आँसुओं की दो बूँद बन गया सैलाब!—- सज्जाद हैदर-(वरिष्ठ पत्रकार एवं राष्ट्र चिंतक)

आँसुओं की दो बूँद बन गया सैलाब!—-   सज्जाद हैदर-(वरिष्ठ पत्रकार एवं राष्ट्र चिंतक)

देश के सामने एक नया सवाल आकर खडा हो गया। क्या किसानों को एक नया जुझारू नेता मिल गया। क्या किसानों को फिर अपनी जुबान मिल गई। यह बड़ा सवाल है। क्योंकि देश में किसानों की हिस्सेदारी कितनी है यह इस बात से समझा जा सकता है कि आज हम बुलेट ट्रेन के क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं लेकिन यह आधुनिकता हमें आर्थिक क्षेत्र में आगे नहीं ले जा पा रही है। यह भी एक अडिग सत्य है। क्योंकि देश की जीडीपी में आज के इस आधुनिक भारत में भी किसान सीना तानकर सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा है। क्योंकि देश की आर्थिक तकदीर का भाग्य लिखने वाला कोई और नहीं वह देश का किसान ही है। आज भी देश की जीडीपी में कृषि का योगदान 50 प्रतिशत से भी अधिक है। यह एक ऐसा सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आज के इस चका चौंध से भरे हुए समाज में धोती कुर्ता और हवाई चप्पल पहनने वाला किसान देश की आत्मा को जो ताकत प्रदान कर रहा वह अपने आपमें एक मिसाल है।

क्या यह सत्य नहीं कि देश के अंदर अनेकों प्रकार के उद्योग स्थापित हो चुके हैं। क्या यह सत्य नहीं की देश के अंदर अनेकों प्रकार की सेवाएं देने वाली कंपनियाँ अपने अपने क्षेत्र में बहुत ही तेजी के साथ दौड़ रही हैं। लेकिन इस फर्राटा भरते हुए दौर में भी धोती कुर्ता वाले किसान का कोई भी सेक्टर आर्थिक विकास के क्षेत्र में मुकाबला करने की क्षमता नहीं जुटा पा रहा है। क्या यह आधुनिक सामाज के लिए बड़ा संदेश नहीं है। इस पर चिंतन और मनन करने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा सत्य है जिसे नाकारा नहीं जा सकता। देश के रिजर्व बैंक से लेकर सीएसओ तक। विश्व बैंक तथा आईएमएफ तक भारत के किसानों को सलाम करता है। क्योंकि किसान ही वह देवता है जोकि देश की आर्थिक तस्वीर का भाग्य लिखता है। जब पूरा संसार कोरोना के कारण आर्थिक मंदी के दल-दल में गुम हो गया तो इसी कृषक समाज ने देश की आर्थिक स्थिति को उस गहरे दल-दल से खींचकर पटरी पर लाने का कार्य किया। लेकिन बहुत ही चिंता का विषय यह है कि देश को आर्थिक बल देने वाला किसान आज रो रहा है। यह बड़ी ही चिंता का विषय है। यह बड़ी शर्म की बात है। इसके पीछे कारण क्या है…? सोचिए !
शर्म की बात यह है कि गुंड़ो की फौज किसानों को हटाने के लिए निकल पड़े यह बहुत ही दुखद है। यह बहुत ही शर्म की बात है। जिस प्रकार की सूचनाएं निकलकर आ रही हैं कि गुंडों का झुंड अपने अनुसार किसानों को हटाना चाह रहा था वह बहुत ही शर्म की बात है। क्या उन गुंडों को यह पता है कि वह इन किसानों के कितने ऋणी हैं। क्या उन गुडों को यह पता है कि वह इन किसानों के कितने कर्जदार हैं। शायद नहीं पता। क्योंकि अगर पता होता तो शायद वे ऐसा करने की नहीं सोचते। यह बड़ा सवाल है। क्योंकि यह वह किसान हैं जिनका कर्ज कोई भी नहीं उतार सकता। जरा सोचिए खेत से लेकर देश की सीमा पर सुरक्षा की जिम्मेदारी भी इन्हीं किसानों के मजबूत कंधों पर ही टिकी हुई है। इन्हीं किसान के ही वह बेटे हैं जोकि देश की सीमा पर अपना सीना तानकर खड़े हुए हैं।

लेकिन दुखद यह है कि आज इतनी प्रगति के बाद भी किसान जिस प्रकार की त्रास्दी से जूझ रहा है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। क्योंकि जिसे संसद में जिताकर किसान भेजता है वह पूरी तरह से किसानों की कसौटी पर शायद खरा ही नहीं उतरता। यह बड़ी अजीब स्थिति है। आज देश का किसान शायद अपना नेतृत्व ढ़ूँढ़ रहा है। क्योंकि यह वही किसान है जिसने चौधरी चरन सिंह जैसे कद्दावर नेता को सींचकर तैयार किया। यह वही किसान है जिसने जय प्रकाश जी को देश के सामने मजबूती के साथ खड़ा किया। लेकिन दशकों से इस किसान के पास शायद कोई नेता नहीं रहा जिसकी तलाश यह किसान दशकों से कर रहा है। क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी कोई किसान नेता देश की पटल पर उभरकर आया तो वह किसान आंदोलन से ही निकलकर आया। जिसका एक लंबा इतिहास है। फिर चाहे वह स्वतन्त्रा के पहले का इतिहास हो अथवा स्वतन्त्रा के बाद का। फिर चाहे वह फिरंगियों का शासनकाल हो अथवा देश की चुनी हुई सरकारों का। किसानों के आंदोलन ने सदैव ही देश को नई दिशा देने का कार्य किया है।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि किसानों के आंदोलन ने इतिहास के पन्नों को एक बार फिर से पलटने का कार्य किया है। उसका मुख्य कारण यह है सरकार के द्वारा किसानों के लिए नया नियम बना दिया गया। जिसे साधारण भाषा में किसान बिल कहते हैं। जिसका किसानो के द्वारा दो महीने से अधिक समय से विरोध किया जा रहा है। लेकिन सरकार और किसान के बीच कोई बात नहीं बनी।

किसान जहाँ बिल रद्द करने की बात कहते आए हैं वहीं सरकार इस बिल पर अड़ी हुई है। सरकार की ओर से यह साफ संदेश दिया गया कि बिल रद्द नहीं किया जाएगा। साथ ही किसान की खरीद के लिए एमएसपी पर कानून को लेकर भी विवाद छिड़ा हुआ है। इस छिड़े हुए आंदोलन ने एक नया मोड़ तब ले लिया। जब 26 जनवरी को लाल किले पर एक विशेष धर्म से संबन्धित झंडा फहराने की शर्मनाक घटना घटित हो गई। यह एक ऐसी घटना थी जिसने पूरे आंदोलन पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। जिसमें सरकार एवं प्रशासन तथा किसान के बीच एक दीवार खड़ी हो गई। जिसमें पूरी तरह से धरना के ऊपर सवाल खड़े हो रहे थे अथवा सवाल खड़े किये जा रहे थे यह अलग विषय है। लेकिन लाल किले के ऊपर एक अलग से झंड़ा फहरा देना एक बड़ा ही संगीन अपराध है। क्योंकि लाल किला देश का गौरव है। जिस पर इस तरह का कुकृत्य एक गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है। जिसकी जाँच होना बहुत ही आवश्यक है। यह जाँच का विषय है। लेकिन क्या इस साजिश के पीछे का पर्दा उठ पाएगा यह तो समय ही बताएगा। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों के द्वारा किया जा रहा धरना पूरी तरह से बिखरने लगा। जिसमें पानी बिजली तक बंद कर दी गई। साथ ही कुछ बाहरी लोग भी किसानों के कैंपों की तरफ बढ़ गए जिसमें स्थिति और नाजुक हो गई। खास बात यह भी रही कि पुलिस प्रशासन भी पूरी तरह से धरना समाप्त करवाने के लिए मुस्तैद हो गया।

धरना में टर्निंग प्वाईंट का मुख्य कारण यह रहा कि कुछ बाहरी व्यक्तियों तथा प्रशासन के द्वारा धरना समाप्त करवाने के लिए जिस प्रकार के रुख अपनाने का संकेत दिखाई दिए थे जिसमें राकेश टिकैत ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला और अपनी बात को रखने का प्रयास किया। जिसमें राकेश टिकैत अपने किसानो से यह कह रहे थे कि कोई भी किसान कुछ नहीं करेगा। अगर यह बाहर से आए हुए लोग हमें मारते हैं तो हम मार भी खा लेंगे। अगर यह लोग गोली चलाते हैं तो हम गोली भी खा लेंगे। लेकिन हम धरने पर बैठे रहेंगे। इस बड़े दर्द को राकेश सहन कर रहे थे लेकिन बात ही बात में राकेश भावुक हो गए और उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े। राकेश की आँखो से आँसू का निकलना किसानों को पूरी तरह से चुभ गया। जिसका संदेश यह गया कि क्या सरकार एवं प्रशासन तथा कुछ गुंडे आन्दोलन को जबरन दबाना चाह रहे हैं। बस हवा यहीं से पूरी तरह से आंदोलन के पक्ष में मुड़ गई।

राकेश टिकैत का भावुक होना किसानों के दिल के अंदर बड़ी जगह बनाने में पूरी तरह से सफल हो गया। राकेश टिकैत अपनी बात जनता तक पहुँचाने में कामयाब हो गए। हवा के रुख के मुड़ते ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान की पंचायत ने ब़ड़ा फैसला किया। जिससे कि आंदोलन में फिर से जान फूँक दी गई।

बता दें कि राकेश टिकैत एक ऐसे परिवार से आते हैं जिनके पिता देश के बड़े एवं सफल किसान नेता के रूप में जाने जाते थे। जिनका नाम चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत था। जिन्होंने देश के उस सबसे शोषित वर्ग को जुबान दी जो अपनी बात कह पाने में भी समर्थ नहीं था। देश का अन्नदाता किसान चौधरी टिकैत के नेतृत्व में उठ खड़ा हुआ और अपने हक के लिए लड़ने लगा। राकेश टिकैत के पिता एक मजबूत किसान नेता थे। यह अलग बात है कि उन्होंने कभी भी राजनीतिक चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन खास बात यह रही कि वह कभी भी सरकारों के पास नहीं गए बल्कि सरकारें खुद चलकर उनके पास आया करती थीं। जिनके नेतृत्व में देश भर के किसान एक झंडे के नीचे आने को राजी होते थे। बल्कि जिसके हुक्के की एक गुड़गुड़ाहट से दिल्ली के हुक्मरानों का सिंहासन भी डोल जाया करता था। वो नेता जो किसानों की हित के लिए सत्ता की आंखों में आंखे डालकर सवाल पूछने की हिम्मत रखता था। जब कभी भी किसानों के आंदोलन का जिक्र होता है तो किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की बात भी जरूर होती है। गंवई ठेठ अंदाज और किसानों से सीधा संवाद वो भी किसी मंच पर नहीं बल्कि किसानों के बीच हुक्का गुड़गुड़ाते हुए। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि उनके नेतृत्व में हुए आंदोलन की वजह से सत्तारूढ़ दल को अपनी रैली की जगह तक बदलनी पड़ी।

चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का जन्म उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर के कस्बा सिसौली में हुआ था। 6 अक्टूबर 1935 को एक किसान परिवार में जन्में महेंद्र सिंह के पिता चौहल सिंह टिकैत बालियान खाप के चौधरी थे। महेंद्र सिंह टिकैत ने गांव के ही स्कूल से सातवीं कक्षा तक पढ़ाई की। वो सिर्फ आठ वर्ष के ही थे जब उनके पिता का देहांत हो गया था। लोगों को अंदाजा भी नहीं था कि किसान नेता चौधरी चरण सिंह की कमी पूरी करने के लिए एक किसान नेता ने जन्म ले लिया है। पिता की मृत्यु के बाद चौधरी ने बालियान खाप की जिम्मेदारी संभाली।

1986 में जब बिजली सिंचाई और फसलों की कीमत को लेकर पूरे उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलित थे तभी किसान संगठन की बड़ी जरूरत महसूस की गई। 17 अक्टूबर 1986 को सर्वसम्मति से चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का अध्यक्ष चुना गया। किसान बिजली विभाग की मनमानी से परेशान थे जिसके बाद 27 जनवरी 1987 को करमूखेड़ी बिजली घर पर धरना शुरू किया। धरना खत्म कराने के लिए पुलिस ने गोली चलाई जिसमें दुखद घटना घटित हो गई। जिससे फिर क्या था। देखते ही देखते चौधरी टिकैत के अंदर एक ज्वालामुखी ने जन्म ले लिया। एक मार्च 1987 को महारैली में टिकैत की हुंकार देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी सुनाई दी। किसानों के बीच बाबा टिकैत के नाम से मशहूर इस नेता की किसानों तक पहुंच ऐसी थी कि एक आवाज में लाखों किसान एकत्रित हो जाया करते थे।

तो क्या अब यह मान लिया जाए कि बहुत समय से देश की राजनीति में किसानों की आवाज विलुप्त हो चुकी थी। अब वह एक बार फिर से राकेश टिकैत के रुप में उभरकर देश के सामने आएगी। क्योंकि जिस प्रकार से देश के अंदर किसान पंचायतों का समर्थन राकेश टिकैत को मिल रहा है वह बहुत दूर तक एक लंबी तस्वीर को साफ कर रहा है। अगर राकेश देश की राजनीति में मजबूती के साथ उभरकर आते हैं तो निश्चित ही एक बार फिर से जय प्रकाश, पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह एवं महेंद्र टिकैत की तस्वीर का उभरना तय है। अगर ऐसा होता है तो देश की कई राजनीतिक पार्टियों का सफाया भी होना तय है।

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