आईआईएम निदेशक की हिटलरशाही

आईआईएम  निदेशक की हिटलरशाही

बिजनेस स्टैंडर्ड —– आईआईएम अहमदाबाद (आईआईएमए) में हाल के दिनों में काफी उथलपुथल रही। वहां के लगभग आधे अध्यापक निदेेशक द्वारा ‘लोगो’ में बदलाव की घोषणा से नाराज हैं और उन्होंने संचालक मंडल के चेयरमैन को इस विषय में पत्र लिखा है।

उन्होंने पत्र में लंबे समय से स्थापित मानकों के उल्लंघन समेत संचालन के प्रश्न भी उठाए हैं।

अन्य आईआईएम भी संकट से मुक्त नहीं हैं। आईआईएम कलकत्ता में पिछले निदेशक और फैकल्टी के बीच 2021 से ही संवाद भंग था। यह मामला निदेशक की कार्यावधि पूरी होने से पहले विदाई से ही हल हुआ। आईआईएम रोहतक में बोर्ड ने मौजूदा निदेशक को दूसरा कार्यकाल दे दिया जबकि उनके पहले कार्यकाल से जुड़ा विवाद भी अभी हल नहीं हुआ है। ऐसे तमाम और उदाहरण हैं। अब वक्त आ गया है कि 2017 के आईआईएम अधिनियम से हुए अनुभवों की समीक्षा करके जरूरी सुधार किए जाएं।

आईएमएए शीर्ष प्रबंधन संस्थान है और ऐतिहासिक रूप से भी विभिन्न आईआईएम के बीच उसका संचालन बेहतर रहा है। आईआईएम अधिनियम के बाद आईआईएमए पर नजर डालने की आवश्यकता है ताकि आईआईएम व्यवस्था में संचालन के जरूरी सबक हासिल किए जा सकें।

आईआईएमए में मामला केवल लोगो में बदलाव का नहीं है। बल्कि इसका संबंध उससे संबंधित प्रक्रिया से भी है। बोर्ड ने दो लोगो मंजूर किए थे जो निदेशक को मिले और फिर फैकल्टी को इस बदलाव के बारे में सूचित किया गया। बोर्ड ने इस मसले पर फैकल्टी की राय नहीं पूछी।

आईआईएमए लंबे समय से स्वयं के फैकल्टी संचालित संस्थान होने पर गर्व करता रहा है जहां कई महत्त्वपूर्ण निर्णय मसलन: दाखिला, प्लेसमेंट, पाठ्यक्रम, शिक्षकों की नियुक्ति आदि फैकल्टी द्वारा लिए जाते हैं। यही उसकी विशिष्टता और उसकी सफलता का राज था।

समय के साथ फैकल्टी का संचालन क्षीण हो गया और निर्णय प्रक्रिया बोर्ड के हाथों में चली गई। एक अहम क्षण 2008 में आया जब संस्थान ने अपने स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के शुल्क में 100 प्रतिशत से अधिक बढ़ोतरी की घोषणा की। आईआईएमए के इतिहास में सबसे बड़ी शुल्क वृद्धि की सूचना फैकल्टी को तब दी गई जब बोर्ड उसे मंजूरी दे चुका था।

फैकल्टी को नाराज करने वाले कई मसलों का हल नहीं निकल सका। ताजा विवाद में ऐसा ही एक विषय है फैकल्टी के दो सदस्यों की बोर्ड में नियुक्ति। इरादा नेक था और वह यह कि दो सदस्य फैकल्टी और बोर्ड के बीच सेतु का काम करेंगे। आईआईएमसी तथा आईआईएमबी में फैकल्टी बोर्ड में अपने प्रतिनिधि चुनती है। आईआईएमए में निदेशक उनका चयन करता है। ऐसे में ये प्रतिनिधि फैकल्टी के प्रवक्ता नहीं होते। एक अन्य विवादित विषय है डीन की नियुक्ति के मानकों की अनुपस्थिति। यह पद निदेशक से ठीक नीचे होता है।

आईआईएम अधिनियम ने आईआईएमए में फैकल्टी का संचालन क्षीण होने की गति बढ़ा दी है। प्रमुख आईआईएम अधिनियम के आने के पहले भी काफी हद तक स्वायत्त थे। अधिनियम ने ऐसी स्वायत्तता को औपचारिक स्वरूप प्रदान किया और चेयरमैन तथा निदेशक की नियुक्ति बोर्ड के हाथों में छोड़कर इसे बढ़ाया। आईआईएम अधिनियम के आगमन के बाद बड़ा बदलाव यह है कि सरकार ने आईआईएम के कामकाज को प्रभावित न करने का निर्णय लिया। केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार दोनों के एक-एक प्रतिनिधि बोर्ड में हैं। इन नामित व्यक्तियों की भूमिका निष्क्रिय ही रहती है। पहले फैकल्टी यह आशा कर सकती थी कि चेयरमैन के प्रतिक्रिया न देने पर सरकार हस्तक्षेप कर सकती है। अब यह संभावना भी नहीं।

आईआईएम अधिनियम कहता है कि बोर्ड सरकार के प्रति जवाबदेह है। आईआईएम बोर्ड को हर तीन वर्ष में संस्थान के प्रदर्शन का आकलन एक स्वतंत्र एजेंसी के माध्यम से कराना होता है। इसके बाद वह सरकार के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करता है और फिर वह रिपोर्ट सार्वजनिक की जाती है। आईआईएमए तथा आईआईएमसी की वेबसाइट पर ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं मिलती। आईआईएमबी के बारे में जानकारी है कि उसकी बाहरी समीक्षा समाप्त होने वाली है। शिक्षा मंत्रालय को तत्काल बताना चाहिए कि कितने आईआईएम आईआईएम अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों का पालन कर रहे हैं।

अमेरिका में उच्च शिक्षा संस्थानों के बोर्ड में बड़े दानदाता शामिल रहते हैं जिनकी इन संस्थानों में हिस्सेदारी रहती है। शीर्ष संस्थानों के बीच भारी प्रतिस्पर्धा भी है। ये दोनों कारक जवाबदेही की मांग करते हैं। यदि किसी संस्थान की रैंकिंग तेजी से गिरती है तो जवाबदेही तय होना सुनिश्चित है।

भारत में शीर्ष आईआईएम के सामने सार्थक प्रतिस्पर्धा नहीं है। बोर्ड सदस्य आते-जाते रहते हैं और उनकी आईआईएम में कोई हिस्सेदारी नहीं है। ऐसे में यह आशा करना बेमानी है कि आईआईएम के बोर्ड जवाबदेही तय करेंगे।

जाहिर है आईआईएम की व्यवस्था में संचालन की गंभीर कमी है। निदेशक या बोर्ड की कोई सार्थक जवाबदेही नहीं है। संचालन की कमी दूर करने की जरूरत है।

सबसे पहले तो सरकार को आईआईएम के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति त्यागनी होगी। जब तक कोई उच्च शिक्षा नियामक नहीं बनता सरकार को आईआईएम में निर्णायक की भूमिका निभानी होगी।

आईआईएम अधिनियम में संशोधन करके पहले की तरह सरकार के चार नामित प्रतिनिधियों (दो केंद्र दो राज्य सरकार) की व्यवस्था वापस लानी चाहिए। जरूरी नहीं कि ये नामित व्यक्ति शिक्षा मंत्रालय से हों। सरकार काबिल व्यक्तियों को वैसे ही यहां नियुक्त कर सकती है जैसे सरकारी कंपनियों में स्वतंत्र निदेशक नियुक्त किए जाते हैं। एक बार सरकार के नामित प्रतिनिधि सक्रिय भूमिका निभाने लगें तो बोर्ड में जीवंतता आ जाएगी।

दूसरी बात, सरकार को आईआईएम सलाहकार बोर्ड (आईएबी) का भी गठन करना चाहिए जिसे अधिनियम के अनुसार ही हर तीन वर्ष पर प्रत्येक आईआईएम प्रदर्शन को स्वतंत्र ढंग से परखने का काम सौंपा जाए। बोर्ड को अंकेक्षण करने को कहना बेतुका है क्योंकि बोर्ड को स्वयं आकलन की आवश्यकता होती है। आईएबी से यह भी कहा जा सकता है कि वह अन्य आईआईएम के लिए चेयरमैन और निदेशकों का सुझाव दे। जरूरी समझे जाने पर वह प्रमुख आईआईएम के लिए भी ऐसा कर सकता है। उसकी भूमिका वैसी ही होगी जैसी सरकारी बैंकों के लिए बैंक्स बोर्ड ब्यूरो की होती है।

तीसरी बात, आईआईएम अधिनियम में संशोधन करके यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बोर्ड में चुने जाने वाले फैकल्टी सदस्य निदेशक द्वारा नहीं बल्कि फैकल्टी द्वारा चुने जाएं।

चौथी बात, बोर्ड में सरकार के प्रतिनिधियों को जोर देना चाहिए कि अहम पदों मसलन डीन, बोर्ड की सदस्यता तथा फैकल्टी का आकलन करने वाली समिति की सदस्यता के लिए अर्हता स्पष्ट हो।

आईआईएम सरकारी संस्थान हैं और उनका स्वायत्त दर्जा सरकार की उदारता पर निर्भर है। यदि व्यवस्था में जवाबदेही की कमी के चलते आईआईएम की मजबूत छवि को धक्का पहुंचता है तो यह दुखद होगा।

(लेखक आईआईएमए के पूर्व प्राध्यापक हैं)

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