- March 12, 2016
अभिशप्त रहते हैं पुस्तक चोर – डॉ. दीपक आचार्य
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जो वस्तु अपने परिश्रम और कमायी से प्राप्त नहीं है उसे प्राप्त कर लेना अपने आप में चोरी है और यह चोरी जीवन भर हमारा पीछा नहीं छोड़ती। रोजाना कई-कई बार हमें अपनी इस चोरी के पाप कर्म की याद आती है, और हमारा आत्मविश्वास छलनी होता रहता है।
संसार में जिस की जरूरत हो उसे मांग कर ली जाए और उपयोग होने के बाद सादर लौटा दी जाए। यह परंपरा है। लेकिन मोटी खाल वाले अनगिनत लोग ऎसे हैं जिनके लिए यह जीवन की सामान्य घटना या दिनचर्या का हिस्सा हो जाता है। इनके भीतर की संवेदनाएं मर गई होती हैं।
सब तरह के चोर-डकैत और तस्करों का बोलबाला सर्वत्र है। कोई बड़े डाकू हैं, कोई छोटे। कोई अपनी भूख और प्यास मिटाने के लिए डाकू बना फिर रहा है, कोई संतृप्त है फिर भी भावी पीढ़ियों के इंतजाम में गधे की तरह बोझ ढो रहा है।
कई सारे हैं जिनका पेट कभी नहीं भरता, लगता है पाताल का रास्ता इनके पेट से होकर ही जा रहा है। बड़े-बड़े और वैभवशाली लोग भिखारियों की तरह व्यवहार करते देखे जा सकते हैं। तरह-तरह के चोर-उचक्कों, डकैत-तस्करों की भीड़ के बीच एक किस्म ऎसी है जो केवल पुस्तकों और साहित्य चुराती है। आश्चर्य यह कि इस जमात में वे शामिल हैं जो पढ़े-लिखे, विद्वान, चिंतक, लेखक, साहित्यकार और बुद्धिजीवी कहे जाते हैं, पढ़ने का शौक फरमाने वाले हैं लेकिन कृपणता के मामले में किसी से कम नहीं। समझदार लोग इन्हें कंजूसी की प्रतिमूर्ति ही कहेंगे और इन मक्खीचूसों की पूरी कहानी बिना पूछे कह डालेेंगे।
ये बड़े ही आदर, सम्मान और प्रेम से उल्लू बनाकर किसी न किसी बहाने बहुमूल्य पुस्तकें ले जाते हैं। हर बार इनके मुँह से यह जरूर निकलता है कि काम होते ही लौटा देंगे, मगर आज तक किसी पुस्तक चोर ने ईमानदारी का परिचय नहीं दिया है।
पुस्तक चोरों में ही एक किस्म वह भी है जो कि बिना कहे पुस्तकें चुरा ले जाती है और फिर भूल कर भी इसकी चर्चा नहीं करते। पुस्तक चोरों से हर कोई परेशान है। खासकर स्वाध्यायी इंसान जो पुस्तकें खरीद कर पढ़ते हैं।
हममें से बहुत से लोग ऎसे हैं जिनके वहां से ये पुस्तक चोर पुस्तकें चुरा ले गए। अपने बाप-दादाओं और गुरुओं को लच्छेदार बातों से गुमराह करते हुए दुर्लभ पुस्तकें ले गए और उसके बाद यह भूल गए कि ये पुस्तकें उनकी अपनी नहीं, उनके बाप की खरीदी हुई नहीं, बल्कि औरों की हैं जिन्हें ईमानदारी से लौटा देनी चाहिएं।
मगर इतनी ईमानदारी, नैतिकता और इंसानियत अब लोगों में कहाँ बची है। फिर जो लोग वर्णसंकरता के दोष से ग्रस्त हैं उन लोगों से इस तरह के इंसानी व्यवहार और शुचिता की उम्मीद नहीं की जा सकती। कई बार तो अपनी पुस्तकें चुरा के या मांग कर ले जाने वाले लोगों से किताबें लौटानें की बात कहने पर बड़े मजेदार तर्क सामने आते हैं। पुस्तक अपनी, अपने लिए हम मांगे और सामने वाले यहां तक कह दिया करते हैं कि किताब दे तो दें मगर पढ़ने के बाद हमें लौटा दो तभी दें। यह कहाँ का न्याय है, पता नहीं इंसान इससे नीचा और कितना गिरेगा। मतलब यह कि पुस्तकों की एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी।
कई बार हम भी पुस्तकें देकर भूल जाते हैं, इसका बेजा फायदा ये चोर उठा लेते हैं। हर क्षेत्र में ऎसे खूब सारे पुस्तक चोर विद्यमान हैं जिनके पास चुराई अथवा गुमराह कर प्राप्त की गई पुस्तकों का भण्डार जमा है। बात यहीें तक नहीं रुकती, इनमें से अधिकांश लोगों के लिए इन पुस्तकों का कोई उपयोग नहीं होता मगर अपने घर में शो केस या आलमारी में घुसेड़ रखने का फोबिया इतना जबर्दस्त होता है कि चाहे जहां से पुस्तकें मांग या चुरा कर ले आते हैं और अपने घरेलू कबाड़ में नज़रबंद कर देते हैं।
इसके बाद इन कैद पुस्तकों का आवागमन कभी नहीं हो पाता। यह तभी हो पाता है जब इन पुस्तक चोरों का राम नाम सत्य हो जाए और दूसरों के कंधों पर सवार होकर ये हमेशा के लिए घर छोड़ दें। ये पुस्तकें भी इन लोगों की कैद से मुक्ति पाने के लिए यही प्रार्थना करती रहती हैं कि कब इनका गरुड़ पुराण पढ़ा जाए व ‘अच्युतम् केशवम…’ बोला जाए और वे कबाड़ से बाहर निकल कर जमाने की हवा खाएं।
मांग कर और चुरा कर पुस्तकें जमा करने वाले तथा पुस्तकों को नहीं लौटाने वाले चोरों की जिन्दगी इन पुस्तकाेंं के श्रापों की वजह से अभिशप्त हो जाती है और ऎसे लोग जीवन के अंतिम समय में धंसी हुई खाट पर दिन गुजारने को विवश होते हैं। बेवजह औरों की पुस्तकें अपने पास न रखें, उन्हें यथासमय लौटा दें अन्यथा अभिशाप पीछा नहीं छोड़ेगा। सभी पुस्तक चोरों को यह चेतावनी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए।