी नौकरी में होने की पहचान को धूमिल होने लगी है.

गांव में बेकारी ने गांव के पढ़े – लिखो को गांव से बाहर बैतूल से लेकर भोपाल – दिल्ली तक हाथ मजदूरी करने को विवश कर दिया है. गांव में 1980 के दशक तक सरकारी नौकरी मिलना आसान थी लेकिन बीते चालिस के दशक में सरकारी नौकरी के लाले पड़ गए है. गांव में वर्तमान बमुश्कील सौ लोग भी ऐसे नहीं मिलेगें जो सरकारी नौकरी में बड़े ऊंचे पद पर बैठे लाट साहब कहलाते है.

रोंढ़ा का संस्कृत में निकला अर्थ
जब सामने आया अर्थ का अनर्थ

मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य बैतूल जिला जो कभी सी.पी.एण्ड बरार में आता था उसी जिला मुख्यालय से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी मेरा गंाव रोंढ़ा है.! वैसे जानकार एवं गांव के ही स्वास्थ विभाग के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र धनोरा (पारसडोह आठनेर) में पदस्थ शासकीय कर्मचारी जगदीश पंवार कहते है कि गांव के नाम का अर्थ – अनर्थ दोनो ही गांव का भविष्य का निमार्ण करने में सहायक सिद्ध होते है. जगदीश पंवार के अनुसार रोंढ़ा का संस्कृत में अर्थ बताते समय सभी को चौंका देते है..!

श्री पंवार के अनुसार रोंढ़ा अपभ्रंश है , दरअसल में रूण्ड (बिना सिर वाला) से बना रोढ़ा है. सर्वोदयी पहचान को दबाये रखने वाले इस गांव की पावन माटी पर आजादी के पहले संत टुकड़ो जी महाराज के पांव पड़ चुके है. इस गांव संत टुकड़ो जी महाराज की खंजरी की थाप पर झूम – झूम कर नाचते – गाते जिसने भी देखा था आज वह इस गांव की वर्तमान मे चल रही दशा एवं दिशा को देख कर क्या से क्या होने के दर्द से भरी आह भर लेता है…!

तीन ओर से गांव की पगडंडी सड़क बन गई
गांव के घरो एवं परिवार की आबादी ठहर गई !

भारत गांवो का देश कहलाता है, गांवो के देश में अकसर उन गांवो को सुर्खिया मिलती है जहां पर जन्म लेने वाले व्यक्ति जब किसी बड़ी उपलिब्धयों को छू जाता है, तब पूरा गांव उस व्यक्ति को अपनी बांहो में भर लेता है. अखण्ड भारत के केन्द्र में बसे बैतूल जिले के प्राचिन गांवो में से एक रोंढ़ा जिला मुख्यालय से 10 किमी की दूरी पर बसा है. बैतूल – इन्दौर नेशनल हाइवे 59 ए पर स्थित ग्राम भडूस से रोंढा की दूरी मात्र साढ़े तीन किमी की है.

पूरा गांव 596.31 हेक्टर में फैले इस गांव की आबादी का आकड़ा 2 हजार को कभी पार नहीं कर सका है. वर्तमान में इस गांव की आबादी 434 चिन्हीत मकानो में 1 हजार 811 जिसमें 936 पुरूष , 875 महिला है.वर्तमान में गांव का साक्षरता प्रतिशत 76.6 प्रतिशत है. कभी यह गांव पूर्ण रूप से 99.9 प्रतिशत साक्षर था.

इस गांव ने पूरे देश में अपनी विशिष्ठ पहचान बनाने की कोशिस की है. बैतूल से हरदा रोड़ कहिये या फिर बैतूल से अमरावती मार्ग इन दोनो मार्ग पर भडूस गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर बसा मेरा गांव आज भी उस पंगडंडी से भी गया . गुजरा हो गया है जिस पर पैदल चलना आसान होता है. ऐसा इसलिए क्योकि सकरी सड़के एवं आड़ – मोड़ के चलते सड़को पर चलने वाले वाहनो के भार के चलते सड़को में भी जहां – तहां दरारे गाड़ी की चाल में हिचकोले ला देती है.

गांव में जाने के लिए वैसे तो कई रास्ते है जिन से गांव पहुंचा जा सकता है. बैतूल से आठनेर मार्ग पर भोगीतेड़ा से तेड़ा होते हुये रोंढ़ा पहुंचा जा सकता है. इधर परासोड़ा होते हुए भी गांव को भडूस से आने वाली सड़क से जोड़ दिया है. खेड़ी सावंलीगढ़ से सेलगांव से बावई होते रोंढ़ा पहुंचा जा सकता है. आप यकीन मानिए जितनी पगडंड़ी मेरे गांव को जाने के लिए उतनी गांव तक पहुंचने वाली पक्की सड़के नही है.

गांव की दहलीज नहीं लांधने वालो की
तीसरी पीढ़ी पहुंची सात समुन्द्र पार…..

तकदीर फिल्म मेरे जन्म के बाद बनी थी, उस फिल्म का एक गीत मुझे आज भी याद है सात समुन्द्र पार से गुडिय़ो के बाजार से , अच्छी सी गुडिय़ा लाना , पप्पा जल्दी आ जाना इस गाने में परदेशी पिता से उसकी पत्नि एवं बेटा – बेटियों की अपेक्षा झलकती है. हमारे गांव के लोग गांव से बाहर इसलिए नहीं जा सके क्योकि बड़े – बुजूर्ग खान – पान में कभी भी दुसरो के हाथो का उपयोग बर्दास्त नहीं करते थे. हमारे गांव से इतनी बड़ी संख्या में लोगो का सरकारी नौकरियों तक पहुंच पाना इतना आसान नहीं था.

गांव के तीसरी पास लोग पुलिस में हवलदार और पांचवी पास थानेदार बन गए.गांव के पांचवीं – सातवी पास युवको ने पुलिस की नौकरी में पा ली.पहले गांव का कोई व्यक्ति थानेदार या नाकेदार बन जाता था तो अपनी सिफारीश पर कई लोगो की नौकरी यूं ही लगा देता था. उस समय अधिकारियों को सेवा – चाकरी करने वाले हटटे – कठे
युवक चाहिए थे.ऐसे में 1960 के दशक में गांव के अधिकांश तीसरी से लेकर सातवी तक पढ़े – लिखे युवक गांव की सालाना मजदूरी छोड़ सरकारी नौकरी में चले गए.

मुझे याद है 1970 के दशक तक गांव का कोई भी व्यक्ति सात मुन्द्रर पार नहीं जा सका था. वैसे तो गांव के शोभाराम गोहित के तीन बेटो में भिखारी , शिकारी मन्नू गोहिते थे जिसमे दोनो भाई का निधन हो चुका है. स्व. भिखारी शिक्षक थे लेकिन अचानक उनके बारे में कहा जाने लगा कि वे गांव आने वाले हाथियों वाले बाबा के साथ – साथ चला गया तो आज तक वापस नहीं लौटा. स्व. शिकारी गोहिते गोवा में काम करने के बाद वही रच बस गए. अब तो गांव के बेटे बेटियां भी केरियर की तलाश में लम्बी छलांग लगाने लगी है.

गांव के श्री गुलाबराव कालभोर एम काम की नवासी विदेश में पढ़ाई कर रही है. मेरे साढू भाई के समधी डाँ चन्दन कालभोर की बेटी श्रीमति नंदनी बालाराम बारंगे, सरजेराव कालभोर वकील की बेटी श्रीमति पूजा परिहार, गांव के ही दिनेश डिगरसे के सुपुत्र श्री अंकित डिगरसे न्यूयार्क जैसे महानगर में सेवारत है. हालांकि इस गांव के ऐसे एक दर्जन नाम है जो विदेशो में जाकर गांव का डंका बजा रहे है. रोंढ़ा के स्वर्गीय दीना लोहार बाबा का नाती एवं पाढऱ में शिक्षक श्री उमेश चुरागले का सुपुत्र दीपांशु चुरागले इस समय विभाजित सोवियत राष्ट्र रूस के कजाकिस्तान देश में डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त कर रहा है.

जानीवाकर शम्मी कपूर चाहते थे
बाबू जी उनके साथ मुम्बई चले ….

मेरे दादा स्व. मंहग्या जी भोभाट बताते थे कि उनके परदादा स्वर्गीय भिख्या जी महाजन से लेकर उनकी कई पीढिय़ो से मेरा गांव ज्यो का त्यो है. लोग आते है, चले जाते है , कुछ मिलाकर मेरा गांव फागुन के मेले की तरह हो गया है. जहां पर लोग केवल घुमने के लिए आते है. जिंदगी भी एक मेला की तरह है और आदमी रस्सी पर करतब दिखाता नट की तरह हो गया है. थोड़ी से भूल – चुक हुई कि उसे धड़ाम से गिर जाना पड़ता है. ऐसे में सब कुछ खो जाने का डर हर किसी को बना रहता है. इसलिए लोग संभल – संभल कर चलते थे.

गांव को भी लोगो ने उसी मेले की रस्सी की तरह समझ रखा है तभी तो वह उस पर चल कर किसी भी प्रकार के करतब दिखाने की रिस्क नही लेना चाहते है. मेरे पापा बताते थे कि गांव के बुढे – बजुर्ग लोग विशेषकर महिलाये गांव से लड़को को बाहर जाने नहीं देती थी. पापा के एक जीजाजी राणा थानेदार खंडवा के रहने वाले थे वे उनसे कई बार कह चुके थे कि तू गांव को छोड़ कर बंबई चला जा लेकिन मेरे पापा की दादी लंगड़ी थी वह काफी नियम – कानून कायदे वाली थी. गांव में उस समय छुआछुत को काफी माना जाता था. गांव से दो- चार दिन लड़का बाहर क्या रहा उसे पुराने जमाने के पुराने रिवाजो को मानने वाले लोग

गोबर,गौमूत्र,तुलसी के पत्तो से नहलाते थे,उसके बाद भी उसे घर के अंदर आने देते थे.वन विभाग में नाकेदार के पद पर रहे पापा की नौकरी बीजादेही के पास पंक्षी – टोकरा , कनारी – पाट में रही . उस समय शूटिंग ब्लाक होने की व$जह से कई लोग जानवरो का शिकार करने आते थे.

स्व. जानीवाकर मध्यप्रदेश के इन्दौर के रहने वाले थे इसलिए उन्हे बैतूल – होशंगाबाद के जंगलो में अकसर शिकार करने आया करते थे. जानीवाकर मेरे पापा से इतने प्रभावित हो गये थे कि वे उन्हे बंबई चलने के लिए हर बार कहते लेकिन बाबू जी दादा – दादी को छोड़ मुम्बई जाना नहीं चाहते थे. उस जमाने की मशहुर अदाकार मीना कुमारी के पास काम करने के लिए बबंई चलने का जानीवकार का प्रस्ताव शायद हम लोगो की तकदीर और तस्वीर बदल सकता था लेकिन मेरे पापा की दादी कीजद के चलते वे बैतूल जिले से बाहर कहीं नही जा सके.

चार कंधो के लिए शहर छोड़ अपने
गांव आ गए डा एन एल कालभोर

आगरा विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन रहे डाँ एन आर कालभोर के बड़े बेटे विजय सिंह कालभोर ने अपने पिता की तरह पीएचडी की है. वे वर्तमान में रायपुर छत्तिससगढ़ में पदस्थ है. उनकी बेटी श्रीमति वीणा सिंह ने भी पीएचडी की है वह भी सरकारी नौकरी में है. शहरी चकाचौंध को छोड़ कर अपने गांव वापस लौटे डाँ एन आर कालभोर से जब गांव के उनके परिजनो ने गांव वापस लौट आने का कारण पुछा तो डाँ कालभोर ने जो कारण बताया वह काफी मार्मिक था.

दर असल हुआ यूं कि जिस एरिया में डाँ कालभोर रहते थे वहां पर उनकी हम उम्र का एन बुर्जग रहता था जिसका एक मात्र बेटा यू एस ए अमेरिका में था. उसकी अचानक मौत के बाद उसके पड़ौसी ने बेटे को $खबर दी कि आपके पिता जी का निधन हो गया …!

खबर सुनने के बाद उसका बेटा कहता है कि मेरा तो आना होगा नहीं आप लोग उनका क्रिया कर्म कर दीजिए और उनका बैंक एकाऊंट नम्बर मुझे दे दीजिए मैं आपका जितना भी पैसा लगेगा वह आपके बैंक एकाऊंट में डाल दूंगा…! इस घटना के बाद पड़ौसी लोग आटो लेकर उस पिता के शव को मोक्षधाम ले गए… जिसका बेटा उससे इतना दूर हो गया , और आखिर में वह अपने पिता को कंधा भी नहीं दे सका. उस बदनसीब को रायपुर जैसे शहर में चार कंधे भी नसीब नहीं हुए ….. !

जब उस पिता की दशा को डाँ कालभोर ने देखा तो अंदर से बुरी तरह से टूट गए और फूट – फूट कर रो पड़े और ऐसे में उन्हे याद आया अपना गांव , अपनी माटी. वे जानते थे कि उनके दोनो बेटा – बेटी पास में है फिर भी वे अपने गांव लौट आए… इस उम्मीद से की कुछ तो कंधे मेरे गांव में मेरे लिए मिल ही जाएगें. आखिर उन्हे गांव की मिटट्ी ही नसीब हुई. पूरा गांव उनकी अंतिम यात्रा का साक्षी बना. डाँ एन आर कालभोर मेरी सास स्व. श्रीमति मना बाई पति स्व. शंकर लाल कोड़ले के सगे काका थे.

वह चम्पा का पेड़ खींच लाता है
मुझे अपने गांव की ओर……..

गांव कुछ लोग बड़े – बुर्जगो को दर किनार कर गांव से बाहर गये तो दुबारा फिर गांव वापस नही लौटे सके. आज भी मेरे गांव के लोग बम्बई – दिल्ली – कलकता – मद्रास जैसे महानगरो में बस गये , लेकिन उन्हे गांव की याद नहीं आती है . जब भी उन्हे गांव के बारे में कुछ बोला जाता तो उनका जवाब रहता है कि बच्चो का भविष्य देखना है …! आखिर उस गांव में हमारा रहा क्या….. अब ऐसे लोगो को कोई कैसे समझाये कि जननी से बड़ी होती मातृभूमि और उससे बड़ी होती है जन्मभूमि ….!

मेरा जन्म गांव माता माँ की गली वाले चम्पा के पेड़ के पास बने पुश्तैनी मकान में ही हुआ था. जिसके चलते मेरा बचपन और उससे जुड़ी अमिट यादे आज भी मेरा मेरे गांव से पीछा नही छोड़ती. रोंढ़ा आज भले ही कुछ भी हो लेकिन मेरी जन्मभूमि होने के कारण वह मुझे अपने से जोड़ रखी है. आज भले ही उस गांव में हमारा मकान भी नही रहा लेकिन वह चम्पा का पेड़ मेरे नटखट बचपन की एक ऐसी निशानी है जिसे बरबस याद करते ही मुझे मेरा बचपन किसी फिल्मी चलचित्र की तरह दिखाई पडऩे लगता है.

बैतूल जिला मुख्यालय से मेरे गांव की दूरी बमुश्कील 11 किलोमीटर भी नहीं होगी. अकसर गांव की ओर दौड़ा चला आता हूं. गांव से दूरियां कम करने की कोशिस आज भी जारी है. कई बार कोशिस की आसपास के मकान को खरीदने की लेकिन मुकाम आते ही दूर हो जाता हैं गांव में लौट आने का सपना.

गांव में सर्वाधिक लोकप्रिय हमारी दादी

मेरे गांव के विकास बारे में क्या लिखूँ क्योकि मेरे गांव का विकास कम विनाश ज्यादा हुआ है. मेरे दादा ने उस गांव के आसपास के खेतो और खलिहानो में अपनी भुजाओं के बल पर 30 साल तक कुओ की खुदाई का काम किया. एक ही परिवार के 4 लोगो की तथा अन्य 5 लोगो की कुआं धसने के चलते हुई दर्दनाक मौत की आगोश से मात्र दो ही लोग जीवित बच निकले उन लोगो मे मेरे दादा भी शामिल थे. मेरी दादी माँ खेड़ापति बीजासन मांई की उपासिका थी. उनके हाथो में दैविय सिद्धी थी जिसके चलते गांव के लोग उनका बहुंत मान – सम्मान करते थे.

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की रात में दादी ने अंतिम सांस ली. आज मुझे अपने दादा – दादी पर अभिमान है क्योकि उनके जाने के इतने साल बाद भी गांव मुझे मेरे नाम से कम उनके नाम से ज्यादा पहचानते है.

सुने हो गए गांव के पनघट
नहीं आती कुओं से आवाजे

गांव में पहले सुबह के चार बजे पनघट पर पानी भरने के लिए माँ – बहने – बहु – बेटी जग जाती थी क्योकि उन्हे पानी भर कर सुबह काम धंधा पुरा करके दुसरे के घर या खेत पर काम करने जाना पड़ता था लेकिन अब गांव के दोनो प्राचिन कुए सुख चुके है. अब पनघट पानी भरने के लिए कतार नही दिखाई देती.

मेरे गांव की कोसामली और जामावली के कुयें का पानी गर्मी आने के पहले ही सुखने लगा है. पहले गांव के तीन कुयें पूरे गांव की प्यास को बुझाने के लिए पर्याप्त थे लेकिन अब तो गांव में जहाँ – तहाँ लगे ग्राम पंचायत के नलो का पानी भी पूरे गांव की प्यास को बुझा नही पा रहे है.

जब मेरा बेटा रोहित तीन साल का था तब मेरे दादा का निधन हो गया. मेरा गांव किसी जमाने में पंचामृत (दुध, दही, शहद, गोमूत्र , घी ) की अविरल धारा से पूरा गांव की चारो सीमाओं को बांधा गया है जिसका नतीजा यह है कि इस गांव में खेड़ापति माता मैया की कृपा से महामारी जैसी कोई बिमारी आज तक गांव की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकी है.गांव को महामारी के प्रकोप से बचाने के लिए पूरे गांव वालो ने सैकड़ो लीटर पंचामृत से गांव की चार दिवारी सीमा को बंाध दिया है.

हमारा गांव कनेक्शन
चार पीढिय़ों का सबंध

अकसर बैतूल जिले के गांवो के बारे में कहा जाता है कि गांव के लोग गांव के गांव में ही अपने वैवाहिक सबंधो को स्थापित करते थे जिसके पीछे की मुख्य वजह होती थी कि देखी – परखी लड़की और देखा – परखा परिवार जो उनके कूल या वंशज को आगे ले जा सके. मजबूरी में ही गांव के बाहर वैवाहिक सबंध जुड़ते थे.

जहां तक मुझे ज्ञात है या मैने पता कि मेरे गांव रोंढ़ा में 1९८९ तक सभी समाज के लोगो ने पहली प्राथमिकता गांव को दी बाद में वे आसपास के 6 और बाद में 12 गांव तक में ही वैवाहिक सबंध स्थापित किए. मेरी पहली दादी बैतूल बाजार की थी दुसरी दादी स्व. श्रीमति मीना बाई रेल्वे में कार्यरत स्वर्गीय झिग्ंरया जी हजारे की बहन थी. बाबूजी का ननिहाल बैतूल जिला मुख्यालय के पास मलकापुर था.

मेरी नानी स्व. फगनी बाई रोंढ़ा के डिगरसे परिवार की थी. मेरी दादी एवं मेरी नानी दोनो ही रंग रूप और अचार – विचार में एक दुसरे के विपरीत होने के बाद उनकी कभी बहू – बेटी को लेकर तू – तू , मै- मैं नही हुई.

आज संयुक्त परिवार के बीच बिखराव का मुख्य कारण बेटी की माँ का उसके ससुराल में तथाकथित हस्तक्षेप होता है. मैने अपने परिवार से जो सीखा और मेरे गांव ने जो मुझे सीखाया और दिखाया वह बेमिसाल है. वर्ष १९८० के दशक तक बैतूल जिले में सबसे बड़े संयुक्त परिवारो में रोढ़ा का अपना नाम था. गांव का कालभूत परिवार जो एक प्रकार का ऐसा समूह था जिसमें छोटे- बड़े तीन सौ लोग आ जाते है.

यहां जातियों के नहीं स्वगोत्रियों के मोहल्ले
देवासे, कालभोर , डिगरसे, हजारे, पाठा

मजेदार बात तो यह देखने को मिलती थी कि गांव में जातियों के मोहल्ले मिलते है लेकिन रोंढ़ा में एक ही गोत्र का मोहल्ला आज भी मौजूद है. देवासे मोहल्ला में वर्तमान में छोटे – बड़े दस परिवार रहते है जिनकी संख्या सौ का आकड़ा पूरा कर लेती है. इसी तरह कालभोर, ओमंकार, डिगरसे, पाठा, हजारे थे जिनके परिवारो की संख्या सबसे अधिक रही है. रोंढा पूर्ण रूप से पंवारी बस्ती है लेकिन हर गांव में 12 जात की परम्परा उनके पुश्तैनी कार्यो के कारण बसाई जाती है.

हर जाति वर्ग समाज की उस गांव में बसाहट उसके द्वारा संपादित कार्यो से होती है. यह बात अलग हो गई है कि अब शिक्षा के प्रचार – प्रसार एवं साक्षरता के चलते लोग अपने -अपने पुश्तैनी कार्यो को छोड़ चुके है या फिर उसमें आधुनिकता ले आए है. पहले गांवो में एक पेटी लेकर सैलून का कार्य साल भर की उधारी में चलता था लेकिन अब तो गांव – गांव में सैलून खुल गए है.

किसानो ने खेती में जबसे मशीनो का उपयोग किया तबसे लेकर आज तक धीरे – धीरे गांव के लोहार – बढ़ई विश्वकर्मा अपने पुश्तैनी धंधे को छोड़ कर या तो सरकारी जाब में चले गए या फिर गांव छोड़ कर शहर आ गए रोजगार की तलाश में.

हमारा अपना कुनबा
राम- राम – दयाराम

हमारे पूर्वज अपने बच्चो के नाम रखते समय इस बात का ध्यार रखते थे कि नाम में क्या रखा है! मेरे दादा जी ने अपने पांचो पुत्रो के नाम में राम नाम का उपयोग किया. यह बात मेरे नाना को भी याद रही होगी तभी तो उन्होने अपने आठो पुत्रो का नाम में राम नाम को नहीं भूले. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मेरे बड़े मामा का नाम दयाराम , मेरे पिता जी का नाम दयाराम और मेरे पत्नि के मामा का नाम कालूराम रखा गया था . मेरे गांव रोंढ़ा में मेरे दादा जी स्वर्गीय मंहग्या जी भोभाट का एक मात्र परिवार था. तीन भाई स्व जयसुख टुकड्या , स्व. महंग्या टुकड्या, कलीराम टुकड्या तथा एक परिवार में स्व.रामा एवं स्व. किशन रामा के स्व. सुंदरलाल भोभाट शिक्षक बैतूल बाजार में बस गए. जयसुख की जुगन बाई विवाह के बाद बिछुआ छिंदवाड़ा चली गई.

स्वर्गीय महंग्या के परिवार में चार बेटे दयाराम (नाकेदार) , परसराम (पुलिस आरक्षक), तुकराम , आशाराम एवं स्व.बलराम तथा बेटी स्व.श्रीमति देवना बाई जो कि पड़ौसी गांव में तेढ़ा में बिहाई जिसकी एक बेटी सुषूम बाई दिलीप हजारे अपने ननिहाल रोंढ़ा में ही दिलीज हजारे के संग बिहाने के बाद गांव में ही बस गई. परसराम पंवार सेवानिवृत होने के बाद अपनी ससुराल खेड़ी में ही बस गए. उनके परिवार मेंतीन पुत्र एवं दो बेटिया है.

तुकाराम जिसे गांव के लोग बंगा कहते थे उसका १९८० के बाद से आज तक पता नहीं चल सका. आशाराम का विवाह हो जाने के बाद वह भी कहा और क्यों चला गया किसी को पता नहीं. हालांकि मैने अपने दोनो चाचाओ को बहुंत खोजा लेकिन पता नहीं चल सका. आशाराम को तो मै ही नागपुर से लेकर आया था उसके बाद पाथाखेड़ा से उनकी शादी करवा दी. उनकी एक बेटी श्रीमति नीतू पंवार और नवासा भी है. शादी के बाद से अचानक आशाराम सबको निराशा देकर चले गए. बलिराम मंशाराम की बिजली करेंट से अकाल मृत्यु हो गई.

दयाराम का अपना कुनबा
रामू – श्यामू – नंदा – डब्बू

हम चारो भाई दो बहनो में मैं रामकिशोर पंवार मेरा विवाह बैतूल बाजार के स्व. शंकर लाल कोड़ले की पुत्री रूक्मिणी द्धारका के संग विवाह हुआ. मेरे दो पुत्र रोहित जिसका विवाह पाथाखेड़ा के सुरेश पंवार की बेटी खुशबू पंवार से हुआ. दोनो की एक संतान मेरी सुपुत्री कु. तृप्ति रोहित पंवार, मोहित भोपाल में जाब करने के साथ – साथ मेरे द्वारा भोपाल प्रकाशित साप्ताहिक ताप्ती – हलचल का कार्य देख रहा है.

मेरे से छोटा श्यामकिशोर पंवार (फायर पुलिस भोपाल में आरक्षक ) श्याम किशोर पंवार का विवाह पाथाखेड़ा में वेेालि में कार्यरत प्यारेलाल खवसे की पुत्री माया बाई से हुआ. श्याम किशोर के जिसके दो बेटे प्रज्ञानंद एवं पारस नाथ भोपाल में पढ़ रहे है. बड़ी बेटी श्रीमति उर्मिला नरेन्द्र पंवार का विवाह पाथाखेड़ा के मजदूर नेता स्व. कामरेड रेवाराम पंवार के पुत्र नरेन्द्र पवंार के संग हुआ जिनकी एक बेटी हमारी नवासी भी है.

तीसरे नम्बर में नंदकिशोर पंवार का बैतूल में सुनिता उर्फ नीतू पंवार के संग जिसकी दो संताने अश्विनी पंवार इन्दौर में पढ़ाई कर रहा है और बेटी खुशबू बैतूल में. नंदकिशोर पंवार आईबीसी 24 न्यूज चैनल के ब्यूरो है जो गांव के पहले व्यक्ति है जो किसी न्यूज चैनल के रिर्पोटर बने. चौथे नम्बर के बज्रकिशोर पंवार डब्बू भैया पाथाखेड़ा – सारनी का एक नाम है.

सिविल वर्क एवं अन्य कार्यो के ठेकेदार एवं सप्लायर है जिसकी फर्म रूद्र कंस्टे्रक्शन है. बज्रकिशोर पंवार का विवाह रामनगर बैतूल निवासी स्व. शंकरलाल रावत की बेटी किरण पंवार के संग हुआ जिनकी एक संतान बेटी डाली पंवार है. दोनो बहने कुण्डई एवं चिल्हाटी में बिहाई गई है जिसमे तरूण पंवार देवराव जी फड़काड़े कुण्डई के रहवासी है. देवराव स्व. लाला जी फड़काड़े वर्तमान में बैतूल जिला मुख्यालय पर मध्य रेल्वे में कर्मचारी है, सबसे छोटी बहन श्रीमति राधा विजय बुआड़े चिल्हाटी के मूल रहवासी है. विजय स्व. बिरज भगत बुआड़े वर्तमान में बैतूल जिला मुख्यालय पर मध्य रेल्वे में कर्मचारी है.

करंजी के तेजी महाजन
मेरा सबसे बड़ा ननिहाल

मेरे नाना स्व. रामचरण जिसे कुछ लोग तेजी महाजन के नाम से भी पुकारते थे. नाना के बारे मेंकहा जाता है कि वे करंजी नदी के किनारे सबसे सम्पन्न किसानो मे एक थे जिसे महाजन का दर्जा मिला. करंजी के इस ओर मेरे मेरे मामा कालूराम मानमोड़े एवं गोकूल मानमोड़े और दुसरी ओर मेरी श्रीमति रूक्मिणी पंवार के मामा गोकूल कालभोर एवं स्व. कालूराम कालभोर महदगांव का सम्पन्न किसान परिवार है.मेरी सास स्व. मनाबाई शंकरलाल कोड़ले चार बहने दो भाई थे. जबकि मेरी माँ श्रीमति कसियाबाई दयाराम पंवार की 6 बहने एवं 3 भाई तथा मेरी दुसरी नानी स्व.सीताबाई (नान्ही माय) जो कि रोढ़ा के ही हजारे परिवार की थी उसके 5 पुत्र तथा 4 पुत्रिया है. कुल 1 8 भाई – बहनो के परिवार है. वर्तमान समय में हरिराम एवं उनका एक सबसे बड़ा भाई कुल दो मामा एक बड़ी शांता मौसी इस दुनियां में नहीं है.

आज भी 16 भाई – बहन अपने नातियों – पोतियों की जो संख्या लगभग 300 के करीब पहुंच चुकी है. आज मेरे अपने ननिहाल में सुख – दुख के कार्यक्रम में 300 लोगो का पूरा कुनबा एक साथ जमा नहीं हो सका है, कोई न कोई इस कुनबे से बाहर रहा है. अगर पूरा एक साथ कहीं आना – जाना करे तो पूरी 5 बस लगेगी. वैसे भी हमारे ननिहाल में होने वाले कार्यक्रमो में हमें किसी को बुलाने या बारात जुलूस में ले जाने की जरूरत ही नहीं. एक माला के मोती अनेक है.

तीन पीढिय़ो का वैवाहिक संस्कार
करवाने वाले रोंढ़ा के अन्ना महाराज

बैतूल जिला मुुख्यालय से लगे इस प्राचिन गांव में लगभग साठ साल से गांव के दुख – सुख में अन्ना महाराज पाठक गुरूजी या उनका परिवार खड़ा रहते चला आ रहा है. पाठक गुरू जी ही अकेले पूजा – पाठ करवाते है इसलिए उनका कार्यक्षेत्र घटने लगा है और गांव में भडूस के शुक्ला जी के यजमान बनने लगे है.

बीते वर्ष १६ फरवरी २०१8 को मेरे रोहित पंवार की शादी में हमने अपने गांव के पंडित अन्ना महाराज पाठक गुरूजी को बुलवाया था. मेरे सहपाठी एवं बालसखा राम पाठक स्वंय अपने पिता को लेकर वैवाहिक कार्यक्रम में आए थे. अन्ना महाराज ने सेलागांव (करंजी) में मेरे पिताजी श्री दयाराम पंवार का, बैतूल बाजार में 12 जुलाई 1989 को मेरा वैवाहिक संस्कार सम्पन्न करवाया. शिक्षक से सेवानिवृत हो चुके अन्ना महाराज गांव के एक मात्र ऐसा ब्राह्मण है जिनका हर जाति – समाज के लोगो पर समानाधिकार है. आसपास के 12 गांव के लोगो के सुख – दुख में अन्ना महाराज खड़े दिखाई देते है.

ग्राम रोंढ़ा के सपूत
मुन्ना लाल देवासे

बैतूल जिले के प्राचिन गांव रोंढ़ा में 3 अक्टुबर 1933 को जन्मे मुन्नालाल देवासे ने एम ए साहित्य, सहित्यत्न, सहित्यंलकार, रामायणाचार्य, की उपाधि प्राप्त की है. स्व. देवासे कहानी,लेखन, निबंध, व्यंग, बालकथाए , नाटक, गीत आदि के रचियता थे. उनके लिखे सभी विधाओ की रचनाकृति दैनिक नवभारत टाइम्स, नवभारत, रेखा, नया खून,साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मनोरमा, समाज कल्याण,योजना, श्री गुरूदेव, सहित अनेको पत्र – पत्रिकाओ में छपी रही है. उन अभी तक प्रकाशित कृतियो में निबंध मंजूरी, मायानंद चैतन्य,कथा चक्र,मगृशि की वर्षा, काठ का हाथी, अलोपी, (बाल उपन्यास), काठ का महल , लखटकिया अंतिम तिनो (बाल कथा संग्र्रह), नवभारत टाइम्स की ओर से उनकी साहित्य कृति काठ का हाथी को पुरूस्कृत किया गया. स्व. मुन्नालाल देवासे ग्राम रोंढ़ा के एक मात्र ऐसे व्यक्ति है जिन्हे राष्ट्रपति द्वारा पुरूस्कृत एवं सम्मानित किया गया. आप आर्वी वर्धा (महाराष्ट्र) वर्धा नगर परिषद मुख्यालय में सरकारी स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्यरत है. 55 साल की उम्र में 14 दिसम्बर 1987 को आपने अंतिम सांस ली।

बाप – बेटे दोनो ने ग्राम रोंढ़ा
को पीएमओ तक पहचान दी

ग्राम रोंढ़ा के सपूत स्वर्गीय गोपीनाथ के पुत्र नीलेश कालभेर बैतूल जिले के एक मात्र ऐेसे युवा है जिसने पीएमओ में अपना और अपने गांव का नाम रोशन किया. नलेश कुमार स्व. गोपीनाथ कालभोर (भारतीय सूचना सेवा पी आई बी) में संयुक्त निदेशक पत्र सूचना कार्यालय पोर्ट ब्लेयर कार्यरत है. उनके पास वर्तमान में प्रमुख क्षेत्रिय समाचार एकांश आकाशवाणी पोर्ट ब्लेयर का अतिरिक्त प्रभार है. इसके पूर्व वे देश की राजधानी में स्थित पीएमओ में रेफरेंस ऑफिसर के पद पर रह चुके है.

प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में सेवा दे चुके नीलेश कालभोर ने 2007 सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर भारतीय सूचना सेवा में आ गए. नीलेश के पिता स्वर्गीय गोपीनाथ जी कालभोर पूर्वी निमाड़ के जाने – माने साहित्यकार एवं पंवारी साहित्य भाषा के नामचीन कवि के रूप में पहचाने जाते थे. साहित्यकार , लेखक रहे स्व. गोपीनाभ कालभोर खण्डवा के सरकारी महाविद्यालय में गं्रथपाल के पद से सेवानिवृत हुए. स्व. गोपीनाथ कालभोर के काव्य संग्रह सतपुड़ा साहित्य परिषद भोपाल से प्रकाशित हो चुके है.

दबे पंाव गांव आ गई फ्लोरोसिस पाइरियां
घोघरी से रोंढ़ा गांव आएगी ताप्ती मैया

ग्र्राम रोंढ़ा का प्राचिन कुआं कोसामाली एवं जामावाली आधे गांव की आबादी को पानी पिलाया करते थे. उस दौर में बच्चो के बीच दांतो की कोई बिमारी नहीं सुनने को मिलती थी. गांव के कुओं की गहराई जरूर थी लेकिन प्रतिदिन पानी की निकासी से इनका स्त्रोत जीवित था. अब गांव को टयूबवेलो के माध्यमो से की जाने वाली पानी की सप्लाई ने गांव के बच्चे – जवान – बुढ़े सभी को दांतो की बिमारी की चपेट में ले लिया है.

टयूबवेल के पानी की गहराई से आपूर्ति से होने के कारण फ्लोराइड की संभावना बढ़ गई है. जिला चिकित्सालय बैतूल में डेटंल सर्जन डाँ सोनल डागा एवं डाँ स्वाति बारंगे के अनुसार एम्स भोपाल के सहयोग से एक ओरल हेल्थ सर्वे करवाया गया जिसमें बैतूल जिले के रोंढ़ा गांव के 5 – 12 – 35 – 45 65 – 75 आयु के लोगो का हेल्थ सर्वे में पाया गया कि इस 95 प्रतिशत बच्चे दांतो की बिमारी फ्लोरोसिस एवं 90 प्रतिशत लोग पाइरियां की बिमारी के शिकार है.

ओरल हेल्थ सर्वे के अनुसार इस बिमारी का समय पर इलाज संभव है वरणा आगे चल कर यह खतरनाक साबित हो सकती है. दुर्रभाग्य इस बात का है कि इस बिमारी का उस समय खुलासा हो रहा है जब इस जिले का मुखिया दंत चिकित्सा में एमडी है. जिले के इस गांव की बिमारी को गांव से जाना पड़ सकता है यदि समयावधि में घोघरी जलाशय का ताप्ती जल गांव की आतंरिक सतह को छू लेगा.

गांव की पेयजल आपूर्ति एवं सिंचाई के लिए पहले पारसडोह का सब्जबाग दिखाया गया था लेकिन घोघरी डेम के बनने के बाद रोंढ़ा की प्यासी धरती एवं बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के दांतो का तथाकथित पीलापन एवं दुंर्गध आना बंद हो जाएगा. ताप्ती जल के उपयोग से गांव की तकदीर एवं तस्वीर दोनो ही बदलेगी साथ ही गांव का समाजिक एवं आर्थिक परिवेश में भी अमूलचूल परिर्वतन आ जाएगा.

गांव के लिए केरियर छोडऩे वालो को नहीं
रही कमी , खेतीबाड़ी से किया जिदंगी का गुजारा

यूं तो रोंढा गांव कला – साहित्य – संस्कृति का जनक रहा है. इस गांव ने बैतूल जैसे पिछड़े आदिवासी बाहुल्य बेतूल जिले में संचालित जिले का एक मात्र स्व. लीलावति दुबे संगीत महाविद्यालय का प्राचार्य दिया. ग्राम पंचायत रोंढा के पूर्व सरपंच रमेश पंवार का जिक्र उन लोगो में होता है जो मुम्बई की चकाचौंध में खोने के बजाय अपने गांव की सोंधी मिटट्ी में रच – बस गए. खैरागढ़ (विभाजित छत्तिसगढ़) से संगीत में मास्टर डिग्री हासिल करने वाले रमेश पंवार देश के ख्याति प्राप्त संगीतकार स्व. रविन्द्र जैन के रूम मेट थे. दोनो ने साथ – साथ संगीत में मास्टर डिग्री प्राप्त की. स्व. रविन्द्र जैन चाहते थे कि उसका सहपाठी उसके संग मुम्बई चले लेकिन रमेश पंवार को वापस अपने गांव ही आना था. वर्तमान में जिला मुख्यालय के एक मात्र संगीत महाविद्यालय के प्राचार्य है.

रोंढ़ा के स्व. दीना लोहार के सुपुत्र कुंज बिहारी चुरागले अपनी संगीत साधना के चलते सौसर स्थित रेमण्ड कंपनी के स्कूल में संगीत शिक्षक के पद पर कार्यरत है.

सबसे अधिक गुरूजी देने वाला गांव
एक मोहल्ला गुरूजी , का तो दुसरा पटवारी का

बड़ा ही अजीबो गरीब गांव है रोंढ़ा जिसकी जितनी चर्चा की जाए कम ही है. इस गांव में यूं तो छोटे – बड़े 15 मोहल्ले है लेकिन गांव की आबादी पूरे तीन दशक से भी ज्यादा समय से लगभग स्थिर सी ही रह जाती है. गांव से आने – जाने वाले ही गांव की आबादी का नियंत्रण करते है.

आज तक इस गांव ने 2000 हजार के आकड़े को पार नहीं किया है. इस गांव के एक मोहल्ला को गुरूजी के नाम से तथा दुसरा नाकेदार , तीसरा मोहल्ला पटवारी मोहल्ले के नाम से भी पहचाना जाता रहा है. वर्ष 1950 से 1980 तक गांव के नामचीन पटवारियों में श्री राम ओमकार पटवारी, मधु सोनी पटवारी, श्री कलीराम जयसिंगपुरे पटवारी ,चिन्धया पटवारी, पूरनलाल पटवारी, परसूलाल पटवारी, राधेलाल, करणलाल हजारे, ग्राम सेवक लक्ष्मण, राधेलाल पटवारी, गांव के जगन्नाथ सोनी पुलिस विभाग में हवलदार थे, इसी कड़ी में हीरालाल परिहार गुरूजी, राम रतन जयसिंहपुरे, शिवचरण गुरूजी, नान्हूलाल हजारे गुरूजी, हीरालाल डिगरसे गुरूजी , मैकू कोड़ले गुरूजी,जगन्नाथ देशमुख गुरूजी , बाबूलाल , अशोक सोनी, देवराव पठाड़े, बाजीलाल, नत्थूलाल ढोबारे, सुधाकर सोनी, श्यामा रावत, भैयालाल हजारे सभी नाकेदार बाबा के रूप में जाने – पहचाने गए.

गांव के जुगल किशोर सेन्ट्रल स्कूल में शिक्षक थे तो गांव के शंकरलाल डिगरसे गुरू जी, उनके बड़े भाई गुलाबराव डिगरसे गुरूजी, दयाराम डिगरसे गुरूजी और उनका छोटा भाई गुरूजी दोनो भाई पाथाखेड़ा – सारनी में शिक्षक रहे. दयाराम डिगरसे गांव में ही आकर बसे गए और गांव से ही अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए.

बैतूल जिले का ग्राम रोंढ़ा की पहचान सब विषय के सबसे अधिक शिक्षक / प्राध्यापक / गुरूजी / गं्रथपाल/ स्कूली एवं महाविद्यालीय प्राचार्य देने वाले गांव के रूप में होती है. यूं तो ग्राम रोंढ़ा पंवार जाति बाहुल्य गांव है लेकिन गांव में एक घर भी अन्य जाति का है तो उस का कोई न कोई सदस्य सरकारी नौकरी में जरूर है।

कुछ बने न बने गांव का व्यक्ति मास्टर जी तो जरूर बन गया है. स्व. अमृतराव कालभोर गांव के पहले व्यक्ति थे जो प्राचार्य के पद से सेवानिवृत हुए. श्री नारायण माथुकरकर वैसे बघोड़ा के रहने वाले थे.नाई समाज से आने वाले माथुरकर गुरू जी गांव में पदस्थ होकर आए और इसी गांव में बस गए. उनकी तरह से लेकर मुलताई से शिक्षक गोविंद पाठक (अन्ना महाराज) इस गांव के वरिष्ठ शिक्षको में से एक रहे है जिन्होने पूरे जिले में छात्रो को पढ़ाने के बाद गांव में भी बच्चो को पढ़ाया.

अन्ना महाराज के बड़े बेटे श्री राम पाठक जिले के बेहतरीन पाठक छायांकन के संस्थापक रहने के बाद वे वर्तमान में रोढ़ा के उसी स्कूल में शिक्षक है जहां वे स्वंय कभी पढ़ा करते थे. गांव ने गांव को ही दुसरे गांव और प्रदेश को भी योग्य शिक्षक दिये है. ग्राम रोंढा के मूल रहवासी एवंव बैतूल जनपद के अध्यक्ष रहे स्व. शेषराव बारंगे जी नागपुर नगर निगम के स्कूल में पढ़ाया करते थे.

सीपीएड बरार स्टेट में नागपुर के नगर निगम में शिक्षक रहे स्व. बारंगे जी स्कूली की मास्टरी की नौकरी छोड़ कर नागपुर के ही अधिवक्ता एन के पी साल्वे के समय राजनीति में कूद गए. वे बैतूल ब्लाक कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे.

रोंढ़ा के कालभूत परिवार में 16 स्नाकोत्तर
जिसमें 3 ने किया पीएचडी एक डी लिट्

डाँ एन आर कालभोर ने अपने कालभूत परिवार इतिहास उस समय लिखने का काम किया जब वे आगरा विश्व विद्यालय के ग्रंथालय के डीन थे. पीएचडी के बाद डी लिट् करने वाले डाँ कालाभोर ने 1984 में टेड्रल प्रिट्रींग के दौर में कालभूत नामक एक पत्रिका का प्रकाशन किया जिसमें जानकारी अंकित की गई है कि रोंढ़ा के कालभूत परिवार में 16 लोग स्नाकोत्तर तथा 3 ने पीएचडी की थी. इस गांव का 1942 में जब हिन्दी मीडिल स्कूल बंद हो गया तो गांव के बुर्जगो ने गांव के बच्चो से कहा इडील मीडिल की छोड़ो आस, ले ओ खरपी छीलो घास.

रोंढ़ा में 1957 तक हिन्दी मीडिल स्कूल था जिसमें कक्षा पांचवी – छटवी – सातवी थी. इधर प्रायमरी में पहली से चौथी तक प्रायमरी स्कूल शिक्षा थी.

1957 के बाद रोढ़ा का मीडिल स्कूल हिन्दी से अग्रेंजी मीडिल स्कूल में बदल गया और छटवी से आठवी तक जिसमें आठवी कक्षा में अग्रेंजी अनिवार्य विषय होने के कारण हिन्दी मीडिल स्कूल अग्रेंजी मीडिल स्कूल हो गया.प्रायमरी शिक्षा में तीसरी बोर्ड की जगह पांचवी बोर्ड ने ले ली. गांव के मीडिल स्कूल मे पढऩे के लिए 12 गांव के बच्चे आते थे. रोंढ़ा ग्राम के नीलेश स्व. गोपीनाथ कालभोर पीएमओ दिल्ली में भारत सरकार के आकाशवाणी केन्द्र की ओर से अपनी सेवाए देने के बाद अडंमान चहे गए.

बैतूल बाजार को पढ़ाया है
सर्वाधिक साक्षर जिले का रोंढ़ा

रोढ़ा जिले का गांव सर्वाधिक साक्षर गांवो में से एक है. एक समय में हिन्दी का मीडिल स्कूल सिर्फ ग्राम रोंढ़ा में था जिसके कारण बैतूल बाजार के यहां तक स्कूली पढ़ाई के लिए आना पड़ा. आज भले ही नगर परिषद बन गया लेकिन इस गांव के कई बच्चो ने रोंढ़ा में हिन्दी मीडिल स्कूल में पढ़ाई की है. गांव की उत्कृष्ट शिक्षा का ही असर कहे कि इस गांव ने साक्षरता का प्रतिशत सर्वोच्च स्थान पर बनाए रखा.

1974 में एमपी बोर्ड में ग्राम रोंढ़ा के साहू – तेली समाज के एक छात्र कमलेश चौधरी ने अपना नाम टाप फाइव में ले आया. जिला मुख्यालय बैतूल का रोंढ़ा ही एक मात्र ऐसा गांव था जहां के हर घर से दो से अधिक बेटे सरकारी नौकरी में लग गए.

गांव के इस गांव के स्वर्गीय जगदीश कोड़ले प्रधान आरक्षक मध्यप्रदेश पुलिस की ज्येष्ठ सुपुत्री संगीता कोड़ले (एमबीबीएस) गांव की एक मात्र महिला चिकित्सक है. इसके अलावा शंकरलाल देवासे भी आयुर्वेद रत्न रह चुके है.

गांव के गणेश प्रसाद चौधरी एक मात्र ऐसे व्यक्ति है जो मात्र उस जमाने में कक्षा दुसरी पास होने के बाद पटवारी बने और नजूल अधिकारी के पद से सेवानिवृत हुए. कहने का मतलब यह साफ है कि उस जमाने के दुसरी पास को भी सरकारी नौकरी मिल जाती थी लेकिन अब तो गांव के एमबीए पास किए लोग बेरोजगारों की कतार में खड़े है.

गांव के युगल किशोर देवासे एवं डाँ केशोराव चौधरी तथा शेषराव बारंगे ने रोंढ़ा गांव में हाई सेकण्डरी स्कूल खुलवा कर उन लोगो के मँुह पर करारा तमाचा मारा था जो यह कहते थे कि रोंढ़ा को आबादी के अनुपात में हाईस्कूल या हायर सेकण्डरी स्कूल नहीं मिल सकता. स्व. गोलेलाल कालभोर गांव के पहले व्यक्ति थे जो थानेदार बने. उन्हे पूरा गांव थानेदार के रूप में जानता एवं पहचानता था.

रोंढ़ा की सुर्खियों मे रहने वाली
शेषराव बांरगे जी शेर की हवेली

जिला मुख्यालय के समीप बसा मेरा ग्राम रोंढ़ा दो हवेलियों की वज़ह से भी जाना जाता है. गांव के मालगुजार मोतीराम पटेल, भगवंत पटेल, शंकर पटेल जिसमें कनाठे परिवार के इन तीनो पटेलो के पास आसपास के कई गांवो की पटेली थी. मराठो के शासनकाल में वायदा – लगान वसूली के लिए कुंबी समाज के कुछ लोगो को कुछ गांव की मालगुजारी दी गई.

गांव पटेल जिसे लोग देहाती भाषा में मुख्तार बाबा कहते है उनकी हवेली लगभग एक एकड़ में बनी हुई थी जो वर्तमान में खण्डहर का रूप ले चुकी है. हवेली के कई भाग बिक चुके है. हवेली के पीछे दो शेर की प्रतिमा आजू – बाजू लगी होने के कारण स्व. शेषराव जी बारंगे पूर्व जनपद अध्यक्ष एवं ब्लाक कांग्रेस अध्यक्ष का निवास की भी अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम किए है.

आसपास के बारह गांवो में शेर की हवेली के रूप प्रसिद्ध स्व. शेषराव बारंगे का निवास स्थान था. ग्राम रोंढ़ा के स्व. भभूतराम कालभोर और उनके छोटे भाई परसराम कालभार नागपुर नगर निगम में हिन्दी स्कूल के शिक्षक एवं बाद में हितकारी विद्यालय के प्राध्यापक भी रहे. उनके द्वारा मुलताई एवं सौसर में कालेज भी खोला गया जिसमें पढ़ाने के लिए गांव के ही गुलाबराव कालभोर भी अपनी सेवा देकर वापस अपने पुरखो की जमीन पर खेतीबाड़ी करने के लिए लौट आए.

एक परिवार के चार भाई जिसमें यशवंत राव कालभोर ग्राम सेवक, सरजेराव कालभोर वकील, देवीराम कालभोर शिक्षक, शिवचरण कालभोर भी सरकारी नौकरी में चले गए. गांव के हर परिवार का आजादी के पहले एवं आजादी के बाद १९८5 तक ग्राम रोंढ़ा के प्रत्येक परिवार का एक दो सदस्य सरकारी नौकरी में था. गांव का साक्षरता प्रतिश्सत पहले ही लगभग सौ के करीब होने के कारण गांव काउस जमाने का पांचवी पास भी सीधे नाकेदार बन जाता था.

बाप – बेटे दोनो सेना में
बेटा कारगील का हीरो बना

ग्राम रोंढ़ा के रावत परिवार के मुखिया स्व. झिंगरीया रावत गांव के पहले व्यक्ति थे जो जंगल विभाग मे नाकेदार बने. नाकेदार बाबा का बेटा शंकरलाल रावत सेना में भर्ती होने के बाद सेना से रिटायर होने के बाद पाथाखेड़ा की कोयला खदान में भर्ती हो गया. स्वर्गीय शंकर लाल रावत का बेटा लांस नायक स्व. सुनील पंवार का नाम कारगील के हीरो के रूप मे पहचाना जाता है. पाथाखेड़ा के बस स्टैण्ड के समीप लांस नायक स्व. सुनील पंवार की प्रतिमा शहीद स्तंभ पर स्थापित की जा चुकी है. गांव सें देश की सेनाओ में भी काफी लोग जा चुके है.

डिगरसे परिवार के एक सदस्य बंधु जिसमें प्रमुख है

एक साथ पढ़े सात दयाराम जिसमें
पांच सरकारी नौकरी में दोनो बने किसान

ग्राम रोंढ़ा में एक ही क्लास में सात दयाराम नाम के पंवार जाति के छात्र पढ़ कर सात में से दो दयाराम उकड़ले एवं दयाराम चौधरी ने किसान बन कर अपना जीवन यापन किया और अन्य पांच में दयाराम भोभाट नाकेदार, दयाराम डिगरसे शिक्षक , दयाराम देवासे , दयाराम कालभोर, दयाराम पंवार सरकारी नौकरी में चले गए.

बकाराम कालभोर नाड़ी रोग से जानाकार
उनकी तीन पीढ़ी से आयुर्वेदिक चिकित्सा

गांव के स्वर्गीय बकाराम कालभोर जिले के नामचीन आयुर्वेदाचार्य (वैद्य ) रहे. उनके सुपौत्र डाँ चन्दन कालभोर वर्तमान में उनकी पैतृक विरासत जब कलैक्टर साहब की हुई बोलती बंद संपत पाठा और नत्थु डिगरसे की अग्रेंजी
गंाव के पूर्व सरपंच रहे स्व. संपत पाठा के बारे में एक जानकारी यह भी मिली कि वे अपने जमाने के सर्वाधिक अग्रेंजी के जानकारो में से एक थे. उनकी ही तरह नत्थु डिगरसे की भी अग्रेंजी पर अच्दी पकड़ थी.

एक बार जिला कलैक्टर बैतूल किसी काम से ग्राम रोंढ़ा आए थे और उन्होने अग्रेंजी में कुछ कहा ताकि गांव के लोगो के बीच उनका रूतबा जम जाए लेकिन गांव के एक कोने से संपत पाठा और दुसरे कोने से जब नत्थु डिगरसे ने अग्रेंजी में कलैक्टर को जवाब देना शुरू किया तो वे दंग रह गए क्योकि उनके सामने धोती पहना व्यक्ति नत्थु डिगरसे खड़ा था. संपत पाठा यदि चाहते तो गांव को छोड़ कर सरकारी नौकरी में क्लासवन आफीसर बन जाते लेकिन उन्हे गांव की सरपंची रास आई. गांव छोड़ कर वे भी नहीं गए. यही हाल गांव के नत्थु डिगरसे का है.

महादेव मामा पुराने किस्सो को याद करके बताते है कि हमें तो उस दिन पता कि हमारा पिताजी अग्रेंजी भी पढ़े है. संपत पाठा और नत्थु डिगरसे के सामने कलैक्टर ऐसे झेप गए कि फिर भी दुबारा रोंढ़ा गांव नहीं आए.
कृषि वैज्ञानिक बने संतोष पाठा
स्व.संपत पाठा के ज्येष्ठ सुपुत्र विजय पाठा इंडियन आइल कंपनी में मुख्य प्रबंधक (सुरक्षा) के पद से सेवानिवृत हुए है. इसी तरह स्व. जगन पाठा के ज्येष्ठ सुपुत्र संतोष पाठा वैज्ञानिक के पद से सेवानिवृत होने के बाद महू इन्दौर में बस गए. श्री संतोष पाठा के पुत्र विकास पाठा इन्दौर से आईपीएस की कोचिंग कर रहे है. बेहद चौकान्ने वाली जानकारी यह सामने आई है जिसके अनुसार गांव रोंढ़ा में मुगलो के समय का ऊर्दू मदरसा भी चलता था जबकि इस गांव में एक भी मुसलमान नहीं थे. गांव के बाजार चौक में लगने वाले मदरसे के चलते लोगो को अरबी, फारसी और ऊर्दू का अच्छा ज्ञान हो चुका था. बाद में वहां पर प्रायमरी स्कूल खुला. मुगलो के शासनकाल में गांव रोंढ़ा का आम आदमी अरबी – फारसी उर्दू का जानकार होने का फायदा उन्हे मुगलो की लगान अन्य व्यवस्था में सहयोगी साबित हुआ. गांव के लोग मुगलो की कानून व्यवस्था एवं भू राजस्व व्यवस्था के भी जानकार बन गए. उन्हे किश्तबंदी, खसराबंदी जैसे कई विषयो में जानकारी मिलने से वे गांव के लोगो को समझा सके.

कलैक्टर से लेकर मजिस्टे्रज
साहित्यकार से लेकर पत्रकार तक

वैसे तो रोंढ़ा पवार जाति बाहुल्य गांव है लेकिन गांव में बारह जातियों के लोग रहते है जिसमें खासकर किसानो के हितकारी लोहार, सुनार, बढ़ाई, नाई, धोबी, महार, मांग , ढोलेवार कुंबी जाति के लोग एक साथ एक परिवार के रूप में रहते है. गांव के पंवार समाज के ही नहीं अन्य समाज के लोगो के भी बेटो ने अपना नाम कमाया है. जहां एक ओर गांव के मूल निवासी रामरतन जयसिहंपुरे शिक्षक थे तो दमडू बाबा पहलवान करते थे. इसी दमडू बाबा का नाती एवं श्री उदल जयसिंगपुरे का बेटा कमलनाथ जयसिंगपुरे वर्तमान में रीवा जिला मुख्यालय में जिला न्यायालय में न्यायाधीश (मजिस्टे्रज) के पद कार्यरत है. इसी कड़ी में शंकरलाल करारिया शिक्षक एवं गोरेलाल सरकारी विभाग में थे. गांव के मनोहरी करारियां का बेटा बाबूलाल करारियां गांव के पहले व्यक्ति बने जो डिप्टी रेंजर के पद से सेवानिवृत हुए. इसी तरह डोंगरे परिवार के कई सदस्यों की जड़े रोंढ़ा तक गड़ी हुई है.जेएच कालेज के प्राणि शास्त्र विषय के प्रोफेसर डाँ सुखदेव डोंगरे वैसे मूलत: रोंढ़ा गांव के ही निवासी है. वही दुसरी ओर गांव के ही प्रदीप कालभोर पड़ौसी महाराष्ट्र के चन्द्रपुर, भंडारा, गोंदिया जिले के कलैक्टर के पद से सेवानिवृत होने के बाद नागपुर में बस चुके है. गांव के दीलिप ओमंकार के सुपुत्र श्री रीषि ओंमकार वर्तमान में जबलपुर में डिप्टी कलैक्टर के पद पर कार्यरत है. इसी तरह दीलिप कालभोर महाराष्ट्र में क्षेत्रिय बैंक के महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत है. का बैतूल जिला रेडक्रास सोसायटी के सचिव डाँ अरूण जयसिंगपुरे बैतूल जिला मुख्यालय पर सिटी हास्पीटल के संस्थापक एवं संचालक है. गांव रोंढा के मूल निवासी नंदकिशोर दयाराम पंवार आईबीसी 24 न्यूज चैनल के रिर्पोटर है.

मध्यप्रदेश के कृषि पंडित डाँ केशोराव चौधरी
रायपुर के शुक्ल परिवार के चहेते मिठठू मामा

1970 से 80 के दशक में मध्यप्रदेश में सर्वाधिक गेहूं के उत्पादन में प्रदेश का सर्वोच्च किसान सम्मान कृषि पंडित का सम्मान गांव के ही डाँ केशोराव चौधरी के नाम पर दर्ज है. गांव के ही मिठठू डिगरसे एक मात्र ऐसे व्यक्तिथे जिनकी पकड़ मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. श्यामा चरण शुक्ल एवं केन्द्रीय मंत्री रहे स्व. विद्याचरण शुक्ल के कीचन केबिनेट तक थी. शुक्ल परिवार के सदस्यो में गिने जाने वाले स्व. मिठठू डिगरसे को पूरा परिवार आज भी मिठठू मामा के नाम से जानता एवं पहचानता है. कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता रहे स्व. मिठठू डिगरसे शुक्ल परिवार के सदस्य के रूप में प्रदेश भर में नामचीन चेहरा थे. गांव के गया प्रसाद देवासे उस जमाने के एम ए पास होने के बाद जिला केन्द्रीय भूमि विकास सहकारी बैंक में पदस्थ हो गए. नरसू देवासे का ज्येष्ठ सुपुत्र सुखराम देवासे एमपीईबी में सिक्यूरिटर गार्ड बना तो दुसरा बेटा मिश्रीलाल देवासे सेना में भर्ती हो गया. डिगरसे परिवार में स्व. गुलाबराव डिगरसे शिक्षक के सुपुत्र डिगरसे सहायक यंत्री के रूप में एमपीईबी में पदस्थ है. शंकर लाल डिगरसे शिक्षक , दीनदयाल आरपीएफ में सिपाही, बालकिशन डिगरसे एस ए एफ में तथा एक भाई अन्य सरकारी सेवा में पदस्थ है. इधर मिठठू एवं नत्थू डिगरसे के परिवार में दिनेश एवं रवि डिगरसे दोनो ही सरकारी सेवा में पदस्थ है. गांव के ही गुलाबराव कालभोर ने सौसर में एक निजी महाविद्यालय में अपनी सेवा देने के बाद गांव की ओर अपनी पुश्तैनी खेतीबाड़ी का रूख किया. जबलपुर से एम काम , बीएड साहित्यरत्न की उपाधी प्राप्त गुलाबराव कालभोर गांव के सम्पन्न किसानो में गिने जाते है. गांव की बहू श्रीमति मीना बाई लल्लू बारंगे अपने ससुर की तरह गांव की सरपंच बनी. इसी गांव के छोटेलाल कालभोर एवं बाबूलाल देवासे ग्राम पंचायत रोंढ़ा के सरपंच रहे.

चम्पा का पेड़ और खेड़ापति माता मैया

जहाँ एक ओर लोग सड़को और मकानो तथा दुकानो के लिए हरे भरे पेड़ो को बेरहमी से काटते चले आ रहे है वहीं पर बैतूल जिला मुख्यालय से महज़ मात्र 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम रोंढ़ा में एक चम्पा का पेड लोगो की आस्था एवं विश्वास का केन्द्र बना हुआ है। ग्राम पंचायत रोंढा में सेवानिवृत वनपाल श्री दयराम पंवार के पैतृक मकान से लगे इस पेड की छांव के नीचे विराजमान गांव की चमत्कारी खेडापति माता मैया के चबतुरे पर लगे इस पेड की उम्र लगभग सौ साल से ऊपर बताई जाती है। ग्राम रोंढा की 74 वर्षिय श्रीमति गंगा बाई देवासे के अनुसार उसके जन्म के पहले से इस स्थान पर उक्त चम्पा का पेड है।

श्रीमति देवासे के अनुसार गांव के इस मोहल्ले की उस गली के मोड पर स्थित चम्पा के पेड के नीचे से कभी हाथी आया – जाया करता था लेकिन चम्पा के पेड की एक डाली इस तरह झुक गई कि आदमी अगर उस पेड के नीचे से निकलते समय झुक कर ना चले तो उसका सिर टकरा जाता है। बैतूल जिले के छोटे से सर्वोदयी गांव रहे रोंढा में संत टुकडो जी महराज एवं भूदान आन्दोलन के प्रणेता संत विनोबा भावे के कभी पांव पडे थे।

बैतूल जिले के इस ग्राम पंचायत रोंढा के उस तीन सौ साल से अधिक उम्र के चम्पा के पेड को देखने के लिए लोग दूर – दूर से आते रहते है। वैसे भी जब – जब चमेली के फूलो की बाते चलेगी तो चम्पा के फूलो का जिक्र होना स्वभाविक है क्योकि चम्पा के पेड के तीन गुण वि

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