पारिजात के फूल —-विजय कुमार सप्पत्ती, तेलंगाना

पारिजात के फूल —-विजय कुमार सप्पत्ती, तेलंगाना

पारिजात की शादी हुई, मैं नहीं जा सका. मैं जाना ही नहीं चाहता था शादी के तीन दिनों बाद पारिजात की माँ गुजर गयी, मैं नहीं जा सका. मैं जाना ही नहीं चाहता था
छुटकी ने लड़के को जन्म दिया , मैं नहीं जा सका. मैं जाना ही नहीं चाहता था
माँ ने बाद में चिट्ठी में लिखा कि पारिजात ने मोहल्ला छोड़ने कि बात कही,मोहल्ले में उसे मैं और मेरा प्यार याद आता था. कन्हैया के पिताजी ने कन्हैया को भोपाल कीएक नई फैक्टरी यूनियन कार्बाइड में अकाउंटेंट क्लर्क की नौकरी पर किसी से सिफारिश करवा कर लगवा दिया.
पारिजात और कन्हैया ने मोहल्ला छोड़ दिया, मैं नहीं जा सका. मैं जाना ही नहीं चाहता था
मेरी सज़ा पूरी हुई. जेलर ने मुझे अपने परिचय के एक फैक्टरी जो किठाणे में थी; के लिए एक सिफारिशी पत्र दिया और कहा कि वह चले जाऊं तो मुझे नौकरी मिल जायेंगी. और मैं वैसे भी अब अपने शहर या मोहल्ले में जाना नहीं चाहता था. मेरे अन्दर एक अजीब सी बैचेनी थी जो मैं दिन रात काम करके मिटा देना चाहता था, और वही हुआ भी.

नई नौकरी बॉम्बे के पास ठाणे नाम कीजगह में एक फैक्टरी में थी, मैं दिन भर काम करता, रात को कुछ भी खाकर सो जाता. कंपनी की तरफ से छोटा सा क्वार्टर मिला था. मैंने अपने आप को थका देने की बहुत कवायद की . मैं चुप हो गया था. मुझे अब किसी से कोई गिला या शिकवा नहीं रह गया था. बस पागल सा रहता था.

चुपचाप.मैंने माँ को कई बार बुलाया, वो नहीं आई, उसका कहना था कि वो बहु बन कर उस घर में आई थी, वही रहेंगी और वहीँ से विदा होंगी. मैं हर महीने माँ को पैसे भेज दिया करता था. एकचिट्ठी भी लिख दिया करता था.
ज़िन्दगी कट रही थी. बस.

भाग – 7 –1984

माँ ने चिट्ठी लिखी कि –पारिजात आई है. वो गर्भ से है, कन्हैया अभी भी भोपाल में ही काम करता था. पारिजात रोज मिलने आती थी माँ से. उसका भाई शिव भी शादी करने की सोच रहा है, मुझे बुलाया है, मैं तो जाना ही नहीं चाहता था. कभी नहीं.उस शहर से अब मेरा कोई नाता ही नहीं रहा.
फिर दिसम्बर की वो काली रात आई, जिसने भोपाल को तबाह कर दिया, और लाशों का शहर बना दिया. कन्हैया की फैक्टरी में गैस का रिसाव हुआ और पूरा शहर लाशों से भर गया. हमें दूसरे दिन पता चला. मैंने माँ को घबरा कर फ़ोन किया. पूरा मोहल्ला परेशान था. कन्हैया की कोई खबर नहीं थी.मैंने तुरंत ट्रेन पकड़ी और दो तीन गाड़ियां बदल कर अपने शहर पहुँचा
मोहल्ले में मातम सा छाया हुआ था. मैंने माँ से बात कि, पता चला कि लालाजी भोपाल गए हुए है. एकदो दिन में शायद कुछ पता चले. मैं नहाकर पारिजात के घर पहुंचा. पारिजात मुझे देखते ही मेरे गले लगकर रोने लगी. मैंने उसे सांत्वना दिया और शिव को लेकर लालाजी के घर पहुंचा. कन्हैया की माँ का रो रोकर बुरा हाल था. कोई खोज खबर नहीं थी और, भोपाल से जो खबरे आ रही थी वो भयावह थी.

मेरे पहुँचने के दूसरे दिन लालाजी आये और घर के सामने रिक्शे से उतरते ही पछाड़ खा कर गिर पड़े.जो डर था वो सच में बदल गया था. कन्हैया नहीं रहा था.
पूरा मोहल्ला जमा हो गया था. लालाजी और कन्हैया की माँ पागलों जैसे रो रहे थे. मैंने लालाजी को संभालने की कोशिश की, उन्होंने मुझे धक्का दे दिया. पारिजात का रो रोकर बुरा हाल था. लालाजी ने गुस्से में कहा कि उसी की वजह से कन्हैया भोपाल गया था, वरना यहाँ क्या कमी थी.हम सब इस बात को सुन कर भौचक्के रह गए.पारिजात को जैसे गहरा शॉक पहुंचा इस बात से.पारिजात को उसके भाई शिव ने सँभाला और घर ले गया. मैं भी माँ के साथ उसके घर गया, पारिजात थोड़ी- थोड़ी देर में जोरों सेरो देती थी.माँने सँभाला, और कहा कि अरे लालाजी बेहद दुःख में है इसलिए ऐसा कहदिया. उनका इकलौता लड़का गया है. इसलिए अपने आप में नहीं है होश में नहीं है.तुम कोई बात का बुरा मत मानना. पारिजात को होश कहा था.उसकारो रोकर बेहाल थी, थोड़ी देर में वो बेहोश सी हो गयी.हमने उसे मोहल्ले में मौजूद छोटे से क्लिनिक ले गए. वह पर उसे ट्रीटमेंट दिया गया. पारिजात आठवें महीने के गर्भ सी थी.ऊपर ये हादसा. मेरी आँखों में विवशता के आंसू आ गए, हे भगवान और कितनी परीक्षा लेगा.
भोपाल में जहाँ कन्हैया रहता था वहाँ पर भी गैस ने प्रकोप दिखाया था और कन्हैया भी बचने के लिए बाहर भागा था लेकिन वो बचन सका.सारा शहर लाशों से पट गया था. और फिर महामारी के फैलने के डर से सरकार ने सारे लाशों की फोटो खींच कर उनका एक साथ अंतिम संस्कार कर दिया. लालाजी को सिर्फ फोटो ही देखने को मिली.
पूरे मोहल्ले में मातम छाया हुआ था.किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था किकिसे संभाले. लालाजी और कन्हैया की माँ को या पारिजात को, दोनों के घरों में मातम था. दोनोंघरों के रो रोकर बुरे हाल थे.
पारिजात अब चुप सी हो गयी थी.
समय को बीतना था.सोबीता. लालाजी का गुस्सा कम नहीं हुआ.मेरी माँ पारिजात का खयाल रखती, उसके साथ हर बार मेडिकल चेकअप के लिए जाती थी.
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा थाकि ज़िन्दगी किस राह जा रही है, पारिजात के चेहरे को देखने कि हिम्मत नहीं होती थी. मेरे गले में कुछ अटक सा जाताथा.मैंने अपनी छुट्टी को और बढ़ा दिया था, मैंने पारिजात के प्रसव तक रुकने कीसोच लिया था.मैंनेकई बार लालाजी से कहा भी कि पारिजात के लिए उनका गुस्सा ठीक नहीं है. ये तो विधि के विधान है.लेकिन लालाजी मुझसे भी नाराज़ थे. उनका ये भी सोचना था कि सब बातोंकी जड़ मैं ही हूँ.मैं क्या कहता.
करीब एक माह बाद खुशियों का आगमन हुआ. पारिजातने एक सुन्दर लड़की को जन्म दिया.मैंने उसका नाम कृष्णवेणी रखा.लालाजी को सभी ने समझाया लेकिन वो अब भी नाराज थे. ये बात अलग थी कि कन्हैया कीमाँ उनसे छुपकर मेरे घर में आकर पारिजात को और बेटी को देखकर गयी.बेटी को देखकर खूब फूट फूट कर रोई.मेरे भी आंसू रुकते नहीं थे.
मेरी नौकरी पर वापस जाने का समय आ गया.मैंने माँ को पारिजात को संभालने को कहा और फिर मैं पारिजात से मिला.
शाम का समय था. हम दोनों के मध्य एक मौन छाया हुआ था. जो समय सेपरे था.
मैंने उसका हाथ धीमे से थामा,उसकी आँखों में नमी आ गयी. मैंने कहा ‘ देखो पारिजात, अब जो हुआ वो किस्मत ही है. जो होना है वो भी किस्मत ही है. बस इतना याद हमेशा रखना,कि मैं हमेशा ही तुम्हारे साथ हूँ और रहूँगा. ज़िन्दगी में कभी भी किसी भी वक़्त मुझे पुकार लेना, मैं तुम्हारे साथ ही खड़ा मिलूँगा. मैंने घर पर फ़ोन लगवा दिया है,मां को भी अपनी कंपनी का नंबर दे दिया है, माँ सब समझती है, जानती है, तुम जब भी जी चाहो मुझसे बाते करते रहना. मैं माँ को जो रुपये भेजता हूँ,उसमें तुम्हारे लिए भी कुछ भेज दिया करूँगा, देखो मनामत करना, बस समझना बेटी के लिए है‘
ये सब सुनकर पारिजात फफक फफक कर रो पड़ी. उसके गले से कोई शब्द ही नहीं निकले.
मैंने कहा ‘ अपना और बेटी का ख्याल रखना. लालाजी के साथ निभाने की कोशिश करो, उनका घाव बहुत बड़ा है, सब ठीक हो जायेगा.मैं हर दो महीने में आया करूँगा. तब मिलेंगे.
मैं दूसरे दिन बहुत उदासी के साथ उस शहर को फिर एक बार अपनी नौकरी के लिए छोड़ दिया, जिस शहर में मेरा सब कुछ था.

भाग – 8 – 1985
समय बीतता गया,फ़ोन पर कभी कभार पारिजात से बाते होती, यही पता चलता कि लालाजी ने अब तक पारिजात को माफ़ नहीं किया है,शिव भैया शादी करने जा रहे है. माँ ठीक है, बेटी भी हंसती है, चलने लगी है यही सब दुनियादारी कीबाते और बीच बीच में एक अनचाहा मौन.

जबशिव की शादी तय हुई तो मैं आया, सब कुछ ठीक से निपट गया, लेकिन पारिजात की किस्मत में अभी और दुःख लिखे हुए थे.

शिव की पत्नी ने एक हफ्ते बाद ही घर में हंगामा करना शुरू कर दिया. बातबात से उलझती,झगडती. जिस बात की आशंका थी वही होने लगी.शिव बेचारा पिसते रहता. क्या करता और क्या कहता.

मैं चूंकि नौकरी पर वापस आ चुका था, मैंने माँ को कहा कि कुछ दिनों के लिए पारिजात और उसकी बेटी को लेकर मेरी नौकरी कीजगह पर रहने के लिए आ जाए, उसका मन बदल जायेगा. माँ ने पारिजात से बात की, पारिजात ने शिव से इजाजत मांगी,शिव ने तो इजाजत दे दिया. और ये सब आये भी और करीब १५ दिन रहे, मेरा छोटा सा कमरा गुलजार हो गया. दिन भर कृष्ण वेणी की हंसी और रोना और उसका खेलना, घर भर सा गया. १५ दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

ये लोग वापस गए.शिव कि पत्नी ने फिर हंगामा किया. पारिजात ज्यादातर समय चुप ही रहती. शाम के समय, मेरे घर आ जाती, तब कन्हैया कि माँ भी आ जाती, सब मिलकर दुःख सुख कीबाते करते. कन्हैया की मां,लालाजी से छुपकर कुछ खाने के लिए ले आती.

बस ज़िन्दगी ऐसे ही गुजर रही थी. हर कोई के जीवन में दुःख था. सुखकीकोई छाया भी नहीं नज़र आती थी.

संपर्क–
फ्लैट न० 402, पांचवी तल,
प्रमिला रेजीडेंसी हाउस न० 36-110/402,
डिफेंस कालोनी सैनिकपुरी पोस्ट
सिकंदराबाद – 500094 [तेलंगाना]
मो० : +91 9849746500
ईमेल: vksappatti@gmail.com

——————————अंश जारी—————————

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