- March 4, 2022
आईपीसीसी रिपोर्ट ने पेश की डरावनी तस्वीर
लखनऊ (निशांत कुमार )— जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट भविष्य की एक भयावह तस्वीर पेश करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर कार्बन उत्सर्जन मौजूदा रफ्तार से बढ़ता रहा तो वर्ष 2100 तक लगभग पूरे भारत में वेट बल्ब टेंपरेचर 35 डिग्री सेल्सियस के जानलेवा स्तर तक पहुंच जाएगा।
विशेषज्ञों का मानना है कि आईपीसीसी की यह रिपोर्ट बेहद ठोस, तात्कालिक और सार्थक सामूहिक प्रयास किये जाने की जरूरत पर जोर देती है। अब जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये सेक्टोरल के बजाय ट्रांसफॉर्मेशनल सुधार की जरूरत है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा पिछली 28 फरवरी को जारी की गयी नवीनतम असेसमेंट रिपोर्ट वैश्विक स्तर पर बढ़ते कार्बन उत्सर्जन और उसकी वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन के मानव पर पड़ रहे असर की तस्वीर दर्शाती है। आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप 2 द्वारा जारी इस रिपोर्ट में भारत से सम्बंधित चिंता के विषय का भी उल्लेख किया गया है।
इन्हीं बातों पर विस्तृत रूप से चर्चा करने के लिए डब्ल्यू आई आई इंडिया द्वारा मध्य प्रदेश सरकार के एप्को, बिहार सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, क्लाइमेट ट्रेंड्स व संयुक्त राष्ट्र एनवायरनमेंट प्रोग्राम के सहयोग से बुधवार को एक ऑनलाइन परिचर्चा का आयोजन किया। इसमें आईपीसीसी रिपोर्ट के प्रमुख भारतीय लेखकों ने खुद भारत में निकट भविष्य में जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों तथा अनुकूलन पर किये जा रहे प्रयासों पर प्रकाश डाला।
मध्य प्रदेश सरकार के राज्य जलवायु परिवर्तन ज्ञान प्रबंधन केंद्र, पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन, पर्यावरण विभाग में समन्वयक श्री लोकेंद्र ठक्कर ने कहा कि आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट हमें भविष्य के खतरों के बारे में आगाह करती है। यह रिपोर्ट हमें बताती है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और भविष्य के जोखिम क्या हैं, संसाधनों का कैसा अभाव होगा और उससे खतरों की समस्या की तीव्रता कैसे बढ़ेगी। खास बात यह है कि समाज के हाशिए पर जो लोग हैं उन पर इसका क्या असर होगा, इस बारे में भी यह रिपोर्ट बहुत विस्तार से बताती है। इस रिपोर्ट के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव का कहना है कि यह मानवीय त्रासदी का एक एटलस है और यह राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व की विफलता भी है। इससे हमें जाहिर होता है कि अब हमें निश्चित रूप से कुछ करना होगा।
उन्होंने कहा कि आईपीसीसी की रिपोर्ट से जाहिर होता है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव हमारे अनुमानों से कहीं ज्यादा हैं। अगर हमने वायुमंडल के कार्बन को सोख लिया तो भी 2040 तक वायुमंडल में जो हमने कार्बन छोड़ रखा है, उसके दुष्प्रभाव हमें झेलने होंगे।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि अगर हमने वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर लिया तो भी हमारा पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षित नहीं रहेगा और पेयजल का भारी संकट हो सकता है। मुझे ऐसा लगता आता है कि जलवायु परिवर्तन का खतरा चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ेगा।
श्री ठक्कर ने कहा कि इस रिपोर्ट में जितनी चीजों के बारे में इशारा किया गया है वे हमारे सामने एक किस्म का निराशाजनक और चिंताजनक परिदृश्य रखती हैं, लेकिन सवाल यह है कि कि क्या हमारे पास कोई विकल्प है। रिपोर्ट में अनुकूलन की बात भी की गई है लेकिन रिपोर्ट कहती है कि एक सीमा के बाद हम खुद को अनुकूल नहीं कर पाएंगे। एक वक्त ऐसा आएगा जब स्थितियां इतनी गंभीर हो जाएगी। हम अपने आपको हालात से ढाल नहीं पाएंगे और वह वक्त आने में ज्यादा समय नहीं है। हमें इस रिपोर्ट को बहुत गंभीरता से लेना होगा। आईपीसीसी अपनी पहली ही आकलन रिपोर्ट से जलवायु परिवर्तन के खतरों से दुनिया को आगाह करती आई है लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इस दिशा में कुछ कर रहे हैं।
बिहार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग के प्रधान सचिव श्री दीपक कुमार सिंह ने इस अवसर पर कहा कि आईपीसीसी की रिपोर्ट अपनी तरह की कोई पहली रिपोर्ट नहीं है। इस तरह की कई रिपोर्ट के माध्यम से हमें पहले भी खतरों के बारे में बताया गया है। हम हर बार नए सम्मेलनों में नए-नए वादे करते हैं, नए लक्ष्य तय करते हैं लेकिन कुछ भी सार्थक नहीं हो पाता। यह मात्र कार्बन पर अपनी निर्भरता कम करने की बात नहीं है।
उन्होंने कहा कि मूल तौर पर हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव लाने की बात करनी होगी। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक हम ना तो जलवायु परिवर्तन का सामना कर सकते हैं और ना ही हम इसके प्रभावों को कम कर सकते हैं।
बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष श्री ए.के. घोष ने कहा कि आईपीसीसी की रिपोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर हम अभी नहीं चेते तो कल बहुत देर हो जाएगी। बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है। इस रिपोर्ट से हमें यह मार्गदर्शन मिलेगा कि कैसे हम अपनी नीतियों में बदलाव करें और उन्हें जमीन पर उतारें। रिपोर्ट हमें अनुकूलन के लिए निर्देश देती है लेकिन उसे जमीन पर उतारने के लिए काम करना होगा। अगर हम जनसंख्या वृद्धि को नहीं रोकते हैं और अपनी जीवन चर्या में बदलाव नहीं करते हैं तो आने वाले 10-15 वर्षों में हालात बिल्कुल बेकाबू हो जाएंगे। हम अपने राज्य को कार्बन न्यूट्रल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि बिहार देश में ऐसा पहला राज्य बने जो कार्बन न्यूट्रल हो। इस लिहाज से भी आईपीसीसी की यह रिपोर्ट हमारे लिए बहुत मूल्यवान है।
इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में शोध निदेशक डॉक्टर अंजल प्रकाश ने आईपीसीसी की रिपोर्ट के विभिन्न पहलुओं का विस्तार से जिक्र करते हुए कहा कि यह रिपोर्ट 3649 पेज की है। लगभग 200 वैज्ञानिकों ने इसे लिखा है और इसके लिए 34000 प्रकाशनों का आकलन किया गया। रिपोर्ट में जलवायु संबंधी अनुकूलन और उस पर हम क्या कर सकते हैं और लोगों की जिंदगी में इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसकी काफी पुरजोर तरीके से व्याख्या की गई है। रिपोर्ट यह कह रही है कि भौतिक जलवायु बहुत तेजी से बदल रही है और लोगों की जीवन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है इसे जानना बहुत आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट में दो तीन बातें नयी हैं पहली बात तो यह है कि इसमें स्थानीय स्तर पर क्लाइमेट मेनिफेस्टेशन कैसे हो रहा है, इसे भी आप देख सकते हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि रिपोर्ट में स्थानीय ज्ञान के समावेश की बात कही गयी है। रिपोर्ट में महिलाओं और गरीब वर्ग के लोगों पर जलवायु परिवर्तन के क्या प्रभाव पड़ते हैं और उसका क्या समाधान हो सकता है इस पर भी व्यापक चर्चा की गई है।
डॉक्टर प्रकाश ने कहा अभी तक जो ग्लोबल वार्मिंग है, वह 1.1 डिग्री सेल्सियस हो चुकी है और इसका व्यापक असर हमारी जिंदगी पर पड़ रहा है। इस रिपोर्ट में हमारी जिंदगी पर शहरीकरण के प्रभाव के बारे में भी व्यापक चर्चा की गई है। नगरीय इलाकों में आर्थिक गतिविधियां बहुत तेजी से बढ़ रही हैं, रिपोर्ट में उनके प्रभावों पर बात की गई है। इस रिपोर्ट में स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के पड़ने वाले प्रभाव पर भी व्यापक चर्चा हुई है। इसमें एक वेट बल्ब तापमान का जिक्र किया गया है जिसमें गर्मी और उमस को जोड़कर देखा गया है और आम इंसान के लिए इसका 35 डिग्री सेल्सियस बहुत खतरनाक है। अगर यह 32 से 34 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया तो यह असहनीय हो जाएगा। लखनऊ और पटना में यह तापमान 35 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने की आशंका है।
इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट की डॉक्टर चांदनी सिंह ने कहा कि आईपीसीसी की रिपोर्ट वर्ष 2030, 2007 और सदी के अंत की जो तस्वीर पेश करती है, उससे साफ जाहिर है कि जोखिम बहुत बढ़ रहा है। यह जोखिम सब जगह के लिए एक बराबर नहीं होंगे। जाहिर है कि हमारे समाज में कुछ लोगों पर इसका ज्यादा असर होगा। रिपोर्ट में वेट बल्ब टेंपरेचर के 35 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने की आशंका व्यक्त की गयी है। अगर एक स्वस्थ इंसान इस वेट बल्ब तापमान पर पेड़ के नीचे छह घंटे बैठ जाए तो उसके मरने की स्थिति हो जाती है। अभी ज्यादातर इलाकों में ऐसी स्थिति नहीं है लेकिन चेन्नई समेत कई इस जिले ऐसी स्थिति में पहुंच रहे हैं और अगर ऐसे ही उत्सर्जन बढ़ता रहा तो वर्ष 2100 तक हम लगभग पूरे भारत में ऐसा ही तापमान देखेंगे।
उन्होंने कहा कि यह रिपोर्ट एक मायने में सबसे अलग है। इस रिपोर्ट में हमें एक बात बहुत स्पष्ट रूप से बतायी गयी है कि वह वक्त अब चला गया है जब हम प्रत्येक क्षेत्र में थोड़ा-थोड़ा कुछ कर सकते थे यानी इंक्रीमेंटल एडेप्टेशन कर सकते थे लेकिन इस रिपोर्ट में ट्रांसफॉरमेशनल एडेप्टेशन की बात कही गई है। यानी हमें विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ संचालित करने के लिए कार्यक्रम बनाना पड़ेगा। इसके तहत सारे सेक्टरों और सभी लोगों को साथ लेकर चलना पड़ेगा। अब देखना यह है कि हम कैसे एकजुट होकर इंक्रीमेंटल एडेप्टेशन से निकलकर ट्रांसफॉरमेशनल एडेप्टेशन पर आते हैं।
भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद के डॉक्टर राजीव पांडे ने कहा हम लोगों के लिए यह रिपोर्ट इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि हमारा देश एक पिछड़ा हुआ देश है और ज्यादातर जनसंख्या कृषि पर आधारित है। जलवायु परिवर्तन का सीधा सीधा असर कृषि उत्पादकता पर पड़ता है और हमारे गरीब वर्ग के लोग प्राकृतिक संसाधनों पर काफी हद तक निर्भर करते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि जो नुकसान हो चुका है उसकी भरपाई कैसे की जाए, उसके बारे में इस रिपोर्ट पर काफी चर्चा की गई है। हम लोगों को ट्रांसफॉरमेशनल अप्रोच अपनाना होगा।
उन्होंने कहा कि मेरा अपना मानना है कि जलवायु परिवर्तन, उसके प्रभाव और उसके जोखिम से सम्बन्धित अध्ययनों को स्थानीय स्तर पर ज्यादा से ज्यादा किया जाना चाहिए। वैश्विक रिपोर्टों को एक संकेत के तौर पर लिया जा सकता है कि किस तरह की समस्याएं आ सकती हैं और उनके कौन-कौन से समाधान हो सकते हैं। बिहार में कोसी की बाढ़ को देखें तो इस पर बात होनी चाहिए कि हम कैसे इस बाढ़ को रोक सकते हैं और हम अनुकूलन के किस स्तर पर बात कर सकते हैं। हमारे पास इसके लिये ठोस विश्लेषण होना चाहिए। अगर हम ऐसे विश्लेषणों को राज्य वैशेषिक स्तर तक ले जाएं तो संभवत: हम जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जरूरी कदमों को स्थानीय स्तर पर बेहतर तरीके से उठा पाएंगे।
लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री हृदयेश जोशी ने इस मौके पर जलवायु परिवर्तन और उसके कारण आने वाली आपदाओं से निपटने के लिये सरकार, समाज और मीडिया में व्याप्त उदासीनता का जिक्र करते हुए कहा कि पर्यावरण पर बात करने से पहले यह देखना होगा कि पर्यावरण की वजह से हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है मगर जो मीडिया रिपोर्टिंग हो रही है उसमें जलवायु परिवर्तन जैसे बहुत महत्वपूर्ण विषय पर बहुत कम बात होती है। उसी पहलू की रिपोर्टिंग होती है जिस पर लोगों का ध्यान खिंचे। अक्टूबर-नवंबर में स्मॉग की चर्चा को होती है। आज सड़क पर पैदल या साइकिल से चलने वालों के लिये जगह नहीं है। हमें नीति निर्धारकों के सामने यह बात रखनी होगी कि उन्होंने जो तंत्र और व्यवस्था बनायी है उसमें पैदल चलने वाले और साइकिल चलाने वालों के लिए कोई जगह नहीं है। जब हम इन चीजों जोड़ेंगे तब एक ऐसा सिस्टम तैयार होता है जो जलवायु परिवर्तन से लड़ सकता है।
उन्होंने केदारनाथ में वर्ष 2013 में आयी आपदा और 2021 में धौलीगंगा की घटना का जिक्र करते हुए कहा कि इन दोनों आपदाओं के बीच आठ साल का फासला है। इस दौरान हमने ऐसा कोई पूर्व चेतावनी तंत्र नहीं बनाया जिससे लोगों को आगाह कर उनकी जान बचायी जा सके।
गांव कनेक्शन संस्था में डिप्टी मैनीजिंग एडिटर सुश्री निधि जमवाल ने कहा कि कई बार हम लोग यह सोचते हैं कि गांव के लोग और किसान जलवायु परिवर्तन को नहीं समझते हैं, तो मेरे ख्याल से यह बहुत गलत सोच है। वर्ष 2019 में गांव कनेक्शन ने देश के 19 राज्यों में एक सर्वे कराया था जिसमें यह निकल कर आया था कि सर्वे के दायरे में लिया गया हर पांचवां किसान यह बोला कि जलवायु परिवर्तन के कारण उनकी खेती पर सीधा असर पड़ रहा है।