- November 19, 2019
असंगठित विरोधियों के लिए झारखंड में खिलते “कमल” को रोक पाना मुश्किल ! –
पटना (मुरली मनोहर श्रीवास्तव)——सरयू राय के बढ़ते तल्ख तेवर से झारखंड की राजनीति में रोज-ब-रोज नया मोड़ आने लगा है और वो भी झारखंड के मुखिया को उनके ही मंत्री चैलेंज कर मैदान में मात देने की चुनौती दे रहे हैं। वहीं भाजपा केंद्रीय और राज्य स्तरीय प्रबंधन ने सरयू राय को नोटिस करना छोड़ दिया है।
मुख्यमंत्री रघुबर दास अपनी सियासी दांव में सफल माने जा सकते हैं क्योंकि इन्होंने अपने पांच साल के झारखंड में पूरा कर एक नया कीर्तिमान स्थापित तो किया ही है, सबको मिलाकर चलने में भी कामयाब रहे हैं। सरयू राय को भाजपा ने हाशिए पर धकेल कर उनके बड़बोलेपन पर उन्हें औकात में लाने की कोशिश की है।
हलांकि जब से रघुबर सरकार में मंत्री बने सरयू राय खुद को ऊपर दिखाने के लिए हमेशा रघुबर और उनकी सरकार को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहे। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि वो खुद भी उस सियासत के जिम्मेवार पद पर आसीन थे। लेकिन इन्हें तो अविभाजित बिहार की राजनीति करने की आदत पड़ी थी। कभी किसी को अपने आगे नहीं लगा रहे थे लिहाजा आज अपने ही दल में अपना वजूद तलाश रहे हैं।
झारखंड की राजनीति में जमशेदपुर पूर्व सीट पर मुक़ाबला रोचक हो गया है. इस सीट से वर्तमान में मुख्यमंत्री और इस चुनाव में भाजपा के चेहरे रघुबर दास पांच बार से जीत दर्ज कराते आ रहे हैं। इसी सीट से इस बार के विधानसभा चुनाव में रघुबर को चुनौती देने के लिए मैदान में ताल ठोंक दिए हैं। रघुबर के खिलाफ लड़ रहे सरयू राय तो ये भी कह रहे हैं कि लोकतंत्र है और सबको आज़ादी है कि वो कहां से किसके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ सकता है।
अपने नामांकन के बाद दास को ‘दाग़’ बताया और यहां तक कह डाला कि ‘रघुबर दाग़’ को ‘मोदी डिटर्जेंट’ और अमित शाह की लॉन्ड्री भी किसी कीमत पर धो नहीं पाएगी। लेकिन सरयू ये भूल गए हैं कि उसी दाग के बूते भाजपा इस बार फिर दांव खेल रही है। ये वही मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने झारखंड में पांच वर्षों के अपने कार्यकाल को पूरा कर लिया है। हां ये भी कह सकते हैं कि पद और टिकट जब छूटता है तो कोई भी खिसियानी बिल्ली खंभा नोचने वाली स्थिति में आ जाता है वहीं हालात इस वक्त सरयू राय की हो गई है।
झारखंड का चुनाव इस मायने में कुछ ज्यादा ही दिलचस्प हो गया है क्योंकि एक ही सीट से कभी एक ही दल के दो नेता आमने सामने जोर आजमाईश कर रहे हैं। एक हैं मुख्यमंत्री तो दूसरे हैं उसी सरकार के मंत्री। अंतर बस इतना है कि मंत्री जी की टिकट भाजपा ने काट दी है और ये जनाब अपने टिकट कटने का ठीकरा पूरा तरह से केंद्रीय मंत्री अमित शाह और झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास पर फोड़ रहे हैं।
लेकिन एक बात तो सरयू राय को भी मंथन की जरुरत है कि कम से कम अपने टिकट कटने पर करना चाहिए था, कि आखिर ऐसी स्थिति उनके साथ क्यों आयी। वहीं दूसरे पहलू पर गौर फरमाएं तो सरयू राय की मानें तो बिहार के मुख्यमंत्री से नजदीकियां भी टिकट कटने में मुद्दा बना है। आपको याद दिला दूं कि ये वही सरयू राय हैं जिनको जमशेदपुर की एक चुनावी सभा में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी दोस्त बताया था। लेकिन इनकी दोस्ती भी इनके काम नहीं आ सकी और इन्हें टिकट तक नहीं दिया गया।
हां, एक बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सरयू राय हमेशा से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे हैं, घोटालों को उजागर करते रहे हैं, इस तरह इनके इन मुद्दों का भाजपा ने जमकर लाभ लिया। वैसे भाजपा के सारे एजेंड़ों में भ्रष्टाचार था, प्रधानमंत्री हर मंच से भ्रष्टाचार, घोटालों के खिलाफ बोलते रहते हैं फिर उन्हीं के नुमाइंदे रहे सरयू राय को आखिर किस बात की सजा मिली है। यह एक बड़ा सवाल बनकर उभरा है।
कई कार्यकर्ता तो यहां तक पूछते हैं कि क्या अपने पार्टी के एजेंडों को लेकर आगे बढ़ने वालों का इसी तरह पर कतर दिया जाता है। अगर ऐसा ही है तो कहीं रघुबर और सरयू की लड़ाई कुछ और नया गुल न खिला दे।
लेकिन अक्सर देखा जाता है कि सत्तासीन मुख्यमंत्री बहुत कम ही मुंह की खाते हैं ऐसी परिस्थिति में सरयू राय जो आज सूर्खियों में हैं हारने के बाद वो कल का बीता हुआ कल हो जाएंगे। सब मिलाजुलाकर देखें तो झारखंड में फिर से भाजपा अपने कमल को खिलाने में कामयाब नजर आ रही है। इसकी वजह साफ देखने को मिल रही है।
झामुमो, जेवीएम, जदयू, आजसू, कांग्रेस ये सारे दल अलग-अलग मैदान में अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं वहीं भाजपा जो पहले से ही सत्ता में है वो मजबूती के साथ मैदान में दांव खेल रही है। अगर इन दलों को भाजपा को रोकना ही था तो ये संगठित होते तो शायद भाजपा के लिए डगर कठिन होती।
मगर इनका छोटे-छोटे कुनबों में बंट जाना इनके हार का कारण बन सकता है। वहीं एक मुद्दा को और भी गौण नहीं किया जा सकता है वो है आदिवासी और गैर आदिवासी इस मुद्दे पर ऐसा नहीं कि झामुमो का पूर्ण रुपेण कब्जा है बल्कि भाजपा के पास भी कई ऐसे आदिवासी चेहरे हैं जिसका उसको बड़े पैमाने पर फायदा मिलेगा। अब आगे-आगे देखिए झारखंड की राजनीति में होता है क्या ?