आज जन्मदिन है-: स्वभाषा के अधिकार को समर्पित पत्रकार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक—– डॉ. अमरनाथ

आज जन्मदिन है-:  स्वभाषा के अधिकार को समर्पित पत्रकार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक—–  डॉ. अमरनाथ

मध्य प्रदेश के इंदौर में जन्मे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले डॉ. वेदप्रताप वैदिक ( जन्म- 30.12.1944) यायावरी प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं. उन्होंने लगभग 80 देशों की यात्राएं की हैं. हिन्दी और अंग्रेजी के अलावा रूसी, फारसी, पश्तो, जर्मन और संस्कृत के भी जानकार हैं. वे भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष, वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक और सुविख्यात हिन्दी व भारतीय भाषाओं के समर्थक हैं. अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युग आरंभ करने वालों में वे अग्रणी रहे हैं.

1957 ई. में सिर्फ 13 वर्ष की आयु में वेदप्रताप वैदिक ने हिन्दी के लिए सत्याग्रह किया और पहली बार जेल गए. बाद में छात्रनेता और भाषाई आन्दोलनकारी के तौर पर उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. उन्हें जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में उस समय काफी लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी जब उन्होंने अन्तरर्राष्टीय संबंध पर अपना शोध- प्रबध हिन्दी में प्रस्तुत किया जिसे विश्वविद्यालय प्रशासन ने अस्वीकार कर दिया और उनसे कहा कि वे अपना शोध- प्रबंध अंग्रेजी में ही लिखकर दें. वैदिक जी भी अडिग रहे और उन्होंने संघर्ष शुरू कर दिया. जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज ने उनकी छात्रवृति रोक दी और स्कूल से उन्हें निकाल दिया. 1966-67 में यह मुद्दा संसद में पहुँचा. संसद में डॉ. राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, आचार्य कृपलानी, हीरेन मुखर्जी, प्रकाशवीर शास्त्री, अटलबिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, भागवत झा आजाद, हेम बरुआ आदि ने वैदिक जी के प्रयास का समर्थन किया. अन्ततोगत्वा श्रीमती इन्दिरा गाँधी की पहल पर स्कूल के संविधान में संशोधन हुआ और वैदिक को वापस लिया गया. इसके बाद तो वे हिन्दी –संघर्ष के प्रतीक बन गए.

डॉ. वैदिक पिछले पचास वर्ष से भी अधिक दिनों से हिन्दी के अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसके लिए उन्होंने अनेक आन्दोलन चलाए और निरंतर लेखन किया. अपने लेखन से उन्होंने सिद्ध कर दिया कि स्वभाषा में किया गया काम अंग्रेजी के मुकाबले बेहतर होता है. उन्होंने एक लघु पुस्तिका ‘विदेशों में हिन्दी’ भी लिखी जिसमें तर्कपूर्ण ढंग से बताया कि कोई भी स्वाभिमानी और विकसित राष्ट्र अंग्रेजी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा में सारा काम करता है. वे कहते हैं, “ मेरे पासपोर्ट पर भारत एक मात्र ऐसा देश है, जिसकी मुहर उसकी अपनी जबान में नहीं है. मैने करीब आधा दर्जन हवाई कंपनियों से विभिन्न देशों की यात्राएं की लेकिन सबमें केवल अपने देश की हवाई कम्पनी यानी, एअर इंडिया की विमान परिचारिकाएं ही एक मात्र ऐसी विमान परिचारिकाएं थीं जो अपने देशवासियों के साथ परदेशी भाषा में बात करती थीं. यदि इस प्रकार की घटनाओं से किसी देश के नागरिकों का सिर ऊंचा होता हो तो सचमुच भारतीय लोग अपने सिर आसमान तक ऊंचा उठा सकते हैं. “(उद्धृत, ‘भाषा विमर्श’, अंक-19, दिसंबर-2017 पृष्ठ- 19)

डॉ. वैदिक के अनुसार हमारे देश में यह धारणा फैली हुई है कि विदेशों में अंग्रेजी ही चलती है. अपना अनुभव बताते हुए वे कहते हैं, “ यहाँ मै केवल उन छोटे- मोटे अनुभवों का वर्णन करूंगा जो पूरब और पश्चिम के देशों में भाषा को लेकर मुझे हुए. मैं एशियायी देशों में अफगानिस्तान, ईरान और तुर्की गया, यूरोपीय देशों में रूस, चेकोस्लोवाकिया, इटली, स्विटजरलैण्ड, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी तथा ब्रिटेन गया तथा यात्रा का अधिकाँश भाग अमेरिका और कनाडा में बिताया. इन देशों में से एक भी ऐसा देश नहीं था जिसकी सरकार का काम-काज उस देश की जनता की जबान में नहीं होता हो.” ( उद्धृत, ‘भाषा विमर्श’, अंक-19, दिसंबर-2017 पृष्ठ- 19)

उन्होंने बताया कि जब वे रूस गए तो मस्क्वा में उन्हें सैकड़ो भारतीय विद्यार्थी मिले जो वहां विज्ञान और इंजीनियरिंग का उच्च अध्ययन कर रहे थे. उन्हें सारी शिक्षा रूसी भाषा के माध्यम से ही दी जाती थी. उन्होंने लिखा है कि, “मस्क्वा में एक बार हम लोग विज्ञान और तकनीक की प्रदर्शनी देखने गए. वहां मालूम पड़ा कि जिस वैज्ञानिक ने अंतरिक्ष यान आदि के आविष्कर किए हैं, उसने अपनी रचनाएं रूसी भाषा में लिखी है. इसी प्रकार जर्मनी और फ्रांस के विश्वविद्यालयों मे ऊंची पढ़ाई उनकी अपनी भाषाओं में होती है. विश्वविद्यालयो के कई महत्वपूर्ण प्राचार्य अंग्रजी नहीं बोल सकते थे.” ( वही पृष्ठ- 19)

भारत में अंग्रेजी का भ्रम जाल तोड़ने और भारतीयों को जागरूक करने के लिए उन्होंने ‘अंग्रेजी हटाओ –क्यों और कैसे ?” नामक पुस्तिका लिखी है. उनकी दो और पुस्तिकाएं मशहूर हैं, एक है- ‘स्वभाषा लाओ’ और दूसरी है, ‘मेरे सपनों का विश्वविद्यालय’.

अपने निर्भीक वक्तव्यों, बेबाक टिप्पणियों और स्वतंत्र विचारों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले वेदप्रताप वैदिक ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने के लिए निरंतर संघर्ष किया है और वे आज भी सक्रिय हैं.

भारत की जनगणना रिपोर्ट के प्रकाशित होने पर उन्होंने अपने फेसबुक पर ‘सवा सौ करोड़ लोगों पर ढाई लाख का शासन’ शीर्षक से एक टिप्पणी लिखी जिसमें उन्होंने लिखा, “भारत भी कितना विचित्र देश है. देश के लगभग सवा सौ करोड़ लोगों पर सिर्फ ढाई लाख लोगों की हुकूमत चल रही है, बल्कि यह कहें तो बेहतर होगा कि सवा सौ करोड़ की छाती पर ढाई लाख लोग सवार हैं…… ताजा जनगणना के मुताबिक देश में अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा बताने वालों की संख्या सिर्फ दो लाख 60 हजार है. अंग्रेजी इन लोगों की मातृभाषा नहीं, प्रथम भाषा है. जाहिर है इनमें से बहुत कम लोग ऐंग्लो इंडियन हैं और अंग्रेजों और अमरीकियों की औलादें तो और भी कम होंगी….. आज हिन्दी को अपनी मातृभाषा कहने वालों की संख्या 60 करोड़ के आस पास होगी. यदि उसमें उर्दूभाषी और पड़ोसी देशों में हिन्दी समझने वालों की संख्या जोड़ दें तो हिन्दी आज विश्व की सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा बन जाती है. ऐसी भाषा को यदि हम सच्ची राजभाषा, सच्ची राष्ट्रभाषा और सच्ची संपर्क भाषा बना सकें और देश की सभी भाषाओं और बोलियों को उचित सम्मान दे सकें तो अगले 10 वर्षों में भारत दुनिया का सबसे अधिक स्वस्थ, मालदार और ताकतवर देश बन सकता है.” ( वेदप्रताप वैदिक के फेसबुक वाल से. 28 जून 2018)

वेदप्रताप वैदिक की भाषा समस्या पर केन्द्रित सबसे मशहूर पुस्तक है, ‘अंग्रेजी हटाओ : क्यों और कैसे?’. इसके अलावा उन्होंने भाषा की समस्या पर केन्द्रित अनेक छोटी- छोटी पुस्तिकाएं प्रकाशित करके लोंगों तक अपनी बात पहुँचाने की कोशिश की है.

उनकी भाषा समस्या से इतर पुस्तकें हैं, ‘भारतीय विदेशनीति : नये दिशा संकेत’, ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमरीकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अफगानिस्तान : कल आज और कल’, ‘वर्तमान भारत’, ‘महाशक्ति भारत’ तथा ‘हिन्दी का सम्पूर्ण समाचार पत्र कैसा हो?’. उन्होंने ‘हिन्दी पत्रकारिता : विविध आयाम’ शीर्षक पुस्तक का संपादन किया है. वैदिक जी की एक पुस्तक ‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका : इंडियाज ऑप्शंस’ अंग्रेजी में भी प्रकाशित है.

वेदप्रताप वैदिक के कुछ कृत्य काफी विवादास्पद भी हैं. बिना भारत को औपचारिक रूप से सूचित किए 5 जनवरी 2014 को लाहौर में उन्होंने जमात-उद-दावा के मुखिया और लश्कर के सरगना खूँखार आतंकवादी हाफिज सईद से भेंट की थी और भारत में आकर खुद ही उसके बारे में विस्तार से बताया था. इस बात को लेकर संसद में भी चर्चा हुई थी. वेदप्रताप वैदिक के इस कार्य की काफी आलोचना हुई थी. दरअसल आत्म-श्लाघा वैदिक जी का स्वभाव है. शायद इसी कमजोरी ने उन्हें हाफिज सईद से मिलने के अवसर को चूकने नहीं दिया, जिसके कारण वे विवादों के घेरे में आ गए.

वेदप्रताप वैदिक अच्छे वक्ता हैं. उनकी स्मरण शक्ति भी बहुत अच्छी है. हिन्दी परिवार को टूटने से बचाने और उसकी बोलियों को हिन्दी के साथ संगठित रखने के उद्देश्य से ‘अपनी भाषा’ और ‘हिन्दी बचाओ मंच’ ने 15 जनवरी 2017 को दिल्ली के जंतर मंतर पर एक दिन का धरना- प्रदर्शन किया गया था. वेदप्रताप वैदिक दिनभर उस धरने में शामिल रहे. विगत कुछ वर्षों से वेदप्रताप वैदिक जहाँ भी व्याख्यान देने जाते हैं अपने श्रोताओं से अपनी भाषा में हस्ताक्षर कराने का संक्ल्प जरूर कराते हैं.

हम वैदिक जी के जन्मदिन पर हिन्दी के लिए किए गए उनके महान कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए उनके सुस्वास्थ्य व सतत सक्रियता की कामना करते हैं.

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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