प्रेम में धोखा ! सर्वथा असंभव – डॉ. दीपक आचार्य

प्रेम में धोखा !  सर्वथा असंभव     – डॉ. दीपक आचार्य

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 प्रेम में धोखा खाने की बातें अक्सर सामने आती हैं। दुनिया में बहुत सारे लोगों को यह कहते हुए सुना जा सकता है। आयु वर्ग कोई सा हो सकता है। सभी श्रेणियों के लोगों के मुँह से यह बात सुनी जा सकती है। इनमें अधिकांश अनुभवी भी हैं, और वे भी हैं जो  इस बारे में सुनते रहे हैं,भले ही खुद इससे दूर ही रहे हों।

धोखा शब्द अपने आप में विश्वासघात और अश्रद्धा का परम प्रतीक है तथा विलोमानुपाती भी। जो लोग प्रेम में धोखा हो जाने, धोखा खाने या धोखे की बातें करते हैं वे नादान और मूढ़ कहे जा सकते हैं।

प्रेम और माधुर्य भगवदीय लक्षण हैं और यह जिसमें होगा, वह औरों को धोखा देने की कल्पना भी नहीं कर सकता, धोखा होने या खाने की बात तो कोसों दूर है।

आमतौर पर लोग प्रेम को स्थूल शारीरिक संरचना से लगाव अथवा एक-दूसरे से हमेशा कुछ न कुछ प्राप्त होते रहने को ही मानते हैं और जब यह प्राप्त होना किसी कारण से बंद हो जाता है, कमीबेशी की नौबत आ जाती है तब इसे सीधा जोड़ दिया जाता है धोखे से।

प्रेम ईश्वरीय मार्ग है जो मानवीय संवेदनशीलता के साथ अपने प्रेमी या ईष्ट से साक्षात्कार की तमाम बाधाओं को हटाकर शाश्वत मिलन कराता है, असीम आनंद देता है और प्रेम के मूर्तमान करता है।

 प्रेम को ईश्वर को पर्याय माना गया है। जन-जन की आस्था के प्रतीक संत मावजी महाराज ने इसी प्रेम का ईश्वर से सीधा जोड़ते हुए तीन सौ वर्ष पूर्व कह दिया था – प्रेम तु ही ने प्रेम स्वामी प्रेम त्यां परमेश्वरो। अर्थात् प्रेम ही ईश्वर है, प्रेम ही स्वामी है और परमेश्वर भी वहीं रहता है जहाँ प्रेम हो।

 प्रेम का संबंध मन से है, हृदय के अन्तःस्तल तक इसका वजूद है। इसमें दिमाग की अपेक्षा दिल की भाषा का इस्तेमाल होता है। और यह भाषा ऎसी है कि इसमें अभिव्यक्ति से पहले भावार्थ और निहितार्थ का पता चल जाता है और इसी के अनुरूप समस्त मानसिक व्यापार चलता रहता है।

प्रेम उदात्तता का चरम है जिसमें हर पक्ष उदारता के साथ जीता है और वह भी अपने लिए नहीं बल्कि सामने वाले के प्रति जीता है जिससे वह प्रेम करता है। प्रेम का सर्वोपरि कारक दाता भाव है। प्रेम का अधिकार भी उसी को है जिसमें हर क्षण देने ही देने का भाव हो। कुछ भी अपने लिए प्राप्त करने या सामने वाले से प्राप्त कर अपने लिए संचित करने का भाव नहीं होता।

वास्तविक प्रेम जहाँ होता है वहाँ दूसरे को अपना मानकर उसके प्रति उस स्तर का प्रेम होता है जिसमें श्रद्धा और समर्पण की पूर्णता हो तथा देने का भाव इतना हो कि अपने पास जो कुछ है वह देने के लिए है, अपने पास बचाकर रखने के लिए कुछ नहीं होता।

इस शुद्ध-बुद्ध औदार्यपूर्ण विचार और व्यवहार के पक्षधर को ही प्रेम का अधिकार है। प्रेम में न स्वार्थ होता है, न अपना कुछ होने का भान। जो है वह सब कुछ लुटाकर अपने आपको चरम स्तर तक शून्यावस्था में लाने का ही नाम है प्रेम।

आजकल प्रेम का सीधा सा अर्थ देह और पदार्थ तक के सारे स्थूल तत्वों को अपना बनाए रखने और मनचाहे उपयोग व उपभोग तक सीमित होकर रह गया है जहाँ स्थूलता से ऊपर उठकर न सोचने की फुर्सत रह गई है, न हम इस बारे में गंभीर हैं।

दैहिक आकर्षण और आंगिक वासना के स्तर से बने हुए संबंधों को प्रेम की कसौटी पर खरा नहीं माना जा सकता है। यह सिर्फ एक-दूसरे के लिए टाईमपास आनंद मार्ग से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता, जहाँ किसी न किसी स्वार्थ से हम बंध जाते हैं।

अपने एकाकीपन को दूर करने अथवा किसी न किसी ऎषणा के वशीभूत होकर कुछ न कुछ पाने की तलब को पूरा करने के लिए संबंध जोड़ लिया करते हैं और उसे प्रेम का नाम दे डालते हैं।

कई बार हम औरों की मजबूरियों का लाभ उठा कर उनसे संबंध जोड़ डालते हैं और इसे भी प्रेम का संबोधन दे डालते हैं। जिस किसी संबंध में एक-दूसरे से कुछ भी पाने की कामना हो, न मिले तो गुस्सा या खिन्नता आने का स्वभाव बन जाए और स्वार्थ, कार्य या किसी वस्तु की वजह से अनबन जैसी स्थितियाँ सामने आ जाएं, उस अवस्था को पर््रेम कदापि नहीं कहा जा सकता है।

प्रेम सिर्फ देने और लुटाने का नाम है जिसमें उसकी प्रसन्नता के लिए सर्वस्व न्यौछावर की भावना होनी चाहिए जिससे हम प्रेम करते हैं। प्रेम दाता भाव के उदारीकरण का चरमोत्कर्ष है। आजकल बहुत सारी घटनाएं सुनने को मिलती हैं जिसमें कहा जाता है कि प्रेम में असफल होने या धोखा होने पर अप्रिय घटना कारित हो गई।

तथाकथित प्रेम मार्ग से होकर यथार्थ में आने वाले लोग भी अक्सर प्रेम में धोखा होने की बात को जिन्दगी भर के लिए भुला नहीं पाते हैं और ढेरों ऎसे मिल जाएंगे जो या तो पागल, आधे पागल हो जाते हैं अथवा अपनी जीवनलीला समाप्त कर भूत-प्रेत योनि को प्राप्त हो जाते हैंं।

प्रेम देने का नाम है जहाँ हम स्वेच्छा से अपने आपको समर्पित कर दिया करते हैं, सर्वस्व न्यौछावर करके भी प्रेमी की प्रसन्नता के लिए तत्पर रहते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो प्रेम में धोखा होना कभी संभव है ही नहीं।

धोखे की बात वहां आती है जहाँ दोनों पक्षों में किसी प्रकार से कुछ न कुछ प्राप्ति या लेन-देन का मामला हो जाए। और ऎसा हो जाए तो वह प्रेम नहीं बल्कि सीधे-सीधे व्यापार की ही श्रेणी में आता है। और  जहां व्यापार होगा वहां नफा-नुकसान तो होगा ही।

प्रेम के मूल मर्म को समझने की आज आवश्यकता है, प्रेम को लेकर भ्रमों का निवारण जरूरी है। जहाँ कोई प्रेम में धोखे की बात कहता है,समझ लेना होगा कि वहाँ प्रेम के नाम पर स्वार्थ का व्यापार ही आकार ले रहा है।

इसलिए निष्कर्ष यही है कि प्रेम में धोखा होना कभी भी संभव नहीं है। दो पक्षों में कभी मनमुटाव या बिखराव की बात सामने आ भी जाए तो यह समझना चाहिए कि जितने दिन प्रेम रहा, उतना कालखण्ड हमारे लिए समर्पण का रहा, और इस प्रेम काल का प्रतिफल पाने या कि इसके नाम पर पछतावा करना मूर्खता है क्योंकि जितने दिन देने ही देने का भाव बना रहता है उतने दिन ही वास्तविक प्रेम रहता है, इसके बाद प्रेम की अनुभूतियों के सहारे बीते दिनों के आनंद को महसूस करना सीखना चाहिए।

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